Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019India Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019संडे व्यू: अफगानिस्तान में फेल हुए जयशंकर? निर्यात बढ़ने से बढ़ेगा रोजगार?

संडे व्यू: अफगानिस्तान में फेल हुए जयशंकर? निर्यात बढ़ने से बढ़ेगा रोजगार?

वाट्सऐप यूनिवर्सिटी से निकला तालिबानी ज्ञान,बच्चों का स्कूल से दूर रहना कितना खतरनाक.संडे व्यू में पढ़ें चुनिंदा लेख

क्विंट हिंदी
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>पढ़ें टीएन नाइनन,  पी चिदंबरम, प्रभु चावला के आर्टिकल</p></div>
i

पढ़ें टीएन नाइनन, पी चिदंबरम, प्रभु चावला के आर्टिकल

(फोटो: Altered by Quint)

advertisement

तालिबान से त्रस्त दुनिया में कहां है भारत?

प्रभु चावला ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बीच कूटनीतिक दुनिया में भारत असहज दिख रहा है. परिस्थिति से निपटने में भारत को मुश्किलें आ रही हैं. तालिबान भारत के लिए बड़ा खतरना बनता दिख रहा है.

ऐसा पहले कभी नहीं दिखा. बीते दशक में पाकिस्तान भ्रष्ट और कट्टरपंथी ताकतों के प्रभाव में आया. अब इसी पाकिस्तान की पकड़ अफगानिस्तान में मजबूत हो चुकी है. आतंकियों का गढ़ रहा पाकिस्तान अब रूस, चीन और अमेरिका के साथ अलग किस्म से संबंध को स्थिर करने में लगा है.

चावला लिखते हैं कि भारत का स्वाभाविक मित्र माने जाने वाले अमेरिका ने अफगानिस्तान को मझधार में छोड़ दिया. 2 अरब डॉलर से अधिक का भारतीय निवेश भी फंस गया. अब कूटनीतिक स्तर पर भारत इस कदर फंस गया है कि वह तालिबान सरकार को लेकर कोई निर्णय नहीं कर पा रहा है. भारतीय कूटनीति अपने बुरे दौर में है.

नौकरशाह से राजनीतिज्ञ बने सुब्रह्मण्यम जयशंकर पर तोहमत लगायी जा रही है. इससे पहले नटवर सिंह ऐसे उदाहरण हैं जो नौकरशाह से राजनीतिज्ञ बने और विदेश मंत्रालय को संभाला. हालांकि इस दौरान उन्होंने कई तरह के राजनीतिक अनुभव लिए. वहीं, एस जयशंकर बगैर मुख्य धारा की राजनीति में पहुंचे ही सीसीडी समेत चोटी के सभी समितियों में प्रधानमंत्री के साथ मौजूद होते हैं.

मनमोहन सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी तक के पसंद बने रहे हैं. सुषमा स्वराज के भी करीब रहे थे जयशंकर. अफगानिस्तान संकट ने पीएम मोदी को समझा दिया है कि ‘यस मिनिस्टर’ माइंडसेट हर वक्त उपयुक्त नहीं होता. एस जयशंकर वाले प्रयोग ने भारतीय कूटनीति की धार को कुंद किया है. अब पीएम ने पहल खुद अपने हाथ में ले ली है.

बच्चों का पढ़ाई से दूर होना चिंताजनक

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारत कोरोना संक्रमण के मामले में लड़खड़ाया जरूर लेकिन फिर स्थिति में सुधार आ गया. मौत के आंकड़े बुरी तरह से कम कर के बताए गये. टीकाकरण कार्यक्रम भी बुरी तरह से धीमा पड़ने के बाद अब संभलता दिख रहा है. बच्चों को जबरन स्कूल नहीं भेजने के कारण उनमें सीखने की प्रवृत्ति घट गयी है.

1 फरवरी 2021 को जारी हुई शिक्षा की सालाना स्थिति (ग्रामीण) पर रिपोर्ट कहती है कि बच्चों में सीखने की प्रवत्ति घटी है. यह तथ्य सामने आया है कि सिर्फ 35 फीसदी बच्चों को ही स्कूल से सीखने की सामग्री मिली. गरीब बच्चों के पास स्मार्ट फोन नहीं है जिसका नुकसान उठाना पड़ा है. सात महीने स्कूल बंद रखने से होने वाला नुकसान साल भर स्कूल खुलने से होने वाले फायदे के बराबर होता है.

चिदंबरम ने कर्नाटक का उदाहरण देते हुए बताया है कि यहां 24 ग्रामीण जिलों में बच्चों के पढ़ने और गणितीय ज्ञान का सर्वे कराया गया. यहां 2018-2020 के बीच बच्चों के सीखने की क्षमता में भारी गिरावट आयी है. पांचवीं कक्षा के मात्र 46 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा की किताब पढ़ पाए. 2020 में यह अनुपात गिरकर 33.6 फीसदी हो गया.

2018 में 34.5 फीसदी बच्चे ही घटाव और 20.5 फीसदी बच्चे भाग कर पाए थे, लेकिन 2020 में यही अनुपात गिरकर 32.1 और 12.1 फीसदी हो गया. देश के 15 राज्यों में ज्यां द्रेज के एक अन्य अध्ययय से पता चलता है कि 8 फीसदी बच्चे ही ऑनलाइन तक पहुंच बना पाए. 37 फीसदी बच्चों ने पढ़ाई ही छोड़ दी. चिदंबरम का सुधार है कि तत्काल सुधारात्मक शिक्षा की जरूरत है. शिक्षकों को अधिक पढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देने की जरूरत है. वे बच्चों के लिए हर पत्तल या थाल में रोटी, चावल और सब्जी सुनिश्चित करने की भी वकालत करते हैं.

वाट्सऐप यूनिवर्सिटी से निकलता तालिबानी ज्ञान

जी संपथ ने द हिन्दू में लिखा है कि तालिबान को लेकर समाज के हर तबके में अलग-अलग किस्म के ज्ञान हैं और इसमें वाट्सएप यूनिवर्सिटी का बहुत बड़ा योगदान है. बाथरूम का शॉवर खराब हो जाने के बाद प्लंबर को बुलाते हैं लेखक. प्लंबर जानकारी देता है कि श़ॉवर तालिबानी हो चुका है यानी अब उसे बदलना ही होगा. वह ठीक नहीं किया जा सकता.

लेखक पूछते हैं कि तालिबानी को अगर ठीक नहीं किया जा सकता तो हमारी सरकार उससे बातचीत क्यों कर रही है? वह गांधीजी के हवाले से जवाब देता है कि केवल गुड तालिबान से बात हो सकती है बैड तालिबान से नहीं. आश्चर्य से लेखक पूछते हैं कि गांधीजी को तालिबान के बारे में कैसे पता था तो वाट्सएप यूनिवर्सिटी की गहराई समझ में आ जाती है.

जी संपथ जब उबर से गाड़ी लेते हैं तो ड्राइवर भी उन्हें तालिबान के बारे में लेक्चर दे रहा होता है और जब वे अमेजॉन से सामान मंगाते हैं तो डिलिवरी ब्वॉय भी. कुछ समय पहले लेखक याद करते हैं कि सुशांति सिंह के बारे में भी लोगों को इतना ही पता हुआ करता था जितना का आज अफगानिस्तान के बारे में लोगों को पता है.

कई सवाल भी जन्म लेते हैं जैसे क्या ‘पश्तून’ से ‘पास्ता’ बना है क्या? लेखक बताते हैं कि नहीं, पास्ता इटालियन डिश है. इसी तरह हक्कानी नेटवर्क और लिक्ड इन नेटवर्क के बारे में भी समानता पर सवाल आते हैं.

यह सवाल भी आता है कि भीमा कोरेगांव इलेवन और तालिबान इलेवन में किसका समर्थन करना चाहिए. जवाब होता है कि तलोजा जेल में जाना है तो पहला विकल्प और अगर तलोकान में जीभ कटानी है तो दूसरा उत्तर. वाट्स एप यूनिवर्सिटी में यह भी सवाल पूछे जा रहे हैं कि लोकतंत्र को ढूंढ़ निकालने पर क्या मिलेगा? जवाब है कि 15 लाख रुपये के साथ अफगानी चिकन.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

मुश्किल दौर में कार बाजार

टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि अगर हुंडई को छोड़ दें तो वैश्विक बाजार की शीर्ष चार कार निर्माता कंपनियों की भारत के निजी कार बाजार में हिस्सेदारी 6 फीसदी रह गयी है. जनरल मोटर्स ने चार साल पहले ही भारतीय बाजार से दूरी बना ली थी और अब फोर्ड ने ऐसी घोषणा कर दी है.

यह भी उल्लेखनीय है कि फोक्सवैगन और स्कोडा की हिस्सेदारी भारतीय बाजार में बमुश्किल 3 फीसदी है. सबसे सफल रही टोयोटा की हिस्सेदारी भी बमुश्किल 3 फीसदी है. टोयोटा ने भी अधिक टैक्स की बात करते हुए निवेश स्थगित रखने की घोषणा की थी जिससे वह बाद में पीछे हट गयी. होंडा ने भी सिविक और एकॉर्ड का उत्पादन रोक रखा है.

टीएन नाइनन लिखते हैं कि भारत का कार बाजार अब पहले जैसा नहीं रहा. संख्या आधारित वैश्विक रैंकिंग में भारत पांचवें स्थान पर फिसल चुका है. भारतीय बाजार कम कीमत और कम परिचालन लागत वाली कारों का बाजार है जबकि दुनिया के ज्यादातर देशों में बड़ी कारों का बाजार है.

केवल मारुति और हुंडई के पास ही सस्ती और सफल कारें हैं. हुंडई समूह की कंपनी किया मोटर्स मिनी एसयूवी मॉडल के साथ भारतीय बाजार में उतरी और अब वह टाटा और महिंद्रा के साथ बाजार में तीसरी बड़ी कंपनी बनने के लिए संघर्ष कर रही है. भारतीय कार बाजार में कोई भी मारुति के स्वामित्व को चुनौती नहीं दे सका. होंडा सिटी के खिलाफ मारुति सियाज की नाकामी महत्वपूर्ण उदाहरण है. यह कारोबार आसान नहीं है और हर बाजार और हर क्षेत्र में सफलता अर्जित करना जरूरी है.

निर्यात में सुधार से रोजगार बढ़ने की उम्मीद

एके भट्टाचार्य ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि देश में वस्तुओं के निर्यात में 67 प्रतिशत वृद्धि उत्साह बढ़ाने वाले हैं. 164 अरब डॉलर का आंकड़ा एक साल पहले 98 अरब डॉलर के मुकाबले शानदार है. तर्क दिया जा रहा है कि पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्य में बढ़ोतरी के कारण ऐसा हो रहा है. बात सही है.

निर्यात में पेट्रोलियम उत्पादों की हिस्सेदारी 14 प्रतिशत है. लेखक याद दिलाते हैं कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में सालाना निर्यात बीते एक दशक में उतार-चढ़ाव वाला रहा है. जीडीपी में निर्यात की हिस्सेदारी बीते एक दशक में 17 फीसदी से घटकर 11 फीसदी रह गयी है.

एके भट्टाचार्य बताते हैं कि इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि भारत से चीन को होने वाला निर्यात बढ़ रहा है. 2020-21 में भारत का निर्यात 7 प्रतिशत घट गया लेकिन चीन को निर्यात में 26 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. दूसरी अहम बात यह है कि वाहन उद्योग से होने वाला निर्यात अब भी सुस्त बना हुआ है.

भारत में निवेश से पहले निवेशक कार निर्यात पर एक नजर जरूर डालते हैं. तीसरी अहम बात यह है कि रोजगार देने वाले क्षेत्रों ने शानदार वापसी की है. मोतियों एवं जवाहरात का निर्यात खासा सुधरा है. देश में कुल निर्यात होने वाली वस्तुओँ में इसकी हिस्सेदारी बढ़कर 7 प्रतिशत तक पहुंच गयी है. तैयार परिधानों, रेशे, इनसे बने उत्पाद एवं संबद्ध वस्तुओँ का निर्यात भी 2020-21 में शानदार रहा है. निर्यात से लाभान्वित होने वाले क्षेत्र रोजगार बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं.

पढ़ें ये भी: मथुरा मीट बैन:UP में कारोबारी लगातार किए जा रहे टारगेट, गैर मुस्लिम भी प्रभावित

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT