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संडे व्यू: नेता तय करेंगे मानवाधिकार? आर्थिक विकास का आशावाद

"हिटलर का नया जमाना", "चुप्पी भी है अपराध" संडे व्यू में पढ़िए देश के चुनिंदा अखबारों के सबसे बेहतरीन लेख

क्विंट हिंदी
भारत
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संडे व्यू में पढ़िए देशभर के प्रमुख अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स
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संडे व्यू में पढ़िए देशभर के प्रमुख अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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मानसिकता जो पहुंचा रही है मानवाधिकार को नुकसान

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में संयुक्त राष्ट्र महासभा में 1948 में मानवाधिकारों पर सार्वभौमिक घोषणा पत्र के हवाले से भारत में मानवाधिकार को परखने की कोशिश की है. लखीमपुर खीरी की घटना काजिक्र करते हुए वे लिखते हैं कि तीन कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों को गाड़ियों का काफिला रौंदता चला जाता है. उसके बाद हिंसा भड़क जाती है. तीन लोगों को पीट-पीट कर मार डाला जाता है. एक पत्रकार की भी मौत हुई. रौंदती गाड़ी में आगे चल रहा वाहन केंद्र सरकार में गृह राज्य मंत्री का बेटा था.

चिदंबरम लिखते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र के अनुच्छेद 19 के मुताबिक किसानों का इकट्ठा होना और अपनी राय रखना उनका अधिकार है. अनुच्छेद 20 भी शांतिपूर्ण तरीके से इकट्ठा होने और मिलने की आजादी देता है. लखीमपुर खीरी में मानवाधिकारों के उल्लंघन की इस घटना पर प्रधानमंत्री चुप हैं. 2018 में भीमा कोरेगांव की घटना के बाद पांच वकील, एक अंग्रेजी की प्रोफेसर, कवि और प्रकाशक तथा दो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल भेजा गया है. इनकी जमानतें बार-बार खारिज की जाती रही हैं.

2 जनवरी 2021 को पत्रकार प्रतीक गोयल ने अपने लेख में आपराधिक मामले की सुनवाई के दौरान 16 बड़े उल्लंघनों का जिक्र किया था. इनमें बिना वारंट तलाशी और जब्ती, बिना ट्रांजिट रिमांड के कैदी को उठा लेना, कैदी को उनकी पसंद का वकील मुहैया कराने से इनकार, कैदी के अस्पताल का खर्च वहन करने से राज्य सरकार का इनकार, मेडिकर रिपोर्ट नहीं देना, गठिया से पीड़ित मरीज को सहूलियत वाला शौचालय देने से इनकार, जांच एनआए को सौंपना, कैदी को अपनी मां के अंतिम संस्कार में हिस्सा लेने के लिए पैरोल देने से इनकार शामिल हैं.

लेखक का दावा है कि 3 साल में प्रधानमंत्री ने एक बार भी कैदियों के मानवाधिकारों के बारे में एक शब्द नहीं बोला है. लेखक प्रधानमंत्री से परी तरह सहमत हैं कि इस तरह की मानसिकता मानवाधिकार को भारी नुकसान पहुंचाती हैं.

नेता तय करेंगे मानवाधिकार?

इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह लिखती हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28वें मानवाधिकार दिवस पर प्रवचन सुनाया कि इस नाम पर देश को बदनाम किया जाता है. लेखिका ने सवाल उठाया है कि क्या अब राजनेता तय करेंगे कि मानवाधिकारों का हनन कब होता है? नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो यानी एनसीबी के प्रवक्ता ने अदालत में तर्क दिया कि ड्रग्स के मामले में अभियुक्त तब तक दोषी होते हैं जब तक वे अपने आपको निर्दोष साबित नहीं कर देते.

ऐसे में सवाल है कि क्या आर्यन खान को जेल में तब तक रखा जाएगा जब तक कि वे अपने आपको निर्दोष साबित नहीं कर देते? क्या जमानत मिलना अब अधिकार नहीं रहा? सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत को अधिकार माना है और स्पष्ट किया है कि जमानत केवल उनको नहीं मिलना चाहिए जो गायब हो सकते हैं या जो गवाहों पर दबाव डाल सकते हैं.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि आर्यन खान के मामले में मुख्य गवाह भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता है. जाहिर है आर्यन उन पर दबाव नहीं डाल सकते. शाहरूख खान के बेटे का गायब होना भी नामुमकिन है. फिर जमानत क्यों नहीं मिली? शाहरूख उन मुट्ठी भर लोगों में से हैं जिन्होंने नरेंद्र मोदी के सामने फर्जी सलाम नहीं किया.

जिन पत्रकारों ने प्रधानमंत्री की कुछ ज्यादा आलोचना की है उनके दफ्तरों पर छापे पड़े हैं और प्रधानमंत्री मिलते हैं सिर्फ दोस्ताना पत्रकारों से. दिल्ली दंगों के बा कई छात्र जेल में बंद रहे हैं. एक साल बाद भी आरोप पत्र नहीं दिया गया है. इनमें से कुछ छात्रों को रिहा करने वाले दिल्ली के जज का ट्रांसफर कर दिया गया. क्या यह मानवाधिकार उल्लंघन का उदाहरण नहीं है? यूएपीए के तहत 2019 में 72 फीसदी गिरफ्तारी बढ़ गयी हैं.

मोदी के राज में मानवाधिकारों का जिक्र अब खतरे से खाली नहीं रह गया है. ऐसा लगता है कि मोदी खुद तय करना चाहते हैं कि मानवाधिकार का हक किसे दिया जाए. आंदोलनकारी किसान भी इस दायरे में नहीं आते जिन्हें प्रधानमंत्री आंदोलनजीवी कह चुके हैं.

आर्थिक विकास का आशावाद

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि त्योहार के समय शेयर बाजार से शेष अर्थव्यवस्थता में अच्छा संदेश जा रहा है. निर्यात, कर राजस्व, कंपनियों का मुनाफा, यूनीकॉर्न की संख्या और औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी तथा मुद्रास्फीति, एनपीए का बोझ घटने से वित्तमंत्री का हौंसला बढ़ा हुआ है और वह दो अंकों की जीडीपी वृद्धि का अनुमान लगा रही हैं. प्रधानमंत्री भी दावा कर रहे हैं कि उनकी सरकार की तरह पहले कभी कोई सरकार सक्रिय नहीं रही.

नाइनन लिखते हैं कि बीते छह महीने में मौद्रिकरण, एयर इंडिया की बिक्री, दूरसंचार का वचाहव, इलेक्टिरक वाहन को बढ़ावान, नवीकरणीय ऊर्जे के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य जैसी बातें उल्लेखनीय हैं. आर्थिक गतिविधियों में आई तेजी को टीएन नाइनन 2020 के निम्न आधार से हो रही तुलना वजह मानते हैं.

भारत की बीते चार साल में औसत जीडीपी 3.7 फीसदी रही और इस अवधि में वैश्विक जीडीपी ग्रोथ 2.6 फीसदी रहा. एशिया में पिछले दशक में बांग्लादेश, चीन, वियतनाम और ताइवान ने भारत से बेहतर प्रदर्शन किया. हालांकि नकारात्मक खबरों के बीच सरकार ने धैर्य बनाए रखा जो सराहनीय है. 2021 में अर्थव्यवस्था में 29.7 फीसदी निवेश का अनुमान है जो एक दशक पहले के 39.6 फीसदी से कम है.

केंद्र और राज्य सरकारों का संयुक्त घाटा 11.3 फीसदी है जो 2011 में 8.3 फीसदी से अधिक है. ऋण-जीडीपी अनुपात 68.6 फीसदी से बढ़कर 90.6 फीसदी हो चुका है. फिर भी हम उम्मीद करें कि हमारा आशावाद बरकरार रहे.

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केंद्र के मुकाबले राज्यों का साझा बजट अधिक नकारात्मक

एके भट्टाचार्य ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि देश में ऐसी कोई केंद्रीकृत एजेंसी नहीं है जो सभी 30 राज्यों की वित्तीय स्थिति के आंकड़े इकट्ठा करे और उन्हें मासिक आधार पर जारी करे. भारतीय रिजर्व बैंक राज्यों के बजट पर अध्ययन जरूर करता है लेकिन यह वार्षिक प्रकाशन होता है जो देर से आता है. लेखक बताते हैं कि बीते 10 वर्षो में राज्यों के बजट का आकार केंद्र के बजट से अधिक रहा है. 2011-12 में पहली बार राज्यों का साझा बजट केंद्र के बजट से ज्यादा रहा था. तब यह 4 फीसदी अधिक था. अब 2020-21 में यह 22 फीसदी अधिक हो चुका है.

एके भट्टाचार्य ने लिखा है कि 2021-22 के शुरुआतीपांच महीने में 20 राज्यों का कुल व्यय 34.4 लाख करोड़ रुपये है जो केंद्र के अनुमानित 34.8 लाख करोड़ रुपये के बजट से मामूली रूप से कम है. ऐसा तब है जब इन राज्यों में 2020 और 2019 की इन्हीं अवधि की तुलना में व्यय क्रमश: 13 फीसदी और 11 फीसदी अधिक रहा.

केंद्र के कुल व्यय में छह फीसदी के इजाफे के उलट राज्यों का व्यय अप्रैल-अगस्त 2020 में दो फीसदी कम हुआ. चिंता की बात यह है कि जहां केंद्र सरकार ने राजस्व व्यय पर लगा लगाए रखा है वहीं राज्य सरकारों के व्यय में बढ़ोतरी हुई है. पूंजीगत व्यय के मोर्चे पर भी केंद्र का प्रदर्शन बेहतर रहा है. केंद्र के मुकाबले इन 20 राज्यों के कर राजस्व में भी कमी आयी है. ऐसे में केंद्र सरकार अपने राजकोषीय विवेक का जश्न मनाएगी लेकिन राज्यों को परेशानी होगी. राज्यों के वित्तीय प्रदर्शन में भटकाव से वित्तीय स्थिति समझने में देर नहीं लगती.

चुप्पी भी अपराध है

इंडियन एक्सप्रेस में पुष्पेश पंत लिखते हैं कि ताजा वारदातों में बर्बरता शब्द भी अपनी अहमियत खो चुका है. मानवता के खिलाफ हो रहे अपराध पर हम सबकी चुप्पी अधिक खतरनाक है. लखीमपुर खीरी की घटना के बाद हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचता. अमीर और ताकतवर लोगों के मामले में चश्मदीद भी मायने नहीं रखते. अक्सर वे दुबक जाते हैं.

वीडियो को डॉक्टर्ड बताकर खारिज किया जा सकता है और घटना के लिए किसी को भी बलि का बकरा बनाया जा सकता है. घटती रही घटनाओं के आलोक में कहा जा सकता है कि नशे में धुत्त ड्राइवर ने शांतिपूर्ण आंदोलनकारियों को कुचल दिया. एक पूर्व राजनयिक के हवाले से लेखक लिखते हैं कि लखीमपुर खीरी की घटना मानसिक रूप से अस्थिर व्यक्ति का काम नहीं बल्कि सोची समझी साजिश का नतीजा है.

लेखक लिखते हैं कि केंद्रीय गृह राज्यमंत्री ने कुछ दिनों पहले किसानों को धमकाते हुए जो उकसाने वाला भाषण दिया था उसे देखते हे इस घटना की स्वतंत्र व दबावरहित जांच उनके पद पर बने रहते हे मुश्किल लगता है. पुलिस की जांच से पहले ही मंत्री ने अपने बेटे को दोषमुक्त घोषित कर दिया था.

भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसकी पहल पर जांच चल रही है और गिरफ्तारी हुई है. अदालत से भी अब बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती जो लगातार अस्पष्ट दिख रहा है. अदालत में अर्जी लगाने से हड़ताल का अधिकार नहीं रहने वाली टिप्पणी ने कई सवाल पैदा कर दिए हैं. सीबीआई, ईडी, एनडीपीएस, एनआईए जैसे संगठनों ने अपनी विश्वसनीयता खो दिए हैं. आर्यन खान की गिरफ्तारी भी अहम घटना है. इन घटनाओं पर प्रधानमंत्री की चुप्पी चौंकाने वाली है. दीया जलाओ की जगह जिया जलाओ की भावना के साथ भक्त सक्रिय हैं.

हिटलर का नया जमाना

टेलीग्राफ में आसिम अली ने सवाल उठाया है कि नाजी जर्मनी में जो दमन और बर्बरता देखने को मिलीं क्या उसके लिए केवल हिटलर जिम्मेवार था? कई इतिहासकारों ने हिटलर के मास्टर प्लान केबारे में लिखा है लेकिन नाजी पार्टी की मशीनरी जिस तरह से चीजों को हैंडल कर रही थी उस बारे में कम लिखा गया है. ब्रिटिश इतिहासकार सर इयान केरशॉ के हवाले से लेखक ने ‘क्यूमुलेटिव रैडिकलाइजेशन’ का विचार रखा है.

इसके अनुसार जो नाजी जर्मनी ने जो अत्याचार अपने शासनकाल में किए उसके लिए व्यवस्था हिटलर के दिशानिर्देशों पर निर्भर नहीं थी. हिटलर की अथॉरिटी में जो तत्कालीन बॉस थे, नौकरशाह और प्रोफेशनल्स थे उन्होंने इस मामले में पहल को आगे बढ़ाया. केरशॉ के मुताबिक नागरिक मूल्यों में आयी गिरावट के लिए नाजी जर्मनी का रैडिकलाइजेशन जिम्मेदार था.

असीम नाजी जर्मनी की तुलना आज के भारत से करते हैं या यूं कहें कि हिटलर के जर्मनी की तुलना मोदी के भारत से करते हैं. आसिम अली लिखते हैं कि नरेंद्र मोदी ने शासन की कोई नयी व्यवस्था लागू नहीं की है. वही संविधान और वही संस्थाएं हैं जो पहले से हैं. फिर भी बीते 7 सालों में उन्होंने राजनीतिक संस्कृति को बदल दिया है.

कानून के शासन को नजरअंदाज करने के लिए प्रदेश सरकारों और सिविल सोसायटी को प्रोत्साहित किया जा रहा है. चाहे सरकारी कार्रवाई हो या फिर संसद से कानूनों को पारित कराया जाना, तानाशाही की व्यवस्था मजबूत हो रही है. यूएपीए कानून से लेकर दूसरे मुद्दों में देखें तो रैडिकलाइजेशन नीचे से ऊपर की ओर बढ़ रहा है.

पार्टी के कार्यकर्ता, पुलिसकर्मी, नौकरशाह, वकील, जज, पत्रकार सभी अपने-अपने स्तर पर नयी वास्तविकता को गढ़ रहे हैं. लेखक इंदौर में 8 सदस्यों वाले मुस्लिम परिवार का उदाहरण रखते हैं जिन्हें हिन्दुत्ववादी भीड़ ने इलाका चोड़ने को विवश कर दिया. पुलिस ने षडयंत्रकारियों के खिलाफ केस करने के साथ-साथ पीड़ित परिवारों पर ही केस दर्ज कर दिया. असम, बंगाल के उदाहरणों से भी लेखक ने अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है.

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