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23 मार्च…भगत सिंह का शहीदी दिवस. हर साल इस दिन सियासी मजमा दिखता है. राजनीतिक पार्टियां भगत सिंह पर अपना दावा पेश करने के लिए तरह-तरह के आयोजन करती हैं. इनमें दक्षिणपंथियों के अलग दावे होते हैं, वामपंथियों के अलग. साथ ही वामपंथ-दक्षिणपंथ के बीच झूलते संगठनों का अपना अलग ही दावा होता है.
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर भगत सिंह किसके हैं? यह जानने की कोशिश में निगाहें उन पंक्तियों पर अटक गईं, जो भगत सिंह ने अपनी मां को लिखी थी:
ये 'भूरे साहब' कौन हैं ? कश्मीर से कन्याकुमारी तक के कई लोग जहन में तैरने लगते हैं. लेकिन भूरे साहबों की धुंधली तस्वीर आकार नहीं ले पाती है.
फिर भगत सिंह के वैचारिक ठिकाने की तलाश में जेएनयू जाने पर पता लगता है कि यहां भी भगत सिंह पर अलग-अलग दावा है.
दक्षिणपंथ ‘वाले’ देशभक्त बलिदानी शहीद भगत सिंह
जेएनयू में पहली मुलाकात दक्षिणपंथी छात्र संगठन एबीवीपी के भगत सिंह से होती है. सिर पर पीली पगड़ी, करीने से संवारी पतली मूंछ और तस्वीर के नीचे लिखा भगत सिंह का जीवन दर्शन- राख का हर एक कण मेरी गर्मी से गतिमान है. मैं एक ऐसा पागल हूं, जो जेल में भी आजाद है.
जबरदस्त, क्रांतिकारी अल्फाज, लेकिन जहन में सवाल आता है कि एबीवीपी औ आरएसएस के इतने खास कैसे हो गए भगत सिंह? उनका भगत सिंह से कैसा 'भाईचारा'?
आपके हर मसले में धर्म का तड़का मिलता है, लेकिन भगत सिंह तो धर्म को शोषण का जरिया मानते थे:
तस्वीर में भगत सिंह के सिर पर पगड़ी है. यह पगड़ी उनको सिख धर्म से जोड़ती है. ऐसे में भगत सिंह को पगड़ी पहनाकर एक देशभक्त बलिदानी के तौर पर अपने खांचे में फिट करने की तड़प साफ दिखती है.
कैंपस में एबीवीपी के भगत सिंह से मिलने के बाद वामपंथियों के भगत सिंह से मिलने का मौका मिल जाता है. जेएनयू की लाल दीवारों पर कड़क और हैट पहने हुए भगत सिंह. तस्वीरों के साथ भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों को समेटे पंक्तियां भी देखने को मिलती हैं.
बस एक सवाल का जवाब नहीं मिलता कि भगत सिंह 'किस' वामपंथ के थे?
रूस के उस वामपंथ के, जिसकी नींव मार्क्स और लेनिन के विचारों पर पड़ी थी? लेकिन उस पर तो स्टालिन ने इमारत बनाई. उस स्टालिन ने, जिसने वैचारिक विरोधियों के सफाए को अंजाम दिया. जहां तक भगत सिंह के बारे में दुनिया को पता है, वे वैचारिक विरोधियों के सफाये पर तो विश्वास नहीं करते थे. वो विचारों की आलोचना से नहीं घबराते थे, उन्हें तो वो अच्छा मानते थे.
या वो वामपंथ के उस व्यावहारिक रूप के थे, जिसमें हर तरह की आजादी का हनन करके चीन पूरी दुनिया में आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर रहा है? चीन का ‘साम्यवाद’ वहां अमीरों और गरीबों के बीच का फासला बढ़ा रहा है. उस विचारधारा के भी भगत सिंह कतई करीब नहीं थे. भगत सिंह ने ‘बम का दर्शन’ लेख में लिखा था:
नास्तिकता और तार्किक बातों पर आधारित आजादी की अवधारणा को लेकर वामपंथी उन पर दावा ठोक सकते हैं. लेकिन दूसरे मसलों पर वो भगत सिंह के करीब खड़े नहीं हो सकते हैं.
भगत सिंह का सपना आज भी अधूरा है- ऐसे देश का सपना, जो गरीबी, शोषण, सांप्रदायिकता, हिंसा से मुक्त हो.
जेएनयू में तो साफ नहीं हो सका कि भगत सिंह किसके हैं? इस सवाल से जूझने पर कानों में अनायास कबीरवाणी सुनाई पड़ती है- कबीरा खड़ा बाजार में... क्या वाकई कबीर के करीब थे भगत सिंह? क्या कबीर की तरह ही भगत सिंह को किसी पंथ-संप्रदाय या वैचारिक खांचे में कैद नहीं किया जा सकता है? शायद जवाब हां में है.
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