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डेरा सच्चा सौदा की दुर्गति ने भानुमति का ऐसा पिटारा खोल के रख दिया है जिसमें से आध्यात्मिकता, धर्म और विवेक अपनी जान बचा कर भाग रहे हैं और कुछ बचा रह जा रहा है तो वो है-- डेरों की अंदरूनी दुनिया के खौफ जगाते सच, धर्मांधता और एक बार फिर व्यक्ति पूजा से चूर-चूर हुआ भरोसा!
ऐसा क्यों हुआ कि उन्मादी भीड़ एक बलात्कारी को बचाने के लिए गोली खाने को तैयार हो गई? ऐसा क्यों होता है कि लाखों-करोड़ों लोग एक ऐसी शख्सियत के 'गुलाम' बन जाते हैं, जो कम से कम धर्म की कसौटी पर तो कहीं नहीं ठहरता? और ऐसा भी क्यों होता है कि इस तरह की खबरें जब भी आती हैं तो भारत के नक्शे पर ज्यादातर जगह पंजाब और हरियाणा ही दिखाई देती है? क्विंट हिंदी ने डेरा प्रेमियों से लेकर डेरा चलाने वालों तक से बात करके इन तमाम सवालों के जवाब ढूंढ़ने की कोशिश की ताकि एक मुकम्मल तस्वीर निकल कर सामने आ सके.
पंजाब हो या हरियाणा, आपको कदम-कदम पर डेरों के निशान मिल जाएंगे. इन डेरों की संख्या आपको चौंकाएगी. कुछ जानकार इस आंकड़े को 7 हजार के पार बताते हैं. अगर इस संख्या में आप पूरे उत्तर भारत में फैले तमाम छोटे-बड़े आश्रम जोड़ लें तो ये तादाद ढाई लाख के आसपास ठहरती है. लेकिन, फिलहाल हमारा फोकस पंजाब और हरियाणा की धरती है.
चंडीगढ़ से आगे निकलते ही हाइवे के किनारे ऐसे डेरों का सिलसिला शुरू हो जाता है. सबसे पहले समझते हैं कि इस क्षेत्र में कौन से डेरे प्रमुख हैं और उनके बनने की कहानी क्या है?
सबसे पहले बात उसी डेरे से शुरू की जाए जो फिलहाल चर्चा के केंद्र में है. 1948 में शाह मस्ताना महाराज ने डेरा सच्चा सौदा की स्थापना की. 1960 में इसे संभाला शाह सतनाम महाराज ने और 1990 में गद्दी पर बैठा राम रहीम. सिरसा में बसे मुख्य डेरे के अलावा अकेले इसी शहर के आसपास सच्चा सौदा के 10 से 12 डेरे हैं. कुरुक्षेत्र, कैथल, हिसार, अंबाला, फतेहाबाद, जींद, करनाल जैसे शहरों में डेरा का खासा असर माना जाता है. हरियाणा के अलावा पंजाब के मालवा क्षेत्र में भी डेरा सक्रिय है. इसमें मोगा, बठिंडा, पटियाला और लुधियाना जैसे शहर शामिल हैं.
डेरा प्रमुख राम रहीम, देश के उन चुनिंदा धार्मिक नेताओं में होगा, जो कम से कम धर्मगुरू तो कहीं से नहीं लगता. रंगीन कपड़े, रंगीन मिजाज, रंगीन जिंदगी और रंगीन दुनिया. जिसमें सिनेमा, संगीत, स्पोर्ट्स, चकाचौंध सबके लिए जगह है. लेकिन, इस सबसे डेरा प्रेमियों को फर्क क्यों नहीं पड़ता? उन्हें कोई ऐतराज क्यों नहीं? इसकी पड़ताल आगे करेंगे.
जालंधर के गांव बल्लन के पास बसा है डेरा सचखंड बल्लन. इसे डेरा रविदासिया दा नाम से भी जाना जाता है. 15वीं सदी में हुए संत रविदास, भक्ति आंदोलन के अगुवाओं में से एक माने जाते हैं. छुआछूत के खिलाफ, अपनी रचनाओं से अलख जगाने वाले भी. उन्हीं के जीवन-दर्शन को आगे बढ़ाने का दावा करता है ये डेरा. जहां भेदभाव भुलाकर साथ आने की बात कही जाती है. डेरे के सिख अनुयायी भी अब खुद को ‘रविदासिया’ कहलाना पसंद करते हैं, इस बिनाह पर कि उनका तो धर्म ही अलग है. हालांकि, डेरे पर दाग भी है. बल्लन 2009 में चर्चा में आया जब डेरा के संत रामानंद को ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना में 6 लोगों ने हमला कर मार दिया था. वहीं गुरु संत निरंजन दास हमले में घायल हो गए. इसके ठीक बाद पंजाब में आगजनी की दसियों घटनाएं हुईं. जिसमें कुछ लोगों की जान भी गई.
हालांकि, दिव्य ज्योति के प्रवक्ता इसके लिए डेरा शब्द इस्तेमाल करने से इनकार करते हैं. उनके मुताबिक ये संस्थान एक आश्रम की तरह चलता है. लेकिन, इसकी कहानी भी खासी दिलचस्प है. संस्थान की वेबसाइट के मुताबिक 1983 में जब पंजाब आतंकवाद से जूझ रहा था, आशुतोष महाराज ने संस्थान की नींव रखी और ब्रह्मज्ञान के जरिए लोगों को जागृत किया. मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो आशुतोष महाराज का असली नाम महेश कुमार झा है और वो बिहार से पंजाब आकर बसे. बीते करीब साढ़े तीन साल से आशुतोष महाराज का शव डीप फ्रीजर में रखा है जिसे भक्त गहरी समाधि मानते हैं. हालांकि, तमाम बहस के बाद कोर्ट ने उनके शव को इस तरह रखने की इजाजत देदी है. संस्थान दुनिया भर में अपने साढ़े चार करोड़ अनुयायी होने का दावा करता है.
एक ऐसे वक्त में जब 'डेरा' शब्द का जिक्र होते ही दिमाग में हिंसा और गंदगी की तस्वीर उभरे, कुछ लोग कह सकते हैं कि पंजाब में ब्यास नदी के किनारे, राधास्वामी सत्संग कोई डेरा नहीं. लेकिन सच्चाई ये नहीं है. इस क्षेत्र में शायद सबसे ज्यादा असर रखने वाला कोई है तो वो राधास्वामी ब्यास ही है. 2015 में जब फिल्म स्टार शाहिद कपूर और मीरा राजपूत की शादी की खबर आई तो पता लगा कि दोनों परिवारों का मिलना राधास्वामी ब्यास के जरिए ही संभव हो पाया. चलिए, इसके मायने समझते हैं. पंजाब-हरियाणा के ज्यादातर डेरों के उलट राधास्वामी ब्यास के अनुयायी, बड़े लोग हैं. बड़े यानी रईस, इज्जतदार, रसूख वाले, पढ़े लिखे. और सबसे बड़ी बात, ऊंची जातियों वाले.
राधास्वामी ब्यास की स्थापना 1891 में हुई. अमृतसर से करीब 45 किलोमीटर दूर ब्यास नदी के किनारे बसी इस जगह को डेरा बाबा जयमाल सिंह नाम से भी जाना जाता है क्योंकि बाबा जयमल सिंह ने ही इसकी स्थापना की थी. पंजाब के दोआबा और माझा क्षेत्र में इसका खासा असर है. बचा मालवा का इलाका तो वहां की कहानी आगे. उत्तर भारत के तमाम शहरों में इस मत के पास जमीनों का अच्छा खासा बैंक है. अभी के सत्संग प्रमुख गुरिंदर सिंह ढिल्लन, सनावर के नामी लॉरेंस स्कूल से पढ़े हैं.
वेबसाइट के मुताबिक, एक गुरु के निर्देश में, कोई व्यक्ति ध्यान के जरिए खुद के भीतर ईश्वर को महसूस कर सकता है. वेबसाइट में ये भी लिखा है कि ब्यास के अनयुायी 90 देशों में फैले हैं और शाकाहार को अपनाते हैं.
डेरों के पीछे खड़े होने की सबसे बड़ी वजह छिपी है समाज के भीतर गहरे तक समाए भेदभाव में. जाति इसमें अहम है. पंजाब-हरियाणा के तमाम गुरुद्वारों में मजहबी सिखों या दलितों को वो इज्जत नहीं दी जाती. धार्मिक स्थानों पर जातिसूचक शब्दों के जरिए उन्हें अलग होने का एहसास कराए जाने की भी खूब खबरें सामने आती हैं. ऐसे में सैकड़ों की संख्या में फैले डेरे, दलितों के लिए आत्मसम्मान बचाए रखने और इज्जत से जीने का जरिया बन जाते हैं. फिर चाहे वो सिख समाज में निचले पायदान पर खड़े लोग हों या हिंदुओं में. डेरे में आने पर सब एक हो जाते हैं. क्विंट हिंदी ने सिरसा से कुछ दूर जलालाबाद में ऐसे ही एक डेरा सच्चा सौदा 'प्रेमी' से बात की. उनके मुताबिक,
डेरा के भीतर जो समर्थक एक-दूसरे से जुड़ते हैं, वो खुद में एक समाज बन जाते हैं. जिसमें जाति, धर्म, पंथ गैरजरूरी हो जाता है. इसका फायदा ये होता है कि मुसीबत का वक्त हो या शादी-ब्याह जैसी खुशी का समय, डेरा के समर्थक आपस में एक-दूसरे की जमकर मदद करते हैं. एक ऐसा समाज जो हर कदम पर जातीय भेदभाव के जंजाल में फंसकर छटपटाता हो, उसमें एक-दूसरे का ये संबल इन डेरा अनुयायियों की बड़ी ताकत बन जाता है. एक असरदार डेरे के मैनेजमेंट से जुड़े शख्स ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि डेरे के लोग, कमजोर तबकों की आर्थिक तौर पर भी मदद करते हैं. मदद नकदी के रूप में की जाती है. लोगों से सिर्फ मूलधन चेक के जरिए लौटाने को बोला जाता है. वो भी आराम से, सुविधानुसार. इसके दो फायदे होते हैं. पूरा परिवार डेरे का भक्त बन जाता है और डेरे का काला धन सफेद में बदल जाता है.
कुछ जानकारों के मुताबिक, एक वजह सिख और हिंदू धर्म पद्धतियों का टकराव भी है. आतंकवाद के दौर में आर्य समाजियों के खिलाफ कुछ कट्टरपंथी सिख खुलकर खड़े हुए. बड़े स्तर पर कत्ले-आम भी हुआ. कुछ मायनों में वो दूरी बरकरार रही. इन डेरों के भीतर सिख और हिंदू धर्म पद्धतियों को इस तरह एक बनाकर पेश किया जाता है कि दोनों के ही मानने वालों को यहां आना अच्छा लगता है.
डेरों के बढ़ते राजनीतिक वर्चस्व ने भी बीते कुछ वक्त में लोगों को इनसे जोड़ा है. जब आम लोग बड़े-बड़े नेताओं, मंत्रियों को अपने बाबा के सामने सिर झुकाए देखते हैं तो उनके मन में श्रद्धा कई गुना बढ़ जाती है, साथ ही डेरा से लगाव भी.
डेरों पर तमाम आरोप लगते हैं. कई डेरा प्रमुख जेल तक जा चुके हैं. लेकिन कुछ काम ऐसे हैं जो बड़ी संख्या में लोगों को डेरों से जोड़े रखते हैं. फिर चाहे वो बड़े पैमाने पर नशामुक्ति अभियान हों या रक्तदान शिविर. इसके अलावा इन डेरों में अस्पताल, लंगर और धर्मशालाओं जैसी सुविधाएं भी मौजूद रहती हैं. डेरा अनुयायियों को लगभग मुफ्त में या बहुत कम पैसा खर्च कर ये सारी सुविधाएं मिलती हैं.
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