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शब्दों में यह बताना मुश्किल है कि आसिफ इकबाल तनहा, नताशा नरवाल और देवांगना कलिता को जमानत देने के दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले का साल 2021 के भारत के लिए क्या मायने है.
क्या यह विरोध करने के अधिकार का समर्थन है? क्या सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ भेदभाव तरीके से आपराधिक मामले दायर करने पर सरकार को मीठी झिड़की है? दिल्ली दंगों में दिल्ली पुलिस की शर्मनाक जांच का पर्दाफाश करना है?
भारत में दशकों से यह लंबी और वीभत्स परंपरा रही है कि जो लोग विरोध करने की हिम्मत करते हैं, उनकी धर पकड़ कर ली जाए. इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के पहले से, और जो अब तक बदस्तूर है. यह दिलचस्प भी है कि जिस राष्ट्र की नींव सविनय अवज्ञा और विरोध के हक पर आधारित हो, वहां उन्हीं परंपराओं पर चलने वालों को कैदखानों में बंद करना इतना सामान्य हो गया है.
एक देश के रूप में हमने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर जितना उदासीन रवैया अपनाया है, उसी के चलते सत्ता वह सब कुछ कर सकती है, जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती.
अब एक बात स्पष्ट करना जरूरी है- स्टूडेंट एक्टिविस्ट्स, मानवाधिकार के हिमायतियों और प्रदर्शनकारियों से ज्यादातर देशों का छत्तीस का आंकड़ा रहा है, और वह भी सदियों से. जिन देशों में नागरिक स्वतंत्रता और सुरक्षा ज्यादा है, वहां की सरकारें सिर्फ सोचा करती हैं कि किस तरह से उन लोगों को कालकोठरी के अंधेरों में झोंका जाए जिनके चलते सत्तासीनों को बेचैनी होती है.
नारे लगाने वाले स्टूडेंट्स पर राजद्रोह का आरोप लगा दिया जाता है.अदालतों में लोगों की वकालत करने वाले लोगों को अर्बन नक्सल कह दिया जाता है- प्रधानमंत्री की हत्या के काल्पनिक षडयंत्र का आरोपी बना दिया जाता है. किसी संदिग्ध कानून के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों को आतंकवादी बता दिया जाता है जिन्होंने सांप्रदायिक दंगे भड़काए थे.
एक तरफ पुलिस ऐसे मनगढंत दावे करती है, दूसरी तरफ राजतंत्र कोरी कल्पनाओं के सागर में डूबा हुआ है. तीसरा, अदालतों ने प्रशासन को खुली छूट दे दी है कि वह जेके राउलिंग जैसी काल्पनिक कहानियां गढ़ता रहे. कुल मिलाकर न्यायालय विरोधियों के दमन की कार्रवाइयों को रोकने में पूरी तरह नाकाम हुए हैं.
सबसे बुनियादी सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि यह शख्स असल में जो कर रहा है, क्या वह गैर कानूनी है? लेकिन यह सवाल हजारों पन्नों की चार्जशीट में दफन हो जाता है जिसका कोई मायने नहीं होता.जमानत की सुनवाई के दौरान यह सवाल कोई पूछता ही नहीं. ट्रायल की बात तो कीजिए ही मत, क्योंकि वह मौका आता ही नहीं.
इस तरह आरोपियों की जमानत को ठुकराने का आधार तैयार होता है.दोष साबित हुए बिना उन्हें लंबे समय तक जेलों में बंद रखा जाता है.व्यक्तिगत और पेशेवर स्तर पर उनकी जिंदगी तबाह की जाती है.
इससे भी बुरा क्या होता है. इस तरह भविष्य में लोगों को विरोध प्रदर्शन करने से रोका जा सकता है. ये कदम जितने मनमाने और जितने अधिक प्रतिशोध से भरे होते हैं, उतने ही आसानी से उनका मकसद पूरा होता है.
यह नेरेटिव कामयाब लग रहा था. निचली अदालतें बिना सवाल किए इस पर सम्मति जता रही थीं. सीएए विरोधी प्रदर्शन खामोश हो गए थे.यह भी सुनिश्चित होने लगा था कि सरकार के खिलाफ हर आवाज को चुप करा दिया जाएगा.
इसीलिए दिल्ली हाई कोर्ट का तन्हा, नरवाल और कालीता को जमानत देना इतना अहम है.
दिल्ली पुलिस की लच्छेदार बातों, साजिश के बड़े दावों और यूएपीए जैसे कुख्यात कानून के बावजूद जस्टिस अनूप भंभानी और सिद्धार्थ मृदुल ने देश को याद दिलाया कि तमाम प्रतिकूल सबूतों के बावजूद हमारे देश में अब भी कानून का राज है. और गृह मंत्री अमित शाह के तहत भारतीय राज्य की ताकतवर मशीनरी को अपने आरोपों को तार्किक आधार देना होगा.
दिल्ली पुलिस का दावा था कि तन्हा उस साजिश के ‘मास्टरमाइंड्स’में से एक था जिसने फरवरी 2020 में दिल्ली में दंगों को अंजाम दिया. क्यों? क्योंकि वह जामिया कोऑर्डिनेशन कमिटी (जेसीसी) का मेंबर था. जेसीसी जामिया मिलिया इस्लामिया के पूर्व और मौजूदा स्टूडेंट्स का वह ग्रुप है जिसने सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया था. पुलिस का कहना था, ये सामान्य विरोध प्रदर्शन नहीं थे. भड़काऊ प्रदर्शन थे.
इससे पहले कि आप पूछें कि यह दंगा भड़काना कैसे हुआ, तो यह भी जान लीजिए कि तन्हा के खिलाफ आरोपों में यूएपीए के सेक्शन 15, 17 और 18 भी शामिल हैं. यानी आतंक के काम करना, आतंक के कामों को फंड करना और आतंक के काम करने/उन्हें फंड करने की साजिश रचना.
हाई कोर्ट ने दिल्ली पुलिस के दावों पर एकदम से यकीन नहीं कर किया. इससे पहले अक्टूबर 2020 में निचली अदालत ने दिल्ली पुलिस के दावों पर भरोसा करके तन्हा की जमानत को नामंजूर कर दिया था. इससे उलट, हाई कोर्ट ने पुलिस के इस दावे की जांच की और यह देखने की कोशिश की कि क्या इनमें से कुछ भी आतंक के आरोप जितना गंभीर है. फिर कहा:
मूल रूप से अदालत ने पाया कि पुलिस ने तन्हा के खिलाफ जो आरोप लगाए थे (इस सवाल को परे रखिए कि उनके पास क्या सबूत थे), वे आतंक से संबंधित अपराध थे भी नहीं- उस पर सिर्फ एक आरोप लगाया गया था कि उसने सह आरोपी को एक सिम कार्ड दिया था.बाकी के आरोप सिर्फ प्रदर्शनों को आयोजित करने में मदद करने से जुड़े थे. न्यायाधीशों ने कहा कि यह भारतीय नागरिक होने के हमारे अधिकार के दायरे में आता है.
हाई कोर्ट ने कहा-
नरवाल और कलिता पर इसी तरह आरोप लगाए गए थे. दिल्ली पुलिस का दावा है कि वे पिंजड़ा तोड़ की सदस्य हैं और षडयंत्र रचने वाले कई व्हॉट्सएप ग्रुप्स का हिस्सा थीं. इन ग्रुप्स ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान चक्का जाम करने और विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई थी.
इन लोगों ने जाफराबाद और सीलमपुर में धरना प्रदर्शन करने में मदद की थी जिसके बाद वहां हिंसा भड़की (जहां वे मौजूद नहीं थीं) और कथित तौर पर उन्होंने महिलाओं को मिर्ची पाउडर के पैकेट बांटे थे ताकि पुलिस वालों पर हमला किया जा सके.
तन्हा के मामले की ही तरह हाई कोर्ट ने चार्जशीट और पुलिस डॉक्यूमेंट्स को देखा कि क्या दिल्ली पुलिस के आरोप यूएपीए के तहत आने वाले आतंक के आरोपों पर खरे उतरते हैं. फिर कोर्ट ने कहा-
किसी को यह क्रांतिकारी कदम लग सकता है लेकिन ऐसे हालात में सामान्य ज्ञान का इस्तेमाल करके भी कोई शख्स यही बयान देगा.बदकिस्मती से, भारतीय अदालतें यह भूल चुकी हैं कि उन्हें जमानत की सुनवाई के दौरान ऐसे आरोपों पर सवाल पूछने की इजाजत है.
हां, नरवाल और कलिता को जमानत से इनकार करने वाली निचली अदालत ने इस साल जुलाई में कहा था कि आरोपों का कोई मायने हैया नहीं, उसे यह देखने की जरूरत नहीं है. चूंकि केंद्र सरकार ने चार्जशीट की मंजूरी पहले ही दे दी है.
वैसे अदालतें अक्सर यह भूल जाती हैं कि जमानत की सुनवाई के दौरान आरोपियों के खिलाफ लगे आरोपों की जांच की जानी चाहिए.दिल्ली दंगा मामलों में एक कानून का खास तौर से दुरुपयोग किया गया और यह बहुत सामान्य बात बन चुकी है, यानी यूएपीए के तहत आतंक के आरोप का गलत इस्तेमाल.
चूंकि यूएपीए के एक कुख्यात सेक्शन 43डी (5) में कहा गया है कि यूएपीए के तहत आतंक के आरोपी को जमानत नहीं मिल सकती, अगर अदालत को केस डायरी/अन्य डॉक्यूमेंट्स के आधार पर यह पता चलता है कि “यह मानने का उचित आधार है कि उस व्यक्ति के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सच हैं.”
2019 में सुप्रीम कोर्ट ने वटाली फैसले में कहा था कि अदालत को ऐसा विश्लेषण करते समय आरोपी के खिलाफ सबूतों की खूबियों-खामियों पर ध्यान नहीं देना चाहिए और सारे मैटीरियल ओर हालात पर विचार करना चाहिए.
दिल्ली पुलिस को ऐसा लगता है कि वह तन्हा, नरवाल और कलितापर आतंकवाद में शामिल होने का दावा कर सकती है, चूंकि वे प्रदर्शनों में शामिल थे. उसे लगता है कि इसके जरिए वह अदालतों को उन्हें जमानत देने से रोक सकती है, भले ही उसके दावे कितने भी विचित्र हों.
वैसे दिल्ली पुलिस अकेला ऐसा नहीं कर रही. ऐसा बहुत से राज्यों की पुलिस कर रही है. यूपी पुलिस ने सिद्दीक कप्पन के मामले में ऐसा ही किया है. इस तरह पूरे देश में व्यक्तिगत आजादी का गला घोंटा जा रहा है और देश के नागरिक दमनकारी प्रशासन के रहमो-करम पर हैं.
उन्होंने कहा कि “आतंकवादी गतिविधियों की सीमा और पहुंच सामान्य अपराध के असर से परे होनी चाहिए और सिर्फ कानून और व्यवस्था, यहां तक कि सार्वजनिक व्यवस्था में खलल पैदा करने से संपन्न नहीं होनी चाहिए.”
राज्य की सुरक्षा को असली खतरा होना चाहिए (सिर्फ सार्वजनिक व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने से अधिक) जिससे निपटने के लिए भारत के सुरक्षा बलों को शामिल करना पड़े. इन तीनों लोगों पर इस आधार पर आरोप लगाए गए थे कि उन्होंने उत्तर पूर्वी दिल्ली में चक्का जाम को उकसाने का काम किया था. इस पर अदालत ने पाया कि ये मामले आतंकवाद जितने गंभीर नहीं. इसके लिए यह देखने की भी जरूरत नहीं है कि उनके खिलाफ मिले सबूत मजबूत हैं या कमजोर.
दिल्ली पुलिस ने आतंक के आरोप लगाने की जो बेतुकी कोशिश की थी, जजों ने उसे एक झटके से नकार दिया. पुलिस का दावा था कि आरोपी की कार्रवाई से भारत की सुरक्षा को खतरा हो सकता है, इसकी हल्की सी आशंका के चलते ही उसके खिलाफ ऐसे आरोप लगाए गए हैं. इसका जवाब अदालत ने तन्हा पर फैसला सुनाते समय दिया-
आदर्श स्थितियों में दिल्ली हाई कोर्ट ने जो किया, वह उतना असामान्य नहीं है. लेकिन नए भारत में, वास्तव में यह निराला ही है, खासकर यूएपीए मामलों में. हाई कोर्ट ने इन मामलों में जमानत देकर न सिर्फ दूसरे हाई कोर्ट्स, बल्कि निचली अदालतों के सामने भी यह नजीर रखी है कि आतंकवाद और दूसरे गंभीर आरोपों के संबंध में क्या नजरिया रखा जाना चाहिए.
यह बार बार याद दिलाता है कि कथित अपराध कितने भी गंभीर हों, फिर भी यह राजतंत्र की जिम्मेदारी है कि आरोपी के अपराध को साबित करे. उसे बेपरवाह जांच और साजिश के अनुमान के आधार पर लोगों की आजादी छीनने की इजाजत नहीं है.
जस्टिस भंभानी और मृदुल इस टेक्निकल प्वाइंट पर भी रुक सकते थे, लेकिन उन्होंने अपने फैसलों में दिल्ली दंगा मामलों में गहराई तक जाने की कोशिश की, पर अपने अधिकार क्षेत्र से कदम बाहर नहीं निकाले.
कुछ महत्वपूर्ण बिंदु इस तरह हैं जो इन मामलों से इतर दूसरे मामलों में भी प्रासंगिक हैं.
यह अप्रासंगिक है कि पुलिस या सरकार या ज्यादातर लोगों को लगता है कि एक खास किस्म का विरोध आंदोलन उचित है या अनुचित, या कि प्रदर्शनकारी सही हैं या गलत. हैं. विरोध करने का अधिकार तब भी मौजूद रहेगा.
संसद एक ऐसा कानून बनाने का इरादा और उद्देश्य रखती है जो हमारे देश के अस्तित्व को खतरा पहुंचाने से रोके. बिना उचित कारण के आतंकवाद जैसे गंभीर आरोप लगाकर संसद का इरादा और मकसद कमजोर होगा और आतंकवाद गंभीर अपराधों में से एक है जोकि कोई व्यक्ति कर सकता है. ऐसा करने से उस अपराध की गंभीरता भी कम होगी.
अगर यह साफ है कि किसी मामले में सुनवाई लंबे समय तक नहीं होने वाली (बड़ी संख्या में गवाहों के बयानों या महामारी जैसी मौजूदा परिस्थितियों के कारण), तो अदालतों को काफी समय से जेलों में बंद आरोपियों को जमानत देने में इंतजार करने की जरूरत नहीं. बशर्ते कि आरोपी के भागने का जोखिम न हो और उसके साक्ष्य/गवाहों के साथ छेड़छाड़ करने की आशंका न हो (उदाहरण के लिए चार्जशीट पहले ही दायर हो जाने के बाद).
आरोपी को मुकदमे से पहले हिरासत में रखना कोई निरर्थकऔपचारिकता नहीं है. न्यायालयों को यह याद रखने की जरूरत है कि "जांच से पहले पूर्व हिरासत में रखने के नतीजे गंभीर हैं; हिरासत में रखने से एक विचाराधीन आरोपी, हालांकि निर्दोष माना जाता है, जेल की जिंदगी के मनोवैज्ञानिक और शारीरिक अभाव के अधीन होता है.इस तरह उसे अपने बचाव की तैयारी करने से भी वंचित होना पड़ता है.इसके अलावा सुनवाई से पहले हिरासत में रखने से उसके परिवार के निर्दोष सदस्यों पर भी बहुत बुरा असर होता है.
जस्टिस भंभानी और मृदुल ने यह दर्शाया है कि ऐसे जज अब भी मौजूद हैं जो विरोध करने के हक के साथ हैं, और वे स्टेट को इस बात की इजाजत नहीं देते कि वह विरोध जताने वालों पर बढ़ा-चढ़ाकर आरोप लगाए और उन्हें धमकाए.
उन्होंने स्पष्ट, तार्किक तरीके से, कानून के शब्दों में यह सब किया है.अगर देश के बाकी जज ऐसा ही नजरिया अपनाएं, तो भारत के लिए बेहतर होगा.
“हम यह कहने को मजबूर हैं कि, ऐसा लगता है, असंतोष को दबाने की चिंता और इस डर के चलते कि मामला हाथ से निकल सकता है, स्टेट ने संविधान में दिए गए ‘विरोध के अधिकार’ और ‘आतंकवादी कृत्य’ के बीच की रेखा को धुंधला कर दिया. अगर यह धुंधलका और बढ़ा तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा.”
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