Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019India Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019दिल्ली HC का फैसला सिर्फ देवांगना,नताशा, आसिफ नहीं,भारत के लिए भी

दिल्ली HC का फैसला सिर्फ देवांगना,नताशा, आसिफ नहीं,भारत के लिए भी

न्याय प्रणाली जिस तरह काफ्का के उपन्यास के कथानकों सी विचित्र हो चुकी है,ऐसे में विवेकशीलता का उदाहरण बन जाते हैं.

वकाशा सचदेव
भारत
Updated:
<div class="paragraphs"><p>इकबाल तनहा, नताशा नरवाल और देवांगना कलिता को जमानत</p></div>
i

इकबाल तनहा, नताशा नरवाल और देवांगना कलिता को जमानत

(फोटो- क्विंट हिंदी)

advertisement

शब्दों में यह बताना मुश्किल है कि आसिफ इकबाल तनहा, नताशा नरवाल और देवांगना कलिता को जमानत देने के दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले का साल 2021 के भारत के लिए क्या मायने है.

क्या यह विरोध करने के अधिकार का समर्थन है? क्या सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ भेदभाव तरीके से आपराधिक मामले दायर करने पर सरकार को मीठी झिड़की है? दिल्ली दंगों में दिल्ली पुलिस की शर्मनाक जांच का पर्दाफाश करना है?

बेशक, हाई कोर्ट के फैसले यह सब करते हैं. लेकिन इससे भी ज्यादा, ये ठंडी हवा के झोंकों से हैं. हमारी न्याय प्रणाली जिस तरह काफ्का के उपन्यास के कथानकों सी विचित्र हो चुकी है, उसमें यह विवेकशीलता का उदाहरण बन जाते हैं.

2021 का भारत- जहां आपको अपराध के आरोपों पर हंसी आने लगे

भारत में दशकों से यह लंबी और वीभत्स परंपरा रही है कि जो लोग विरोध करने की हिम्मत करते हैं, उनकी धर पकड़ कर ली जाए. इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के पहले से, और जो अब तक बदस्तूर है. यह दिलचस्प भी है कि जिस राष्ट्र की नींव सविनय अवज्ञा और विरोध के हक पर आधारित हो, वहां उन्हीं परंपराओं पर चलने वालों को कैदखानों में बंद करना इतना सामान्य हो गया है.

एक देश के रूप में हमने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर जितना उदासीन रवैया अपनाया है, उसी के चलते सत्ता वह सब कुछ कर सकती है, जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती.

अब एक बात स्पष्ट करना जरूरी है- स्टूडेंट एक्टिविस्ट्स, मानवाधिकार के हिमायतियों और प्रदर्शनकारियों से ज्यादातर देशों का छत्तीस का आंकड़ा रहा है, और वह भी सदियों से. जिन देशों में नागरिक स्वतंत्रता और सुरक्षा ज्यादा है, वहां की सरकारें सिर्फ सोचा करती हैं कि किस तरह से उन लोगों को कालकोठरी के अंधेरों में झोंका जाए जिनके चलते सत्तासीनों को बेचैनी होती है.

भारत में इससे अलग क्या हो रहा है? पुलिस अब पुराने दुश्मनों को सबक सिखाने के लिए सिर्फ उन पर छोटे मोटे आरोप नहीं लगाती, कि उन्होंने किसी अधिकारी को अपना काम करने से रोका, या निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया. न ही वह उन्हें गंभीर अपराधों, जैसे दंगा और आगजनी के लिए पकड़ती है- जैसा कि कोई गुस्सैल राजनेता या पुलिसवाला करता ही है. अब हो यह रहा है कि नाखुशी का पहला संकेत मिलने पर ही बड़े हथियार निकाल लिए जाते हैं.

नारे लगाने वाले स्टूडेंट्स पर राजद्रोह का आरोप लगा दिया जाता है.अदालतों में लोगों की वकालत करने वाले लोगों को अर्बन नक्सल कह दिया जाता है- प्रधानमंत्री की हत्या के काल्पनिक षडयंत्र का आरोपी बना दिया जाता है. किसी संदिग्ध कानून के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों को आतंकवादी बता दिया जाता है जिन्होंने सांप्रदायिक दंगे भड़काए थे.

एक तरफ पुलिस ऐसे मनगढंत दावे करती है, दूसरी तरफ राजतंत्र कोरी कल्पनाओं के सागर में डूबा हुआ है. तीसरा, अदालतों ने प्रशासन को खुली छूट दे दी है कि वह जेके राउलिंग जैसी काल्पनिक कहानियां गढ़ता रहे. कुल मिलाकर न्यायालय विरोधियों के दमन की कार्रवाइयों को रोकने में पूरी तरह नाकाम हुए हैं.

सबसे बुनियादी सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि यह शख्स असल में जो कर रहा है, क्या वह गैर कानूनी है? लेकिन यह सवाल हजारों पन्नों की चार्जशीट में दफन हो जाता है जिसका कोई मायने नहीं होता.जमानत की सुनवाई के दौरान यह सवाल कोई पूछता ही नहीं. ट्रायल की बात तो कीजिए ही मत, क्योंकि वह मौका आता ही नहीं.

बिना किसी उचित कारण के ऐसे आरोप लगाना, आकस्मिक नहीं है.आप इसे ‘टूलकिट’ भी कह सकते हैं. आम लोगों के दिलो-दिमाग में आरोपियों के खिलाफ एक नेगेटिव नेरेटिव तैयार किया जाता है, जिसका खेल कानूनी व्यवस्था के बाहर क्रूरता से खेला जाता है.

इस तरह आरोपियों की जमानत को ठुकराने का आधार तैयार होता है.दोष साबित हुए बिना उन्हें लंबे समय तक जेलों में बंद रखा जाता है.व्यक्तिगत और पेशेवर स्तर पर उनकी जिंदगी तबाह की जाती है.

इससे भी बुरा क्या होता है. इस तरह भविष्य में लोगों को विरोध प्रदर्शन करने से रोका जा सकता है. ये कदम जितने मनमाने और जितने अधिक प्रतिशोध से भरे होते हैं, उतने ही आसानी से उनका मकसद पूरा होता है.

दिल्ली दंगा मामलों ने दर्शाया है कि यह टूलकिट कितनी अच्छी तरह काम करती है. इसके जरिए दिल्ली पुलिस ने एक ऐसे जोशीले आंदोलन और उसकी अगड़ी कतार में खड़े युवा नेताओं को बदनाम किया जो मोदी और शाह की ताकत को चुनौती देने के लिए तैयार थे. जबकि इन युवाओं का नाता किसी परंपरागत राजनैतिक दल से नहीं था.

यह नेरेटिव कामयाब लग रहा था. निचली अदालतें बिना सवाल किए इस पर सम्मति जता रही थीं. सीएए विरोधी प्रदर्शन खामोश हो गए थे.यह भी सुनिश्चित होने लगा था कि सरकार के खिलाफ हर आवाज को चुप करा दिया जाएगा.

इसीलिए दिल्ली हाई कोर्ट का तन्हा, नरवाल और कालीता को जमानत देना इतना अहम है.

कुछ सही सवाल पूछना

दिल्ली पुलिस की लच्छेदार बातों, साजिश के बड़े दावों और यूएपीए जैसे कुख्यात कानून के बावजूद जस्टिस अनूप भंभानी और सिद्धार्थ मृदुल ने देश को याद दिलाया कि तमाम प्रतिकूल सबूतों के बावजूद हमारे देश में अब भी कानून का राज है. और गृह मंत्री अमित शाह के तहत भारतीय राज्य की ताकतवर मशीनरी को अपने आरोपों को तार्किक आधार देना होगा.

दिल्ली पुलिस का दावा था कि तन्हा उस साजिश के ‘मास्टरमाइंड्स’में से एक था जिसने फरवरी 2020 में दिल्ली में दंगों को अंजाम दिया. क्यों? क्योंकि वह जामिया कोऑर्डिनेशन कमिटी (जेसीसी) का मेंबर था. जेसीसी जामिया मिलिया इस्लामिया के पूर्व और मौजूदा स्टूडेंट्स का वह ग्रुप है जिसने सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया था. पुलिस का कहना था, ये सामान्य विरोध प्रदर्शन नहीं थे. भड़काऊ प्रदर्शन थे.

इससे पहले कि आप पूछें कि यह दंगा भड़काना कैसे हुआ, तो यह भी जान लीजिए कि तन्हा के खिलाफ आरोपों में यूएपीए के सेक्शन 15, 17 और 18 भी शामिल हैं. यानी आतंक के काम करना, आतंक के कामों को फंड करना और आतंक के काम करने/उन्हें फंड करने की साजिश रचना.

हाई कोर्ट ने दिल्ली पुलिस के दावों पर एकदम से यकीन नहीं कर किया. इससे पहले अक्टूबर 2020 में निचली अदालत ने दिल्ली पुलिस के दावों पर भरोसा करके तन्हा की जमानत को नामंजूर कर दिया था. इससे उलट, हाई कोर्ट ने पुलिस के इस दावे की जांच की और यह देखने की कोशिश की कि क्या इनमें से कुछ भी आतंक के आरोप जितना गंभीर है. फिर कहा:

“हम इस सबमिशन पर रजामंद नहीं हैं और इस पर विश्वास नहीं करते क्योंकि यह किसी विशेष तथ्यात्मक आरोप पर आधारित नहीं पाया गया है और हमारा विचार है कि उक्त चार्जशीट में खतरनाक और अतिशयोक्ति पूर्ण शब्दों का इस्तेमाल हमें अन्यथा आश्वस्त नहीं करेगा.”

मूल रूप से अदालत ने पाया कि पुलिस ने तन्हा के खिलाफ जो आरोप लगाए थे (इस सवाल को परे रखिए कि उनके पास क्या सबूत थे), वे आतंक से संबंधित अपराध थे भी नहीं- उस पर सिर्फ एक आरोप लगाया गया था कि उसने सह आरोपी को एक सिम कार्ड दिया था.बाकी के आरोप सिर्फ प्रदर्शनों को आयोजित करने में मदद करने से जुड़े थे. न्यायाधीशों ने कहा कि यह भारतीय नागरिक होने के हमारे अधिकार के दायरे में आता है.

हाई कोर्ट ने कहा-

“हमारे विचार में उक्त चार्ज शीट में जो आरोप लगाए गए हैं, उन्हें बिना पक्षपात किए पढ़ने से पता चलता है कि इनमें विशेष और तथ्यात्मक आरोपों का पूरी तरह से अभाव है, यानी उन आरोपों के अलावा बाकी के आरोप सिर्फ शब्दजाल पर आधारित हैं, जोकि उक्त चार्जशीट में शामिल किए गए हैं ताकि यूएपीए के सेक्शंस 15, 17 और 18 के अंतर्गत अपराधों की सामग्री जुटाई जा सके.”

नरवाल और कलिता पर इसी तरह आरोप लगाए गए थे. दिल्ली पुलिस का दावा है कि वे पिंजड़ा तोड़ की सदस्य हैं और षडयंत्र रचने वाले कई व्हॉट्सएप ग्रुप्स का हिस्सा थीं. इन ग्रुप्स ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान चक्का जाम करने और विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई थी.

इन लोगों ने जाफराबाद और सीलमपुर में धरना प्रदर्शन करने में मदद की थी जिसके बाद वहां हिंसा भड़की (जहां वे मौजूद नहीं थीं) और कथित तौर पर उन्होंने महिलाओं को मिर्ची पाउडर के पैकेट बांटे थे ताकि पुलिस वालों पर हमला किया जा सके.

तन्हा के मामले की ही तरह हाई कोर्ट ने चार्जशीट और पुलिस डॉक्यूमेंट्स को देखा कि क्या दिल्ली पुलिस के आरोप यूएपीए के तहत आने वाले आतंक के आरोपों पर खरे उतरते हैं. फिर कोर्ट ने कहा-

“उसी प्रकार से प्रथम दृष्टया हमें उक्त चार्जशीट में वे तथ्यात्मक सामग्रियां नहीं मिल रहीं जोकि यूएपीए के सेक्शन 15, 17 या 18 के तहत किसी अपराध के लिए मिलनी जरूरी हैं.”
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

यूएपीए के ‘आतंकवाद’ से दो-दो हाथ

किसी को यह क्रांतिकारी कदम लग सकता है लेकिन ऐसे हालात में सामान्य ज्ञान का इस्तेमाल करके भी कोई शख्स यही बयान देगा.बदकिस्मती से, भारतीय अदालतें यह भूल चुकी हैं कि उन्हें जमानत की सुनवाई के दौरान ऐसे आरोपों पर सवाल पूछने की इजाजत है.

हां, नरवाल और कलिता को जमानत से इनकार करने वाली निचली अदालत ने इस साल जुलाई में कहा था कि आरोपों का कोई मायने हैया नहीं, उसे यह देखने की जरूरत नहीं है. चूंकि केंद्र सरकार ने चार्जशीट की मंजूरी पहले ही दे दी है.

इस बेहूदा बात की दिल्ली हाई कोर्ट की निंदा की. उसने कहा कि “किसी चार्जशीट में यूएपीए लगाने के एनग्रेडियंट्स (यानी सामग्री) है या नहीं, यह तय करते समय अदालत को इस बात पर विचार नहीं करना चाहिए कि केंद्र सरकार ने इस कानून के तहत मामले को आगे बढ़ाने को मंजूरी दे दी है.”

वैसे अदालतें अक्सर यह भूल जाती हैं कि जमानत की सुनवाई के दौरान आरोपियों के खिलाफ लगे आरोपों की जांच की जानी चाहिए.दिल्ली दंगा मामलों में एक कानून का खास तौर से दुरुपयोग किया गया और यह बहुत सामान्य बात बन चुकी है, यानी यूएपीए के तहत आतंक के आरोप का गलत इस्तेमाल.

चूंकि यूएपीए के एक कुख्यात सेक्शन 43डी (5) में कहा गया है कि यूएपीए के तहत आतंक के आरोपी को जमानत नहीं मिल सकती, अगर अदालत को केस डायरी/अन्य डॉक्यूमेंट्स के आधार पर यह पता चलता है कि “यह मानने का उचित आधार है कि उस व्यक्ति के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सच हैं.”

2019 में सुप्रीम कोर्ट ने वटाली फैसले में कहा था कि अदालत को ऐसा विश्लेषण करते समय आरोपी के खिलाफ सबूतों की खूबियों-खामियों पर ध्यान नहीं देना चाहिए और सारे मैटीरियल ओर हालात पर विचार करना चाहिए.

दिल्ली पुलिस को ऐसा लगता है कि वह तन्हा, नरवाल और कलितापर आतंकवाद में शामिल होने का दावा कर सकती है, चूंकि वे प्रदर्शनों में शामिल थे. उसे लगता है कि इसके जरिए वह अदालतों को उन्हें जमानत देने से रोक सकती है, भले ही उसके दावे कितने भी विचित्र हों.

वैसे दिल्ली पुलिस अकेला ऐसा नहीं कर रही. ऐसा बहुत से राज्यों की पुलिस कर रही है. यूपी पुलिस ने सिद्दीक कप्पन के मामले में ऐसा ही किया है. इस तरह पूरे देश में व्यक्तिगत आजादी का गला घोंटा जा रहा है और देश के नागरिक दमनकारी प्रशासन के रहमो-करम पर हैं.

खुशकिस्मती से जस्टिस भंभानी और मृदुल को कानून की बेहतर समझ है और यह भी कि इसे कैसे काम करना चाहिए. उन्होंने पहले आतंकवाद की परिभाषा को स्पष्ट किया और बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने कई बार ‘आतंकवादी कृत्य’ की किस तरह व्याख्या की है.

उन्होंने कहा कि “आतंकवादी गतिविधियों की सीमा और पहुंच सामान्य अपराध के असर से परे होनी चाहिए और सिर्फ कानून और व्यवस्था, यहां तक कि सार्वजनिक व्यवस्था में खलल पैदा करने से संपन्न नहीं होनी चाहिए.”

राज्य की सुरक्षा को असली खतरा होना चाहिए (सिर्फ सार्वजनिक व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने से अधिक) जिससे निपटने के लिए भारत के सुरक्षा बलों को शामिल करना पड़े. इन तीनों लोगों पर इस आधार पर आरोप लगाए गए थे कि उन्होंने उत्तर पूर्वी दिल्ली में चक्का जाम को उकसाने का काम किया था. इस पर अदालत ने पाया कि ये मामले आतंकवाद जितने गंभीर नहीं. इसके लिए यह देखने की भी जरूरत नहीं है कि उनके खिलाफ मिले सबूत मजबूत हैं या कमजोर.

दिल्ली पुलिस ने आतंक के आरोप लगाने की जो बेतुकी कोशिश की थी, जजों ने उसे एक झटके से नकार दिया. पुलिस का दावा था कि आरोपी की कार्रवाई से भारत की सुरक्षा को खतरा हो सकता है, इसकी हल्की सी आशंका के चलते ही उसके खिलाफ ऐसे आरोप लगाए गए हैं. इसका जवाब अदालत ने तन्हा पर फैसला सुनाते समय दिया-

"खतरे और आतंक की 'आशंका' के इस पहलू पर विचार करने के बाद हम पाते हैं कि हमारे देश की नींव इतनी मजबूत है कि उसके एक विरोध भर से हिलने की आशंका नहीं. वह विरोध जोकि किसी कॉलेज के स्टूडेंट्स या अन्य लोग दिल्ली में स्थित एक यूनिवर्सिटी की को-ऑर्डिनेटिंग कमिटी के जरिए कर रहे हों. भले ही वह विरोध कितना भी शातिराना क्यों न हो."

आदर्श स्थितियों में दिल्ली हाई कोर्ट ने जो किया, वह उतना असामान्य नहीं है. लेकिन नए भारत में, वास्तव में यह निराला ही है, खासकर यूएपीए मामलों में. हाई कोर्ट ने इन मामलों में जमानत देकर न सिर्फ दूसरे हाई कोर्ट्स, बल्कि निचली अदालतों के सामने भी यह नजीर रखी है कि आतंकवाद और दूसरे गंभीर आरोपों के संबंध में क्या नजरिया रखा जाना चाहिए.

यह बार बार याद दिलाता है कि कथित अपराध कितने भी गंभीर हों, फिर भी यह राजतंत्र की जिम्मेदारी है कि आरोपी के अपराध को साबित करे. उसे बेपरवाह जांच और साजिश के अनुमान के आधार पर लोगों की आजादी छीनने की इजाजत नहीं है.

आगे के मामलों के लिए भी नजीर

जस्टिस भंभानी और मृदुल इस टेक्निकल प्वाइंट पर भी रुक सकते थे, लेकिन उन्होंने अपने फैसलों में दिल्ली दंगा मामलों में गहराई तक जाने की कोशिश की, पर अपने अधिकार क्षेत्र से कदम बाहर नहीं निकाले.

कुछ महत्वपूर्ण बिंदु इस तरह हैं जो इन मामलों से इतर दूसरे मामलों में भी प्रासंगिक हैं.

यह अप्रासंगिक है कि पुलिस या सरकार या ज्यादातर लोगों को लगता है कि एक खास किस्म का विरोध आंदोलन उचित है या अनुचित, या कि प्रदर्शनकारी सही हैं या गलत. हैं. विरोध करने का अधिकार तब भी मौजूद रहेगा.

स्टेट को निश्चित रूप से हिंसक विरोध प्रदर्शनों पर उचित प्रतिबंध लगाने का अधिकार है. लेकिन अगर विरोध को कानूनन मंजूरी है और वह आखिर में हिंसक हो जाता है, तो भी वह खुद ब खुद आतंकवादी कृत्य नहीं बन जाते हैं - आतंकवाद के अपराधों को सही ठहराने के लिए किसी आरोपी के खिलाफ कुछ विशिष्ट या विशेष आरोप होने चाहिए.

संसद एक ऐसा कानून बनाने का इरादा और उद्देश्य रखती है जो हमारे देश के अस्तित्व को खतरा पहुंचाने से रोके. बिना उचित कारण के आतंकवाद जैसे गंभीर आरोप लगाकर संसद का इरादा और मकसद कमजोर होगा और आतंकवाद गंभीर अपराधों में से एक है जोकि कोई व्यक्ति कर सकता है. ऐसा करने से उस अपराध की गंभीरता भी कम होगी.

अगर यह साफ है कि किसी मामले में सुनवाई लंबे समय तक नहीं होने वाली (बड़ी संख्या में गवाहों के बयानों या महामारी जैसी मौजूदा परिस्थितियों के कारण), तो अदालतों को काफी समय से जेलों में बंद आरोपियों को जमानत देने में इंतजार करने की जरूरत नहीं. बशर्ते कि आरोपी के भागने का जोखिम न हो और उसके साक्ष्य/गवाहों के साथ छेड़छाड़ करने की आशंका न हो (उदाहरण के लिए चार्जशीट पहले ही दायर हो जाने के बाद).

आरोपी को मुकदमे से पहले हिरासत में रखना कोई निरर्थकऔपचारिकता नहीं है. न्यायालयों को यह याद रखने की जरूरत है कि "जांच से पहले पूर्व हिरासत में रखने के नतीजे गंभीर हैं; हिरासत में रखने से एक विचाराधीन आरोपी, हालांकि निर्दोष माना जाता है, जेल की जिंदगी के मनोवैज्ञानिक और शारीरिक अभाव के अधीन होता है.इस तरह उसे अपने बचाव की तैयारी करने से भी वंचित होना पड़ता है.इसके अलावा सुनवाई से पहले हिरासत में रखने से उसके परिवार के निर्दोष सदस्यों पर भी बहुत बुरा असर होता है.

यह उम्मीद करना नासमझी होगी कि दिल्ली हाई कोर्ट के फैसलों से भारतीय न्याय प्रणाली की कमियों को दूर किया जा सकता है.दिल्ली पुलिस जमानत के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर चुकी है और यह तन्हा, नरवाल और कलिता के लिए शायद पर्याप्त साबित न हो. हालांकि वे उम्मीद की किरण बनकर आए हैं कि न्यायपालिका फिर भी अपना काम कर सकती है और कार्यपालिका की ज्यादतियों को जांच परख सकती है.

जस्टिस भंभानी और मृदुल ने यह दर्शाया है कि ऐसे जज अब भी मौजूद हैं जो विरोध करने के हक के साथ हैं, और वे स्टेट को इस बात की इजाजत नहीं देते कि वह विरोध जताने वालों पर बढ़ा-चढ़ाकर आरोप लगाए और उन्हें धमकाए.

उन्होंने स्पष्ट, तार्किक तरीके से, कानून के शब्दों में यह सब किया है.अगर देश के बाकी जज ऐसा ही नजरिया अपनाएं, तो भारत के लिए बेहतर होगा.

तन्हा, नरवाल और कलिता के मामले अब सुप्रीम कोर्ट में हैं, हम सिर्फ उम्मीद कर सकते हैं कि एपेक्स अदालत के जज इन फैसलों का महत्व समझेंगे जिसे इस अनुच्छेद से बखूबी समझा जा सकता है:

“हम यह कहने को मजबूर हैं कि, ऐसा लगता है, असंतोष को दबाने की चिंता और इस डर के चलते कि मामला हाथ से निकल सकता है, स्टेट ने संविधान में दिए गए ‘विरोध के अधिकार’ और ‘आतंकवादी कृत्य’ के बीच की रेखा को धुंधला कर दिया. अगर यह धुंधलका और बढ़ा तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा.”

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 17 Jun 2021,12:50 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT