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संडे व्यू : तरक्की लोकतंत्र की कीमत पर? मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं राज्यपाल?

पढें आज टीएन नाइनन, पी चिदंबरम, मुकुल केसवान, शोभा डे, तवलीन सिंह सरीखे चुनिंदा हस्तियों के विचारों का सार.

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भारत
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू में पढ़ें बढ़े अखबारों में छपे के आर्टिकल</p></div>
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संडे व्यू में पढ़ें बढ़े अखबारों में छपे के आर्टिकल

(फोटो: Altered by Quint)

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लोकतंत्र की कीमत पर आगे बढेगा देश?

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन ने लिखा है कि भारत वास्तव में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अच्छी स्थिति में है और पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था (Indian Economy) बनने के बाद अगले एक दशक में वह जर्मनी और जापान को पीछे छोड़ सकता है. फिर भी सवाल यह है कि क्या भारत में संस्थागत ढांचे समेत अन्य गुण हैं जैसा कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में होने चाहिए?

व्यक्तिगत डेटा सरक्षण विधेयक के ताजा मसौदे का जिक्र करते हुए टीएन नाइनन लिखते हैं कि राज्य को अपनी मर्जी से नियम बनाने के असीमित अधिकार दिए जा रहे हैं. क्या इससे भारत के लिए आकर्षण बढ़ेगा? कारोबारी केंद्र के रूप में देश की प्रतिष्ठा पर इसका क्या असर पड़ेगा? लेखक ने कारोबारी कुलीनों की बढ़ती मौजूदगी और इससे स्पर्धी माहौल खत्म होने की ओर भी ध्यान दिलाया है. सरकार की मनमानी का जिक्र करते हुए अदालत में मामला चलाए बगैर जेल में बंद रखने का सवाल उठाते हुए यह प्रश्न उठाया है कि क्या इसका कोई असर नहीं पड़ेगा?

नायनन आगे लिखते हैं कि यह सही है कि कई ऐसे देश हैं जहां लोकतांत्रिक मूल्यों की कीमत पर सरकार की मनमानी चल रही है. ऐसा भारत में भी हो सकता है. मगर, यह पूछा जना चाहिए कि क्यों हजारों अमीर भारतीय सिंगापुर और दुबई जैसी जगहों की नागरिकता ले रहे हैं. उन्हें भारत में क्या केवल साफ हवा, अच्छे स्कूल  और अस्पतालों की कमी दिख रही है? वास्तव में भारत के स्पर्धी वे देश हैं जो खुद को निवेश के विकल्प के रूप में पेश करते हैं. भले ही उनके पास बड़ा घरेलू बाजार न हो.

मुख्यमंत्री बनने को लालायित राज्यपाल

पी चिदंबरम ने जनसत्ता में इस चिंता को सामने रखा है कि वर्तमान संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में राज्यपाल (Governor) की भूमिका चुनी गयी प्रदेश सरकार के मुखिया को तंग करने की हो गयी है. राज्यपाल खुद मुख्यमंत्री बनने की कोशिशों में लगे दिखते हैं. भारत में ऐसे कई लोग हैं जो चीन की तरह एक ही सरकार की चाहत रखते हैं.

अनुच्छेद 200 में प्रावधान है कि किसी विधेयक पर राज्यपाल अपनी सहमति दे सकता है या फिर उसे पुनर्विचार के लिए विधानमंडल को लौटा सकता है. अगर दोबारा विधानसभा उसी विधेयक को या फिर संशोधनों के साथ भेजता है तो उसे स्वीकार करना राज्यपाल की बाध्यता होती है. मगर, अब राज्यपाल ऐसी स्थिति में ‘विचार करने’ के नाम पर ऐसे विधेयकों को लेकर ‘बैठने’ लगे हैं.

चिदंबरम लिखते हैं कि राज्यपाल इन दिनों सरकारों का विरोध करते दिख रहे हैं. एक राज्य सरकार नयी शिक्षा नीति और त्रिभाषा फॉर्मूले का विरोध कर रही है तो राज्यपाल उस राज्यपाल का विरोध करते दिख रहे हैं. एक राज्य में राज्यपाल छत्रपति शिवाजी को ‘पुराने दिनों के’ प्रतीक बता रहे हैं.

वहीं एक ऐसे हैं जो मुख्यमंत्री के बारे में अभद्र टिप्पणियां कर रहे हैं. राज्यपालों को मुख्यमंत्री के विरोधी दल के नेताओं का ‘स्वागत’ करने के लिए पुरस्कृत भी किया जा रहा है और उन्हें ‘अभिभावक’ भी बताया जा रहा है. पूर्व राज्यपाल और पूर्व गवर्नर सी रंगराजन के हवाले से लेखक लिखते हैं कि जब राजनीतिक नियुक्ति होती है तो राज्यपाल के लिए विरोधी दल के मुख्यमंत्री के साथ तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है. एक राज्यपाल का मुख्यमंत्री बनने की कोशिश खतरनाक है.

कतर में फुटबॉल और डोलती नैतिकता

मुकुल केसवान ने टेलीग्राफ में सवाल उठाया है कि कतर में फुटबॉल (FIFA World Cup) के आयोजन को लेकर फुटबॉल प्रेमियों में इतना गुस्सा क्यों? जवाब है कि कतर में समलैंगिकता अपराध है, अप्रवासी श्रमिकों के साथ अमानवीय व्यवहार है, शरिया कानून के तहत महिलाओं की बदतर स्थिति है. और, सबसे बड़ी बात यह है कि 21वीं सदी में विशुद्ध राजतंत्र है जो एक परिवार के हाथों संचालित है. कतर के स्टेडियम में स्वतंत्रता का अभाव भी फुटबॉल प्रेमियों को खटक रहा था. नतीजा यह है कि यूरोप का फुटबॉल सीजन दोबारा तय हुआ है. 

कतर और माफी मांगने वाले फीफा अध्यक्ष जियोवानी इन्फैंटिनो इस्लामोफोबिया पर बरसे हैं. यह भी तर्क दिए गये हैं कि रूस और चीन जैसे देशों में भी वर्ल्ड कप हुए हैं जहां मानवाधिकारों का उल्लंघन लगातार होता रहा है.

यह समझना जरूरी है कि फुटबॉल के आयोजन को लेकर गुस्सा क्यों भड़का है. स्त्रीवादियों, समलैंगिकता का समर्थन या समानता का अधिकार के लिए आवाज का उठाया जाना एक वजह है. मगर, मूल सवाल यह है कि क्या फुटबॉल के आयोजन का अधिकार केवल धनबल से तय होगा? दुनिया के सारे सशक्त देश क्यों कतर के सामने बेबस हो गये? सही मायने में कतर एक देश नहीं एक परिवार द्वारा संचालित राजतंत्र है. यहां जनता नहीं भीड़ हुआ करती है. किसी देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण संप्रभुत्ता तक कतर में नहीं दिखाई देती.

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खौफ का वह मंजर

तवलीन सिंह ने जनसत्ता में में लिखा है कि 26/11 के नाम से याद किए जाते रहे मुंबई हमलों के पीछे सिर्फ 9 लोग नहीं थे, उसके पीछे पाकिस्तानी फौज थी. यह ऐसा बर्बर हमला था जिसमें रेलवे स्टेशन पर निहत्थे लोगों को मारा गया, ताज होटल में निहत्थे निर्दोष लोगों को गोलियों से भून दिया गया. इस लाइव हमले को दुनिया ने देखा और सबूत के तौर पर भारत ने दुनिया के सामने पेश किया. इसमें हमलावरों को पाकिस्तान से सीधे निर्देश मिल रहे थे.

मुंबई हमले के दस साल बाद भी यह स्थिति नहीं बन पायी है कि पाकिस्तान से बातचीत की जा सके. बातचीत का कोई मतलब भी नहीं. जब पाकिस्तान के हुक्मरान ही आतंकी हमले में शामिल हैं और वे  इस बात को उसी तरह नकार रहे हैं जैसे ओसामा बिन लादेन की अपने देश में सेना की मर्जी से मौजूदगी को नकारते रहे हैं.

यही कारण है कि पाकिस्तान में प्रधानमंत्री इमरान खान बने या कोई और, जनरल बाजवा रहे या कोई और- इससे भारत की सेहत पर अब कोई फर्क नहीं पड़ता. एक दुश्मन देश की तरह पाकिस्तान हमारे मन-मस्तिष्क पर बैठ चुका है. हमले में बच गये लोगों ने जो आंखों देखी बयां की है उसका खौफ दस साल बाद भी मिटा नहीं है.

ईयर एंड पर व्यस्त है दुनिया अपने-अपने तरीके से

शोभा डे ने डेक्कन क्रोनिकल में लिखा है कि हर साल की तरह अमेरिका इस साल भी व्यस्त है. तुर्की जैसे देश की हेकड़ी तोड़ने की कोशिश करता दिख रहा है. अमेरिकी बाइडन को बख्श दें, कोई माफीनामा तुर्की की ओर से आ जाए, कोई फोटो ऑप का ऑप्शन बन जाए ताकि अमेरिकी नये साल का जश्न मना सकें. यूरोप में माहौल थोड़ा अलग है. अपनी बेटी के हवाले से लेखिका बताती हैं कि इटली के होटलों में एअर कंडीशन बंद किए जा चुके हैं. बहाना यक्रेन युद्ध और ईंधन की बढ़ती कीमत है. केवल अमेरिकी पर्यटक ही रोम, फ्लोरेंस, वेनिस में यहां-वहां दिख जाते हैं.

भारत में राहुल बाबा की दाढ़ी के पीछे वजह जानने में लोग लगे हैं. इतना हैंडसम चेहरा क्यों छिपा रहे हैं राहुल? क्रिकेटर, नेता, स्मगलर, हत्यारे, फिल्मी दुनिया के लोग सभी टिप्पणी कर रहे हैं. महामारी के दौरान नमो की बढ़ी हुई दाढ़ी क्या किसी मन्नत के लिए थी? राहुल गांधी की दाढ़ी के जरिए सद्दाम हुसैन की याद दिला रहे हैं हेमंत बिस्वा शर्मा. वास्तव में वे सद्दाम हुसैन से राहुल की तुलना कर रहे हैं. राहुल गांधी के हाथों में हाथ डालकर यात्रा में शामिल महिलाओं को लेकर भी खूब चर्चा हो रही है. राहुल गुजरात पहुंचकर गुजराती में पूछ रहे हैं- केम छो?

दिल्ली का मौसम कुछ अलग है. 2012 में निर्भया गैंगरेप की घटना निठारी कांड के छह साल बाद हुई थी जिसमें 11 बच्चों और 5 महिलाओं के साथ दुराचार और कत्ल किया गया था. अब चर्चा श्रद्धा की हो रही है जिसे उसके ब्वॉयफ्रेंड आफताब अमीन पूनावाला ने हत्या कर 35 टुकड़े कर दिए. देश के नये चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ बूस्टर शॉट की तरह हैं जो तेजी से महामारी के दौरान लंबित मामलों को निपटा रहे हैं.

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