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संडे व्यू: नेहरू सुधारक-मोदी संस्कृतिक पुनरुत्थानवादी, वाराणसी में हुआ सर्कस

कश्मीर में लौट रही है जिंदगी..संडे व्यू में पढ़ें चुनिंदा अखबारों के प्रमुख लेख

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भारत
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू में पढ़ें नामचीन लेखकों के आर्टिकल का सार</p></div>
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संडे व्यू में पढ़ें नामचीन लेखकों के आर्टिकल का सार

(फोटो: Altered by Quint)

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नेहरू सुधारक तो मोदी पुनरुत्थानवादी भी

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे निर्माता के रूप में उभरी है जिनकी परियोजनाएं भारत के भौतिक मानचित्र पर उतर कर लोगों के मस्तिष्क तक में उतर गयी हैं. ऐसी धारणा बनी है जैसे जवाहर लाल नेहरू के बाद किसी ने ऐसा नहीं किया हो.

नेहरू ने कई जल विद्युत परियोजनाएं जैसे हीराकुंड, रिहंद और दामोदर घाटी परियोजना शुरू की थीं, देश में भारी उद्योग का विकास किया और धातु, ताप विद्युत संयत्र उपकरण, भाप एवं डीजल रेल इंजन, रेल डिब्बे आदि के निर्माण पर जोर दिया. उन्होंने चंडीगढ़ शहर भी बसाया.

नाइनन लिखते हैं कि नेहरू के ही नक्शेकदम पर चलते हुए नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में मंदिर निर्माण, काशी विश्वनाथ गलियारे का लोकार्पण, हिमालय क्षेत्र में प्राचीन तीर्थ स्थलों को जोड़ने, नये राजमार्ग और एक्सप्रेस वे, परिवहन गलियारा, नये हवाई अड्डे पहल की है.

नेहरू और मोदी दोनों ने आधुनिकीकरण की दिशा में कदम बढ़ाए. लेकिन, मोदी सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी भी हैं. आलोचक यह भी कह सकते हैं कि नेहरू ने देश के विभिन्न हिस्सों को जोड़ा है जबकि मोदी ने इन्हें मजबूत बनाए रखा.

वाराणसी में सर्कस

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि प्रधानमंत्री के वाराणसी दौरे को जिस तरह कर बढ़ा-चढ़ाकर मीडिया में पेश किया गया उसे देखकर रामानंद सागर के रामायण धारावाहिक की याद आ गई है. खुद लेखिका भी टीवी से चिपकी रही. गंगा में नरेंद्र मोदी के डुबकी लगाने से लेकर देर रात तक टीवी स्क्रीन से हटा नहीं जा सका जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पीएम नरेंद्र मोदी रेलवे स्टेशन का मुआयना कर रहे थे.

राजनीति और अति राष्ट्रवाद के साथ धर्म के जुड़ाव पर लोग क्या सोचते हैं यह जानने की उत्सुकता लेखिका तवलीन सिंह में दिखी. विश्वनाथ मंदिर के महंत से इस बारे में लेखिका ने बात की. वे कॉरिडोर के प्रशंसक नहीं थे. उन्होंने कहा, “मैं बता दूं कि उन्होंने जरूर कुछ सुंदर बना लिया है लेकिन जिस तरह से धर्म को राजनीति से जोड़ा जा रहा है उसे यहां के लोग पसंद नहीं करते. इसका खामियाजा चुनाव में भुगतना पड़ेगा.”

तवलीन सिंह ने लिखा कि मुख्य न्यायाधीश ने बीते हफ्ते कहा था कि खोजी पत्रकारिता देखने को नहीं मिल रही है. वाराणसी दौरे को जिस तरीके से कवर किया गया, वह उसकी पुष्टि कर रहा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद अपने भाषण में औरंगजेब को लेकर आ गये. आज के मुसलमानों को पुरानी बातों के लिए जिम्मेदार बताने की कोशिश की गयी.

2017 में डबल इंजन की सरकार आने के बाद से बहुत कुछ बदल चुका है. एक तरफ धर्म का राजनीति में इस्तेमाल है तो दूसरी तरफ नफरत के कारण बंटता समाज है. इन सबके बीच वाराणसी जिन दो नदियों के नाम पर है उनमें से एक वरुणा का अस्तित्व लगभग खत्म हो चुका है और असी नदी भी नाला बन चुकी है.

नगालैंड में सेना को माफी मांगना ही चाहिए

करण थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में पूछा है कि क्या नगालैंड में 13 निर्दोष नागरिकों की हत्या के लिए सेना को माफी मांगना चाहिए? चाहे जिस पृष्ठभूमि में यह घटना घटी हो लेकिन यह भयानक भूल है. सेना ने इस पर खेद जताया है लेकिन क्या इतना भर काफी है? नगालैंड की जनता अगर माफी की मांग कर रही है तो इसके पीछे उनकी भावना और सोच यह है कि सरकार इस गलती को माने.

माफी मांगने के विषय पर सेना के अफसरों में भी अलग-अलग राय हैं. एक तबका ऐसा है जो माफी मांगने को सेना की कमजोरी के तौर पर देखता है और मानता है कि इससे सेना के मनोबल पर असर पड़ेगा. ऐसे लोग मानते हैं कि यह घटना भ्रामक खुफिया जानकारी या फिर अन्य कारणों से हुई है मगर जानबूझकर ऐसा नहीं किया गया है. नगालैंड जैसे अस्थिर क्षेत्र में ऐसी गलतियां हो सकती हैं.

लेकिन, सेना के ही दूसरे तबके की सोच माफी मांग लेने के हक में है. वे इसे ताकत का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल मानते हैं. खुद लेखक का मानना है कि माफी मांगना जरूरी है. यह व्यावहारिक तौर पर उपयोगी भी है. लोकतंत्र में माफी नहीं मांगने के पीछे भी बडी वजह होनी चाहिए. जब निर्दोष नागरिकों की हत्या हो रही हो तो आप माफी क्यों नहीं मांगेंगे? लेखक इस तर्क को भी खारिज करते हैं कि माफी मांगना सेना की कमजोरी होगी.

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कश्मीर में लौट रही है जिंदगी

चेतन भगत ने टाइम्स ऑफ इंडिया मे लिखा है कि केंद्र शासित कश्मीर में अगली प्राथमिकता रोजगार सृजन और बेहतर जिन्दगी मुहैया कराना होना चाहिए. उन्होंने लिखा है कि यह अच्छी खबर है कि नवंबर महीने में 1.27 लाख पर्यटक कश्मीर पहुंचे हैं. नवंबर में बीते 7 साल में औसतन 54,200 पर्यटक आए थे.

हालांकि भारत की आबादी को देखते हुए यह संख्या बहुत बड़ी नहीं लगती लेकिन फिर भी आशा की किरण दिखती है कि संकट से जूझते इस क्षेत्र में यह संख्या और बढ़ेगी. चेतन भगत उम्मीद जताते हैं कि पर्यटकों की संख्या कई गुणा ज्यादा हो सकती है. निश्चित रूप से इसका मतलब अधिक रोजगार, बेहतर अर्थव्यवस्था और समग्र रूप में आर्थिक समृद्धि है. स्थानीय लोगों के लिए यह स्थिति वरदान हो सकती है.

हालांकि यह भी सच है कि अकेले पर्यटक अर्थव्यवस्था का निर्माण नहीं करते. दूसरे कारोबार को बढ़ावा देने वाले उपाय को भी तेज करना होगा. विशेषज्ञों के सम्मेलनों और बातचीत में कई दशक बर्बाद हो चुके हैं. कश्मीर को लेकर कभी निश्चित नतीजे तक नहीं पहुंचा जा सका. यह बहुत जटिल समस्या है.

अनुच्छेद 370 को हटाकर आखिरकार हमने कुछ किया है. मगर, यह नाकाफी है. असल बात है कि कश्मीर के आम लोगों की दैनिक जिन्दगी को संवारने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है. अब अगले दौर में इसी बात पर फोकस करना प्राथमिकता होनी चाहिए.

विडंबनाओं का इतिहास है बांग्लादेश

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि पूर्वी पाकिस्तान की मौत के 50 साल हो चुके हैं. हालांकि बांग्लादेश की अस्थायी सरकार ने निर्वासित रहते हुए अप्रैल में ही नयी सरकार की घोषणा कर दी थी लेकिन व्यावहारिक रूप में यह 16 दिसंबर को अस्तित्व में आया. पाकिस्तानी लेफ्टिनेन्ट जनरल ए.ए.के नियाजी ने आत्मसमर्पण किया, शेख मुजिबुर्रहमान जेल से रिहा हुए और नये देश का नया नेतृत्व उभरकर सामने आया.

भारत में बांग्लादेश के उदय का उत्सव मनाया गया. एक समूह था जो इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सोच और साहस की जीत बता रहा था. वहीं, दूसरा समूह इस घटना को पाकिस्तान पर जीत के रूप में देख रहा था और महसूस कर रहा था कि इससे 1962 में चीन के हाथों पराजय का दर्द थोड़ा कम हुआ है.

एक तीसरा समूह भी था जो इस घटना को सैद्धांतिक जीत के रूप में देख रहा था. द्विराष्ट्र के सिद्धांत को खारिज होने के रूप में भी यह वर्ग इसे देख रहा था. बांग्लादेश में इरशाद के नेतृत्व में तानाशाही लौटने के बाद अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़े. 1986 में यह इस्लामिक देश बन गया. मगर, बाद के दौर में बांग्लादेश में बड़ा परिवर्तन का दौर आया. कई मायनों में यह भारत की बराबरी कर रहा है. कुल मिलाकर बांग्लादेश विडंबनाओं का इतिहास अपने में समेटे हुए है.

पराजित योद्धाओं की विजेता बनेंगी ममता?

आदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि ममता बनर्जी का महत्व इस रूप में समझा जा सकता है कि नेपाल जैसे देश से भी उन्हें आमंत्रण मिलता है जहां वे इसलिए नहीं जा पाती हैं कि केंद्र सरकार की ओर से मंजूरी देने में देरी हो जाती है.

इस कार्यक्रम का मकसद बंगाल के दार्जिलिंग में गोरखाओं के बीच अपनी सियासत चमकाना था. गोवा में तृणमूल गंभीरता से चुनाव लड़ रही है तो मेघालय में कांग्रेस के विधायकों को तोड़कर उससे विपक्ष तक का दर्जा छीन चुकी है. हरियाणा हो या फिर त्रिपुरा या असम, कांग्रेस नेताओं को तोड़कर कांग्रेस हलचल मचा चुकी है.

फडणीस लिखती हैं कि राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि ममता बनर्जी ऐसा इसलिए कर रही हैं ताकि 2019 के आम चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद राष्ट्रीय पार्टी के रूप में तृणमूल कांग्रेस की जो छवि बिगड़ी थी उसे बचाया या बनाया जा सके. वह उन्हीं क्षेत्रों में विस्तार कर पा रही है जहां कांग्रेस कमजोर है.

जिन राज्यों में कांग्रेस मजबूत है वहां तृणमूल कांग्रेस के लिए कोई गुंजाइश नहीं दिख रही है. इसके अलावा ममता का फोकस उन्हीं राज्यों में है जहां 2022 या 2023 में विधानसभा चुनाव होना है. ममता युद्ध जीतने में विश्वास रखती हैं. ममता का मकसद विजेता बनना ही नहीं, हारने वालों में विजेता बन कर दिखाना है.

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