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संडे व्यू: मजबूत है कॉरपोरेट-फिर भी देश बेहाल; स्मृतियों का संघर्ष हैं रजवाड़े

संडे व्यू में पढ़ें टीएन नाइनन, पी चिदंबरम,प्रताप भानु मेहता, रामचंद्र गुहा, करन थापर के आलेखों का सार.

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संडे व्यू में पढ़ें अखबारों के बेस्ट आर्टिकल्स
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संडे व्यू में पढ़ें अखबारों के बेस्ट आर्टिकल्स
(फोटो: Altered by Quint)

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बेहतर स्थिति में कॉरपोरेट, पर खराब हैं देश के हालात

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन (TN Ninan( ने लिखा है कि देश का कॉरपोरेट जगत बेहतर स्थिति में पहुंच चुका है. शेयर बाजार की चुनिंदा 2,785 कंपनियों का मुनाफा 2021-22 में कुल बिक्री का 9.7 प्रतिशत तक पहुंच गया. 2017-18 में यह 7.2 प्रतिशत था जो कोविड काल में 3.4 फीसदी तक गिर चुका था. मुनाफे में बढोतरी की चार वजहें हैं.

पहली वजह के तौर पर टीएन नाइनन बताते हैं कि अधिकांश कंपनियों ने कर्ज चुका दिया है और उनका ब्याज भुगतान कम हो गया है. दूसरी वजह है वित्तीय क्षेत्र में आया बदलाव. पहले कर्ज में फंसे होने और खराब बैलेंसशीट की वजह से यह क्षेत्र परेशान रहा करता था. तीसरी वजह है कि वित्तीय क्षेत्र का मुनाफा चार गुणा से ज्यादा बढ़ा है. सूचीबद्ध कंपनियों में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी एक बार फिर 2012-13 के 27 फीसदी के स्तर के करीब यानी 26 फीसदी हो गयी है. चौथी वजह है कि कोविड के दौर में लागत में कमी यायी है.

नाइनन लिखते हैं कि भविष्य में मुद्रास्फीति मजबूत रहने वाले हैं तो तेल की कीमतें भी झटका देंगी. विदेशों में मंदी निर्यातकों के लिए बुरी खबर है. ऐसे में निजी निवेश में सुधार अभी दूर की कौड़ी है. देश में लोग निवेश आने की प्रतीक्षा लंबे समय से कर रहे हैं. देश के हालात से अलग करके इसे नहीं देखा जा सकता. लाखों लोगों को रोजगार गंवाने पड़े हैं. लोगों को बेहतर वेतन का भुगतान किया जाना चाहिए ताकि वे उत्पादों की ज्यादा से ज्यादा खरीद कर सकें. कंपनियां बहुत अधिक मुनाफा अपने पास रख रही हैं-यह भी चिंता का विषय है.

अर्थव्यवस्था अब भी बेहाल

पी चिदंबरम (P Chidambaram) ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत की अर्थव्यवस्था अब भी बेहाली से निकली नहीं है. दो साल पहले अर्थव्यवस्था का जो आकार था लगभग वही आज भी है. आम नागरिक व्यक्तिगत रूप से और गरीब हुए हैं. प्रति व्यक्ति आय 1,08,247 रुपये से गिरकर 1,07,760 रुपये के स्तर पर आ चुकी है. पिछली चार तिमाहियों में जीडीपी का ग्राफ 20.1, 8.4, 5.4 और 4.1 फीसदी के रूप में लगातार गिरता चला जा रहा है.

चिदंबरम लिखते हैं दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं भी दबाव में हैं. अमेरिका में महंगाई और ब्याज दरें बढ़ रही हैं, मांग घट रही हैं. बार-बार के लॉकडाउन से चीन की जीडीपी का आकार कम होने वाला है. यूरोपीय देशों के लोगों की क्रयशक्ति घट गयी है. जीडीपी की वैश्विक वृद्धि दर 4.4 फीसदी से घटकर 3.6 फीसदी अनुमानित है. वैश्विक व्यापार वृद्धि दर भी 4.7 फीसदी से घटाकर 3 फीसदी कर दी गयी है.

भारत में आरबीआई की मासिक रिपोर्ट में जिन पांच गंभीर कारणों की पहचान की गयी है जिनसे अर्थव्यवस्था में जान फूंकी जा सकती है उनमें शामिल हैं- निजी निवेश, सरकारी पूंजीगत खर्च में वृद्धि, उन्नत बुनियादी ढांचा, कम और स्थायी मुद्रास्फीति और वृहद आर्थिक स्थायित्व. इनमें सरकार का नियंत्रण सिर्फ पूंजीगत खर्च पर है.

विदेशी कंपनियां लगातार देश छोड़कर जा रही हैं. महंगाई और आर्थिक स्थिरता के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता. केंद्र और राज्य के बीच विश्वास कमजोर हुआ है. चिदंबरम मानते हैं कि जब तक किसी देश की श्रम बल भागीदारी दर 40 फीसदी न हो, वह आर्थिक शक्ति नहीं बन सकता. भारत में कामकाजी उम्र वाली आबादी का बड़ा हिस्सा खाली बैठा है या काम तलाश रहा है. शिक्षित होने के बावजूद महिलाओंम श्रम बल भागीदारी बेहद कम 9.4 है. मौजूदा बेरोजगारी दर 7.1 फीसदी भी डरावनी है.

अच्छे-बुरे की बहस नहीं, स्मृतियों का संघर्ष हैं राजे-रजवाड़े

इंडियन एक्सप्रेस में प्रताप भानु मेहता ने लिखा है कि औरंगजेब, शिवाजी, राणा प्रताप या पृथ्वीराज चौहान हमारे बुरे या अच्छे इतिहास नहीं हैं बल्कि यह हमारी स्मृतियों का संघर्ष हैं. यह मार्क्सवादी या नेहरूवादी इतिहास का पुनर्लेखन नहीं है बल्कि अतीत से रिश्तेदारी बनाने और दुश्मन खोजने के लिए तथ्यों का संग्रहण है. इतिहास महज नैतिकता की कहानी नहीं हुआ करती बल्कि यह कठिन परिश्रम से हासिल किए गये ज्ञान का रूप होता है जिसमें हमेशा चयनात्मकता से सजग रहने की जरूरत होती है.

प्रताप भानु लिखते हैं कि विश्व का इतिहास हमें नैतिकता के सांचे में ढलने को नहीं कहता. अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आप अकबर और महाराणा प्रताप दोनों के प्रशंसक एक साथ हो जा सकते हैं. लेखक पूछते हैं कि मंदिर चाहे महमूद गजनवी ने नष्ट किए हों या औरंगजेब ने- क्या यह तय किया जा सकता है कि यह आर्थिक फायदे के लिए था या राजनीतिक फायदे के लिए? ठीक ऐसे ही क्या हम तय कर सकते है कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस राजनीतिक मकसद से हुआ या धार्मिक मकसद से?

प्रताप भानु की सलाह है कि हम सवालों को हल करने का मकसद लेकर ना चलें. हम संदर्भों को याद रखें जिसमें बगैर किसी हिंसा, सेंसरशिप या सामुदायिक गौरव के इस पर चर्चा हो सके. कहा जा रहा है कि नेहरूवादी और मार्क्सवादी इतिहास दरकिनार किए जा रहे हैं और नये सिरे से युद्धों का इतिहास लिखा जा रहा है. यह अधिक गंभीर इतिहास है. बौद्धिक इतिहास, विज्ञान का इतिहास या फिर राजनीतिक इतिहास सभी दरकिनार किए गये.

लेकिन ऐसा ‘हिन्दू’ इतिहास या हिन्दू नायकों को दरकिनार करने केषडयंत्र के कारण नहीं हुआ. अकादमी से बाहर परंपरागत अध्ययन के केंद्रों ने इसे क्यों नहीं व्यापक बनाया जबकि ये केंद्र विभिन्न भाषाओं और क्षेत्रों में थे? स्मृति को नैतिकता की कहानी के रूप में धारण करना सबसे आसान है. इतिहास भले ही वर्तमान से लिखा गया हो, अतीत के बारे में होता है. स्मृति शाश्वत सत्य है जिसे धारण करना और आगे बढ़ाना जरूरी होता है.

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संघ का फासीवाद-नाजीवाद से निर्विवाद संबंध...

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि उत्तर प्रदेश के शारदा यूनिवर्सिटी में एक शिक्षक ने अपने छात्रों के लिए एक सवाल तैयार किया था कि फासीवाद/नाज़ीवाद का दक्षिणपंथी हिन्दुत्व से क्या संबंध है. तर्क के साथ बताएं. शिक्षक इस आधार पर निलंबित कर दिए गये कि उन्होंने राष्ट्रीय अखण्डता के विरुद्ध सवाल तैयार किया है और इससे समाज में अशांति फैल सकती है. गुहा ने दावा किया है कि वे अपने इस आलेख में उस सवाल का जवाब देने जा रहा हैं जिसका उत्तर निलंबित शिक्षक छात्रों से जानना चाहते थे.

लेखक ने इटालियन इतिहासकार मार्जिया कैसोलारी के हवाले से उत्तर सामने रखने की कोशिश की है जिन्होंने सन् 2000 में इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में एक लेख लिखा था. उस लेख के प्रकाशन के 20 साल बाद उन्होंने एक किताब प्रकाशित की जिसका शीर्षक है “इन द शैडो ऑफ द स्वास्तिक : द रिलेशनशिप बिटविन इंडियन रैडिकल नैशनलिज्म, इटालियन फासिज्म एंड नाजिज्म.“

कैसोलारी ने अपनी रचनाओं में बताया है कि 1920-30 के दशक में महाराष्ट्र में इटली और जर्मनी की घटनाओं को बड़े चाव से छापा और बढ़ा जा रहा था. के.बी हेडगेवार, एम.एस गोलवलकर और वीडी सावरकर एवं बीएस मुंजे ने खास तौर से फासिज्म और नाजिज्म को समझा और अपनाया. ये चारों नेता मराठी बोलने वाले थे. कैसोलारी का अनुसंधान बताता है कि डॉ बीएस मुंजे दक्षिणपंथी हिन्दुओं के बड़े विचारक थे जिन्होंने 1931 में फासिस्ट नेताओं से मुलाकात की थी और बेनिटो मुसोलनी के वे बड़े प्रशंसक थे.

उनसे भी उनकी मुलाकात हुई. मुंजे ही केबी हेडगेवार के मेंटर थे जो उनके ही घर में रहा करते थे. हेडगेवार को दवाओँ का अध्ययन करने के लिए कोलकाता भेजने का काम भी मुंजे ने ही किया था. कैसोलारी ने ऐसे कई उद्धरण इन चारों नेताओँ के पेश किए हैं जिनमें फासिज्म और नाजिज्म की तारीफ की गयी है. कैसलरी ने यह भी बताया है कि आरएसएस में नियुक्ति प्रक्रिया इटली के बलिल्ला युवा संगठन से मिलता जुलता है. फासिस्टों के संगठन में भी रिक्तियों का समान तरीका है. एक पुलिस अफसर की 1933 में की गयी आरएसएस के बारे में टिप्पणी का भी इतिहासकार जिक्र करते हैं जिसमें आरएसएस को भारत के लिए भविष्य का संगठन बताया था जो इटली के फासिस्ट और जर्मनी के नाजी जैसा होगा.

आर्यन खान केस : सिस्टम में माफी मांगने का प्रावधान हो

करन थापर हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने आर्यन खान के साथ जो कुछ किया वह चौंकाने वाला नहीं है और यह लाखों लोगों के साथ अमूमन होता रहता है. फिर भी यह मामला थोड़ा सा अलग है. हमारे सिस्टम में गलती होने पर माफी मांगने और जिनके साथ गलत हुआ है उन्हें मुआवज़ा देने का प्रावधान नहीं है. गलती होने पर ऐसा प्रावधान क्यों नहीं होना चाहिए?

थापर लिखते हैं कि एक 24 साल के नौजवान को करीब चार हफ्तों तक निराधार और अन्यायपूर्ण तरीके से जेल में बंद रखा जाता है. उस पर अंतरराष्ट्रीय ड्रग तस्कर होने, षडयंत्र करने और ड्रग रैकेट चलाने के आरोप लगाए जाते हैं. ये सारे आरोप मीडिया के जरिए मनगढंत कहानियां बनकर परोसी जाती हैं. और, यह सब कुछ एनसीबी के जरिए हो रहाहोता है.

यह एक युवा की गरिमा का भी सवाल है क्योंकि एनसीबी को पता था कि उसके पास पर्याप्त सबूत नहीं थे. फिर भी उसकी गरिमा को तार-तार होने दिया गया, आम लोगों में धारणा बनने दी गयी और शायद न्यायालय को भी प्रभावित करने की कोशिशें की गयीं. कई चैनलों और अखबारों ने तनिक भी परवाह नहीं की कि वे जो कुछ रिपोर्ट कर रहे हैं उसके सबूत उनके पास नहीं थे. वे अज्ञात सूत्रों के हवाले से सबकुछ बताते रहे.

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