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“अच्छा वो मुझे अब फोन रखने को कह रहे हैं, चलता हूं, खुदा हाफिज.” बेटे दिलशेर के ये आखिरी शब्द थे जो उनके पिता अली शेर ने सुने थे.
अली इसके जवाब में खुदा हाफिज भी नहीं बोल सके थे कि फोन अचानक ही कट गया लेकिन इससे वो परेशान नहीं हुए. दो दिन में उन्हें अपने बेटे से मिलने जाना था जब दिल्ली हाई कोर्ट में उसकी जमानत याचिका पर सुनवाई होनी थी.
उस पांच मिनट के फोन कॉल को याद करते हुए अली ने कहा “मुझे लगा कि मैं जल्द ही उससे बात करूंगा और वो भी आमने-सामने.” गहरी आवाज में उन्होंने आगे कहा “हम सब जानते थे कि उसे जमानत मिल जाएगी क्योंकि उसके मामले में दूसरे सभी आरोपियों को पहले ही जमानत मिल चुकी थी.”
अली अपने दफ्तर में थे, उनका यात्री बसों का एक छोटा सा काम था, जब उनकी पत्नी ने सुबह करीब 11 बजे उन्हें फोन किया और उनके बेटे की हत्या की जानकारी दी, सदमे और दुख के कारण वो ठीक से बात नहीं कर पा रही थीं. दो पुलिसकर्मी जहांगीरपुरी में उनके घर पर सिर्फ एक संदेश के साथ आए थे-“आपके बेटे की हत्या हो गई है”, न इससे ज्यादा, न इससे कम.
सवालों के जवाब जानने को बेताब पति-पत्नी जल्दी से तिहाड़ जेल की ओर भागे. सुबह के ट्रैफिक के दौरान जहांगीरपुरी से तिहाड़ जेल तक पहुंचने में करीब 75 मिनट लगते हैं, अली को ये यात्रा पूरी जिंदगी में सबसे लंबी और सबसे मुश्किल लगी. वो नहीं जानते थे कि कहां जाना है, या किससे पूछना है, इसलिए वो सिक्योरिटी गार्ड के सामने जोर-जोर से चिल्लाने लगे.
उन्हें एक वेटिंग रूम ले जाया गया, करीब पांच घंटे के इंतजार के बाद अली और शहनाज को आखिरकार जेल में मजिस्ट्रेट ने बुलाया. इन पांच घंटों के दौरान कोई भी उनसे मिलने नहीं आया, किसी तरह की मदद की पेशकश नहीं की गई, न ही उनकी तरफ नजर उठाकर देखा गया. मजिस्ट्रेट के कमरे में भी उन्हें उनके कई सवालों के जवाब नहीं मिले. अली से एक पेपर पर साइन करवाया गया, जिसे लेकर उनका कहना है कि उन्होंने, उसमें क्या लिखा है, ये देखे बिना साइन कर दिया.
एक और घंटा इंतजार करने के बाद सफाई कर्मचारियों में से किसी ने अली को बताया कि एक वैन दोपहर में तिहाड़ से दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल के लिए गई है और उसमें शायद उनके बेटे का शव ले जाया गया होगा. ये दंपति तेजी से डीडीयू अस्पताल पहुंचे और अपने बेटे के बारे में पूछा. फिर से उन्हें वेटिंग एरिया में रखा गया. 45 मिनट के बाद ‘अस्पताल के किसी कर्मचारी’ ने उन्हें बताया कि उन्हें अगले दिन पोस्टमॉर्टम के बाद बेटे का शव दिया जाएगा.
अली के परिवार के लिए 31 नवंबर की रात बहुत ही लंबी गुजरी. एक दिसंबर को दोपहर तीन बजे अली को उनके बेटे का शव ले जाने के लिए डीडीयू अस्पताल बुलाया गया. इस बार दुख में डूबे दंपति को जहांगीरपुरी से डीडीयू अस्पताल की यात्रा बहुत लंबी नहीं लगी, वो इसके कभी खत्म न होने की उम्मीद कर रहे थे. इस बार जल्दी पहुंचने की कोई हड़बड़ी नहीं थी, कोई बेचैनी नहीं थी, सिर्फ खामोशी थी.
अब तक 48 घंटे बीत चुके थे और अली को अब तक जेल अधिकारियों से कोई अहम जानकारी नहीं मिल सकी थी. एक हाई-सिक्योरिटी जेल में कोई कैसे उनके बेटे की जान ले सकता है? सिक्योरिटी गार्ड और वॉर्डन कहां थे? किसी ने उसे बचाया क्यों नहीं? ये सवाल बार-बार उन्हें परेशान कर रहे थे लेकिन किसी ने इनके जवाब देना जरूरी नहीं समझा. 2 दिसंबर को रोहिणी कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने जब दिलशेर के वकील अनवर खान दिलशेर की सुनवाई के लिए पेश हुए तब जाकर उसकी हत्या के बारे में ज्यादा जानकारी परिवार को मिल सकी थी.
दिलशेर की हत्या पर तिहाड़ जेल की स्टेटस रिपोर्ट में उसकी मौत को आंकड़ों में बताया गया है- सुबह 7 बजे मौत, चाकू लगने के 11 घाव, दो कटने-फटने के घाव, 17 महीने जेल में बिताए. सात लोगों के एक दल ने उसकी जान ली जिन्होंने सोते समय उस पर हमला किया. हालांकि दस्तावेजों को ध्यान से देखने पर और भी ज्यादा चिंताजनकर बात पता चलती है- जेल कर्मचारी ने जेल अस्पताल को बताया था कि दिलशेर के साथ “उसके वॉर्ड में मारपीट का कथित इतिहास रहा है.''
अली शेर का कहना है कि ये जानकारी उस डर की पुष्टि करती है जो उनके बेटे ने तिहाड़ में रहते हुए फोन पर जताया था. उन्होंने दावा किया कि दिलशेर को हमेशा अपने ऊपर मंडरा रहे खतरे के बारे में पता था. उनका कहना है कि यहां तक कि जेल कर्मचारियों तक को इस बारे में पता था लेकिन उन्होंने इसके लिए कभी कुछ नहीं किया.
अली के परिवार का पक्के तौर पर मानना है कि उनके बेटे को जेल कर्मचारियों ने ही फंसाया था. उनका मानना है कि जेल कर्मचारी अगर ज्यादा नहीं तो बराबरी से दिलशेर की हत्या में शामिल हैं.
अली बार-बार सवाल करते हैं कि “ एक हाई सिक्योरिटी जेल में कैसे कोई दिन-दहाड़े किसी की हत्या को अंजाम दे सकता है?” जेल कर्मचारियों की मिलीभगत के अपने दावे के समर्थन में अली अपराध के बाद कर्मचारियों की ओर से उठाए गए कदमों को गिनाते हैं जो उनके मुताबिक शक पैदा करते हैं.
सबसे पहले, अली कहते हैं कि जेल अधिकारियों ने घटना की सीसीटीवी फुटेज को ये कहते हुए पेश करने से इनकार कर दिया कि उस समय कैमरे काम नहीं कर रहे थे. दूसरी बात ये कि एफआईआर के मुताबिक दिलशेर पर हमला करने वाले उस पर हमला करने के दौरान नशे में थे, जिससे केवल इस बात का खुलासा होता है कि कैसे जेल कर्मचारियों ने तिहाड़ के अंदर हथियारों, ड्रग्स और शराब को आने दिया.
उन्होंने बताया, ''जब मैं दिलशेर का सामान लेने गया तो उसमें से कई चीजें गायब थीं. कर्मचारियों ने ही उसके ब्रांडेड जूते और स्वेटर बेचने के लिए ले लिए होंगे. जब मैंने गायब सामानों के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वो उन्हें ढूंढकर घर तक पहुंचा देंगे. लेकिन आज तक वो सामान घर नहीं पहुंचे.''
अली के वकील, अनवर खान का कहना है कि कैदियों के बीच हिंसा के साथ-साथ हिरासत में उत्पीड़न के मामलों में कर्मचारियों की मिलीभगत तिहाड़ में आम बात है. उनका ये भी कहना है कि जब जेल कर्मचारियों की लापरवाही पर उंगली उठाई जाती है तो सीसीटीवी फुटेज देने से इनकार करना भी आम बात है. पिछले चार सालों में ये अनवर खान का तीसरा केस है जिसमें हिरासत में हिंसा के मामले में तिहाड़ जेल कर्मचारियों के खिलाफ आरोप लगाए गए हैं.
खान ने दिलशेर को न्याय और उनके परिवार को मुआवजा दिलाने की चुनौती लेकर अली शेर और शहनाज का साथ दिया है. उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, महानिदेशक (जेल), दिल्ली पुलिस कमिश्नर और उप-राज्यपाल को चिट्ठी लिख कर इस मामले में हस्तक्षेप करने की मांग की है. लेकिन ये कोशिशें अब तक बेकार साबित हुई हैं. कई दिन बीत चुके हैं, ऐसा लगता है कि खान की ओर से लिखी चिट्ठियां विभागीय लाल फीताशाही में कहीं गुम हो गई हैं.
जांच प्रक्रिया में देरी जांच प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठाती है. इस प्रक्रिया को तय समय में पूरा करने के पीछे सबूतों को नष्ट होने से रोकना, निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करना और दिलशेर के परिवार को समय से मुआवजा दिलाने का तर्क था.
दिलशेर के मामले में, जहां परिवार ने खुलकर जेल अधिकारियों पर “लापरवाही” के आरोप लगाए हैं, खान का मानना है कि एक जांच के लिए कानूनी प्रावधानों के उल्लंघन पर गंभीरता से निपटना चाहिए या कम से कम उसकी उतनी आलोचना की जानी चाहिए जितनी उचित हो.
जब उनसे उनकी भावनाओं के बारे में पूछा गया तो अली का कहना था कि “आपको कैसा महसूस होगा जब आप अपने बेटे को उसकी भरी जवानी में खो देंगे. ”
अली शेर अपने परिवार के सामने कमजोर पड़ते नहीं दिख सकते. उनका मानना है कि उन्हें अपने दुख को गले लगाने, रोने का सौभाग्य नहीं है. अली ने कहा, “अगर मैं अपने परिवार के सामने रोता हूं तो वो टूट जाएंगे.” अली धीरे-धीरे अपने काम-धंधे की ओर लौटने की कोशिश कर रहे हैं. उनका मानना है कि काम में व्यस्त रहने से उनका दिमाग किसी चीज में लगा रहेगा और इससे भी अहम ये कि हार की भावना से हटा रहेगा जो “अपने बेटे को बचा नहीं पाने” से आती है.
कहीं से कोई मदद न मिलने के बाद, अली शेर ने आखिरकार दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दाखिल की है. अपनी याचिका में अली ने दावा किया है कि उन्हें तिहाड़ जेल में विचाराधीन कैदी, उनके बेटे की मौत की परिस्थितियों और तथ्यों के बारे में लंबे समय तक अंधेरे में रखा गया. जेल अधिकारियों की लापरवाही का हवाला देते हुए अली ने पांच करोड़ के मुआवजे का दावा किया है. जस्टिस प्रतिभा एम सिंह की सिंगल जज बेंच इस मामले को 5 अप्रैल को सुनेगी.
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