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संडे व्यू: ‘लिंचिंग’ समझें भागवत,‘देशद्रोह’ समझे देश

असंतोष या विरोध नहीं हो सकता देशद्रोह, पोलैंड में नोबेल पुरस्कार बना चुनावी मुद्दा

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सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू जिसमें आपको मिलेंगे अहम अखबारों के आर्टिकल्स. 
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सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू जिसमें आपको मिलेंगे अहम अखबारों के आर्टिकल्स. 
फोटो: iStock

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लिंचिंग का मतलब समझ लें भागवत

तवलीन सिंह जनसत्ता में लिखती हैं कि वह बचपन से आरएसएस के बारे में यह जानने को उत्सुक रही हैं कि आखिर इसमें ऐसी कौन सी बात है कि लोग इससे जुड़ जाने के बाद जीवन भर जुड़े रहते हैं. इसी कोशिश में रज्जू भैया से करीबी और साथ चाय पीने व देशभक्ति की बातें करने का अनुभव वह साझा करती हैं.

वह बताती हैं कि उन बातों में राजनीति बहुत कम हुआ करती थी. मगर, अब खुद सरसंघ चालक देश के महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात करने लगे हैं. मोहन भागवत ने पिछले साल दशहरा के अवसर पर बताया था कि गुरु गोलवलकर के उस सुझाव को संघ नहीं मानता कि मुस्लिम समस्या को खत्म करने के लिए जो हिटलर ने यहूदियों के साथ किया था, हमें वही करना चाहिए.

अब भागवत ऐसा बयान दे रहे हैं मानो मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक का दर्जा स्वीकार करने की आदत डालनी होगी. ऐसी आशंका लिंचिंग को लेकर भागवत के बयान से पैदा हो रही है जो कहते हैं कि लिंचिंग्स शब्द भारत को बदनाम करने के लिए हो रही है और यह पश्चिमी साजिश है.

तबरेज के साथ घटी घटना की याद दिलाते हुए लेखिका पूछती हैं कि क्या किसी हिन्दू के साथ देश में कहीं भी ऐसी घटना घटी है? निर्मम हत्या और लिंचिंग में फर्क समझने की हिदायत देते हुए लेखिका ने बताया है कि सितंबर 2015 में दादरी के बिसाहड़ा गांव में मोहम्मद अखलाक की लिंचिंग के बाद से भीड़ बेखौफ हो गयी है. इसलिए जरूरी है कि मोहन भागवतजी लिंचिंग का असली मतलब समझ जाएं.

पोलैंड में नोबेल पुरस्कार बना चुनावी मुद्दा

अमर उजाला ने मार्क सैंटोरा और जोएना बर्न्ट के उस लेख को प्रकाशित किया है जो द न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी है. इसमें लेखकद्वय ने लिखा है कि साहित्य के नोबेल पुरस्कार पर पोलैंड बंट गया है और बहस कर रहा है. बहस के केंद्र में हैं ओल्गा तोकार्चुक, जिन्होंने अपनी रचनाओं में पोलैंड के इतिहास को अलग तरीके से देखने-दिखाने की कोशिश की है.

यह बहस आज 13 अक्टूबर को हो रहे चुनाव के मद्देनजर अधिक है. वास्तव में इन दिनों प्रवासियों के खिलाफ पोलैंड में सियासत हो रही है जबकि ओल्गा ने बताया है कि पोलैंड का बहुलतावादी और नस्लीय समावेशी इतिहास प्रेरणास्पद रहा है.

एक और मुद्दा है समलैंगिक. ओल्गा ने समलैंगिकों और वैश्वीकरण के समर्थकों पर हो रहे हमलों की निन्दा की है. पोलैंड की सियासत में सत्ताधारी लॉ एंड जस्टिस पार्टी समलैंगिकता को ‘रेनबो प्लेग’ बता रही है.

ओल्गा पोलैंड की छठी साहित्यकार हैं जिन्हें साहित्य का नोबेल दिया गया है. उनकी चर्चित किताबों में प्रीमिवल एंड अदर टाइम्स, द बुक ऑफ जैकब और ड्राइव योर प्लो ओवर द बोन्स ऑफ द डैड शामिल हैं. वह 2018 का बुकर पुरस्कार भी जीत चुकी हैं.

दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों ने ओल्गा को देशद्रोही करार दिया है. पूरे चुनाव प्रचार के दौरान ओल्गा का साहित्य चर्चा में रहा है जिसमें पोलैंड के इतिहास में हुए भयावह कृत्यों का जिक्र किया गया है. राष्ट्रवादी इसे राष्ट्रवाद में दाग खोजना बताते हैं. वहीं, ओल्गा के समर्थक वामपंथी पार्टियों का कहना है कि ओल्गा को नोबल पुरस्कार मिलना यह बताता है कि पोलिश साहित्य और संस्कृति को दुनिया में सराहा जा रहा है.

असंतोष या विरोध नहीं हो सकता देशद्रोह

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि असंतोष या विरोध देशद्रोह नहीं, गांधीवाद की खासियत है. देश गांधी को याद कर रहा है लेकिन उनको मानने के बजाए लोग उनकी अवमानना कर रहे हैं. गांधी की 150वीं जयंती पर कोई उनके बारे चिन्ता करता नहीं दिख रहा है. जिस तरीके से देशद्रोह की धारा 124ए का इस्तेमाल हो रहा है यह उसका जीवंत उदाहरण है.

लेखक ने यंग इंडिया में गांधी के प्रकाशित विचारों के हवाले से याद दिलाया है कि वे इस कानून के कितने बड़े विरोधी थे. 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने भी केदारनाथ सिंह जजमेंट में यह साफ कर दिया था कि हिंसा को उकसाने वाले भाषण या कृत्य ही देशद्रोह हो सकता है. यहां तक कि ‘खालिस्तान जिन्दाबाद’ का नारा लगाना भी देशद्रोह नहीं है यह बात 1995 में बलवंत सिंह केस में सर्वोच्च न्यायालय साफ कर चुकी है.

सितंबर 2016 में भी सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोह पर इसी राय को दोहरा चुका है. इसके बावजूद प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखने पर मुजफ्फरपुर में देशद्रोह का मुकदमा और एफआईआर को मंजूरी आश्चर्यजनक है. लेखक लिखते हैं कि अगर गांधी जिन्दा होते तो वे इस कृत्य की सबसे पहले निन्दा करते. मगर, आज की सरकार को इसकी फिक्र नहीं है.

करन थापर ने 1962 में राज्यसभा में सीएन अन्ना दुरई के आत्मनिर्णय की वकालत करते हुए दिए गये उनके भाषण का भी जिक्र किया है. तब नेहरू ने उस भाषण के विरोध में तर्क रखे थे, मगर कभी उसकी निन्दा या असंतोष नहीं जताया था.

लेखक ने पूछा है कि आज नरेंद्र मोदी और अमित शाह से क्या ऐसी अपेक्षा की जा सकती है? आलोचना के अधिकार और असंतोष की वकालत करते थे गांधी. इसी बात से यह तय होता है कि कोई देश लोकतांत्रिक है या नहीं.

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तर्क से परे है परम्परा!

शोभा डे ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखे आलेख में राफेल विमान की टेस्ट राइड करने गये रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की शस्त्र पूजा और विमान पर नींबू, मिर्ची, नारियल चढ़ाए जाने को परम्परा करार दिया है. वह मानती हैं कि परम्परा का तर्क से कोई लेना-देना नहीं होता.

वहीं, वह ये भी कहती हैं कि ऐसी परम्परा से न तो राफेल सुरक्षित हो जाएगा, न उसमें चढ़ने वाले लोग सुरक्षित होंगे. लेखिका ने इस मौके को तस्वीर खिंचाने का अवसर करार देते हुए अपना अचरज सामने रखा है कि इस मौके पर खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्यों नहीं पहुंचे.

लेखिका ने किसी भी सामान के डिलीवर होते वक्त उसकी पूजा करने के उदाहरणों के जरिए भी इसे परम्परा से जोड़ा है. ऐसे ही कई व्यक्तिगत अनुभवों को भी उन्होंने परम्परा बताया है और बेबाकी से उन परम्पराओं से जुड़े रहने को स्वीकार किया है.

वह लिखती हैं कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की पत्नी मुशरा बीबी भी आध्यात्मिक हैं और पाकिस्तानी मीडिया के मुताबिक इमरान उनके बताए रास्ते पर इमरान चलते हैं.

लेखक ने चुटकी ली है कि हो सकता है कि पाकिस्तान चीनी कुंडली का इस्तेमाल कर रहे हों जो फिलहाल इमरान के लिए सटीक साबित नहीं हो रही है. लेखिका ने व्यंग्यात्मक तरीके से इमरान-बुशरा के लिए शुभकामना भी व्यक्ति किया है.

अनौपचारिक नहीं है ‘चेन्नई कनेक्ट’

न्यू इंडियन एक्सप्रेस में पिनाक रंजन चक्रवर्ती ने लिखा है कि चेन्नई कनेक्ट विशुद्ध रूप से अनौपचारिक नहीं था. वे लिखते हैं कि 2017 में डोकलाम की घटना के बाद 2018 में मोदी-जिनपिंग की मुलाकात व्यावहारिक थी. इसने रिश्तों में तल्खी को कम किया था. एक बार फिर चेन्नई में दोनों नेताओं ने एक-दूसरे से मिलते रहने और मतभेदों को दूर करने पर रजामंद होकर उस कोशिश को आगे बढ़ाया है.

लेखक का मानना है कि चेन्नई कनेक्ट से पहले जिस तरीके से चीन ने जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र में और बाहर भी पाकिस्तान के सुर से सुर मिलाया था, उससे दोनों देशों के बीच रिश्ते तल्ख हो गये थे.

भारत सी-पेक से बाहर रहकर चीन के रुख से असहमति जताता रहा है. चीन के कतिपय बयानों की भी भारत के सख्त लहजे में आलोचना की है. इस पृष्ठभूमि में चेन्नई कनेक्ट के बाद दोनों देश एक-दूसरे के करीब आते दिखे हैं.

चीनी मीडिया के हवाले से लेखक ने बताया है कि दोनों देशों के बीच 120 एमओयू पर हस्ताक्षर हुए हैं और 60 से ज्यादा कंपनियां भारत में चीनी निवेश की सम्भावनाएं ढूंढ़ रहे हैं. चीन और भारत के बीच सहयोग की सम्भावनाएं नये सिरे से जिन्दा हुई है. इस मायने में यह आयोजन उम्मीद जगाने वाला है.

‘खोल दो’ पर बता दो ‘अंधेरी सुरंग’ के मायने

संकर्षण ठाकुर ने द टेलीग्राफ में मन्टो के बहाने ‘खोल दो’ की आवाज़ बुलन्द की है. बगैर नाम लिए इशारा कश्मीर की ओर है. हालांकि जीवन के हर क्षेत्र में आज़ादी की ज़रूरत भी लेखक ने महसूस करायी है. कुछ अन्य तरीकों से भी लेखक ने आज़ादी को महसूस कराने की कोशिश की है.

तीतर की टीट-टीट वाली आवाज़ के जिक्र से ट्वीट की याद दिलाना और ‘बट’ के उच्चारण का जिक्र कर बाकिस्तान का जिक्र और फिर पूछना- ‘समझे?’ कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं. ‘समझे’ के बहाने से राष्ट्रवाद और राष्ट्रविरोध भी समझाने की कोशिश लेखक ने की है. समझे?- यानी ‘चलते बनो’ का भी भाव सामने रखा है.

‘खोल दो’ के रूप में मालिक और गुलाम, सशक्त और निर्भर का भाव भी लेखक ने प्रकट किया है. यहां भी इशारा कश्मीर में प्रतिबंध लगाने और उसे क्रमश: हटाने के राजनीतिक निर्णयों की ओर है. लेखक ने अपने तरीके से ‘शट डाउन’ का भी मतलब समझाया है. इन सबके बीच लेखक एक सवाल छोड़ गये हैं कि अंधेरी सुरंग क्या है? वह बस उसका नाम जानना चाहते हैं!

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Published: 13 Oct 2019,09:47 AM IST

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