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GN साईबाबा बिना जुर्म साबित हुए 10 साल कैद में रहे, पांडु नरोटे की जेल में मौत, कौन जिम्मेदार?

GN Saibaba Acquittal: जस्टिस लोकुर का मानना है कि हर्जाने का एक सिस्टम होना चाहिए और कम से कम साईबाबा को डीयू प्रोफेसर के तौर पर बहाल किया जाना चाहिए और उनका वेतन दिया जाना चाहिए.

मेखला सरन
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>जीएन साईंबाबा और पांडु नरोटे को हर्जाना कौन देगा और कैसे?</p></div>
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जीएन साईंबाबा और पांडु नरोटे को हर्जाना कौन देगा और कैसे?

फोटो- क्विंट हिंदी 

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"साई की विचारधारा की वजह से ही उन्हें गिरफ्तार किया गया, सजा दी गई."

एक साल पहले पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा की पत्नी वसंता कुमारी ने द कारवां को दिए गए एक इंटरव्यू में ये बात कही थी. 16 महीने बाद, 5 मार्च 2024 को बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी इस बात से इनकार नहीं किया, बल्कि कोर्ट ने इसपर टिप्पणी भी की है.

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीएन साईबाबा को बरी करते हुए और उनकी रिहाई का आदेश देते हुए अदालत ने कहा, "अभियोजन पक्ष ने किसी भी घटना, हमले, हिंसा के मामले के किसी भी गवाह की तरफ से या यहां तक कि अतीत में हुए किसी अपराध स्थल से इकट्ठा किए गए सबूतों के जरिए ऐसा कोई प्रमाण नहीं दिया, जिससे यह साबित होता है कि आरोपी किसी ऐसे मामले से जुड़ा है."

इसका मतलब यही है कि हाई कोर्ट को ऐसा कोई सबूत नहीं मिला जो साईंबाबा पर लगे आतंकवाद के आरोप को साबित करे, चूंकि उसी के तहत साईंबाबा को दोषी ठहराया गया था. इस तरह अदालत ने पाया कि उनके खिलाफ कोई मामला नहीं बनता. इसके अलावा कुछ और बातें भी निकल कर आईं. 

  • राज्य ने अलग-अलग अनिवार्य प्रावधानों का पालन नहीं किया, जो अपने आप में "न्याय की नाकामयाबी के बराबर है."

  • मुकदमा चलाने की मंजूरी अमान्य थी.

  • सिर्फ "कम्युनिस्ट या नक्सली दर्शन" से जुड़े साहित्य का मिलना, या यहां तक कि इसके प्रति सहानुभूति भी अपराध नहीं मानी जाएगी.

एक आदर्श दुनिया में यह काफी होता. लेकिन जीएन साईबाबा का मामला आदर्श से कोसों दूर है. असल में जिस तरह से यह मामला सामने आया है, उसने हमारे देश की कानून व्यवस्था को दागदार बना दिया है. यह ऐसा मामला है जिसमें न्याय तंत्र, उसके सभी संस्थान करीब करीब ध्वस्त होते हुए दिखते हैं.

यह ऐसा मामला है, जो सिर्फ एक ही सवाल खड़ा करता है कि एक विकलांग, बीमार, व्हीलचेयर से बंधे प्रोफेसर को 10 सालों तक जेल में कौन रखता है, जबकि उनके खिलाफ सबूत कुछ भी साबित नहीं करते?

वसंता का कहना है कि उनके पति को पोलियो है, जिसकी वजह से उनकी कमर के नीचे की मांसपेशियों का विकास नहीं हुआ. वह दिल के मरीज भी हैं और उनके मस्तिष्क में गांठ है.

अब तक की कहानी

साईबाबा को 2014 में गिरफ्तार किया गया था और फिर माओवाद से जुड़े एक कथित मामले में यूएपीए (जिसकी वजह से जमानत लगभग नामुमकिन हो जाती है) के तहत उन्हें आतंकवाद के अपराध का दोषी ठहराया गया था. अक्टूबर 2022 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने पर्याप्त, कानूनी मंजूरी के अभाव का हवाला देते हुए उनकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया था. हालांकि, साईबाबा जेल से बाहर कदम रख पाते, इससे पहले ही शनिवार के दिन सुप्रीम कोर्ट ने एक सुनवाई में हाई कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया था.

फिर अप्रैल 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को फिर से बॉम्बे हाई कोर्ट भेजा और आदेश दिया कि अपील की सुनवाई एक दूसरी बेंच करेगी. दूसरी बेंच को भी इस बात की कोई वजह नजर नहीं आई कि साईबाबा को रिहा क्यों न किया जाए, जिसने साईबाबा के खिलाफ अभियोजन पक्ष का मामला ही खत्म कर दिया.

लेकिन जैसे ही हाई कोर्ट ने आदेश दिया, राज्य ने इस फैसले के खिलाफ एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की. अगर आपको साईबाबा की कहानी लंबी और घुमावदार लग रही हो तो उनके सह-अभियुक्तों की कहानी तो और भी डरावनी महसूस होगी.

पांडु नरोटे के लिए बरी होने का क्या मतलब है?

बेशक बॉम्बे हाई कोर्ट ने साईबाबा के सभी पांच सह-आरोपियों को बरी कर दिया है, लेकिन उनमें से एक कभी अपने घर वापस नहीं जा पाएगा. गढ़चिरौली (महाराष्ट्र) की एक अनुसूचित जनजाति के इस खेतिहर मजदूर का नाम पांडु नरोटे है.

इसकी वजह यह है कि पांडु नरोटे को जेल में स्वाइन फ्लू हो गया था और अगस्त 2022 में कैद में ही उनकी मौत हो गई थी.  

उस समय उनकी उम्र 33 साल थी. 2013 से जेल में बंद होने की वजह से वह कभी अपनी पत्नी, और बेटी से मिल नहीं पाए. कैद के दौरान नरोटे के साथ हुई त्रासदी रोंगटे खड़े कर देती है. ऐसे में वही सवाल खड़ा होता है कि ऐसा लंबित आदेश, ऐसी दोष मुक्ति, उनके लिए आखिर किस काम की है? 

इसी से हमें फादर स्टेन स्वामी की मौत याद आती है. वह भीमा कोरेगांव मामले के अंडरट्रायल कैदी थे. स्टेन स्वामी एक पादरी थे. उनकी उम्र 84 साल थी और वह पार्किन्सन के मरीज थे. जेल में उनकी सेहत बिगड़ गई थी. लेकिन फिर भी उनकी जमानत की याचिकाएं खारिज कर दी गई थीं. अपनी मौत से कुछ हफ्ते पहले स्टेन स्वामी ने बॉम्बे हाई कोर्ट से कहा था कि वह सिर्फ घर जाना चाहते हैं.

"अदालतों को जमानत देने में उदारता दिखानी चाहिए. उन्हें विकलांगता, बीमारी, विचाराधीन कैदियों और उनके परिवारों के सदमे पर विचार करना चाहिए और एक सहानुभूतिपूर्ण नजरिया अपनाना चाहिए. स्टेन स्वामी 84 साल के थे और जेल में उनकी मृत्यु हो गई. साईबाबा 90 प्रतिशत से ज्यादा विकलांग हैं. इन बातों पर विचार क्यों नहीं किया जाता?"
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन लोकुर

जेलों में बंद लोगों की बदतर हालतों पर जस्टिस लोकुर ने कहा है, "मुझे ऐसा लगता है कि अदालतों में दया भाव बची ही नहीं है."

उन्होंने कहा कि दिल्ली के पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की बीबी बीमार हैं और अदालत ने उन्हें हफ्ते में एक बार अपनी बीवी से मिलने की इजाजत दी है. जस्टिस लोकुर कहते हैं, "अदालत का कहना है कि उन्हें अपनी बीवी के साथ रहने की ज़रूरत है. फिर उन्हें जमानत क्यों नहीं दी गई? उनके भागने का कोई सवाल ही नहीं है."

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क्या कोई हर्जाना दिया जाना चाहिए?

जीएन साईबाबा को बरी करने के आदेश के बाद कई लोगों ने सवाल उठाया कि साईबाबा और दूसरे लोगों ने लंबे समय तक जेल में रहने का खामियाजा भी भुगता है. उन्हें जो सदमा लगा, नुकसान उठाना पड़ा, उसकी किसी न किसी तरह से भरपाई की जानी चाहिए. वैसे भारतीय कानून में हर्जाना अपने आप में कोई अनोखी बात नहीं है. 

1983 (रुदुल साह बनाम बिहार राज्य) में एक व्यक्ति को बरी होने के बाद 14 साल तक जेल में रहने की वजह से 30,000 रुपए का हर्जाना दिया गया था. इसके अलावा सेबेस्टियन एम. होंग्रे बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1984) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उन दो लोगों की परिजनों को एक लाख रुपए का हर्जाना देने का आदेश दिया था जिन्हें सेना ने हिरासत में लिया था और उसके बाद से वे लापता थे. 1993 में (नीलाबती बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य) एक महिला को अपने बेटे की पुलिस हिरासत में मौत के बाद 1,50,000 रुपए का हर्जाना दिया गया था.

जस्टिस लोकुर ने अपने एक भाषण में इन मामलों का जिक्र किया था. इस भाषण को द वायर ने 2021 में अपने वेबसाइट पर जगह दी थी. जस्टिस लोकुर इन मामलों को फिर से दोहराया और कहा, "1993 में नीलाबती बेहरा मामले के बाद से मानवाधिकार उल्लंघन पर हर्जाना देने का सिद्धांत करीब-करीब खत्म हो गया. अब इसकी वजह क्या थी, शायद इसलिए चूंकि ये अवैध गिरफ्तारियां नहीं हुईं, या कोई और वजह हो, मुझे इसकी जानकारी नहीं है."

यह पूछे जाने पर कि क्या जीएन साईबाबा के मामले में भी हर्जाने की जरूरत है, जस्टिस लोकुर ने इस रिपोर्टर से कहा, "जीएन साईबाबा को पहली बार अक्टूबर 2022 में हाई कोर्ट ने बरी कर दिया था. इस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत रोक लगा दी थी और बाद में मामला हाई कोर्ट को भेज दिया गया था. अब करीब एक साल बाद उन्हें बरी कर दिया गया है. वह इस मामले में हर्जाने के हकदार हैं क्योंकि उन्हें सालों तक कैद में रहना पड़ा, जबकि इससे बचा जा सकता था."

जस्टिस लोकुर का मानना है कि हर्जाने का एक सिस्टम होना चाहिए और कम से कम साईबाबा को डीयू प्रोफेसर के तौर पर बहाल किया जाना चाहिए और उनका वेतन दिया जाना चाहिए.

जस्टिस लोकर कहते हैं, "लेकिन एक और गंभीर समस्या है. ऐसे मामलों में फैसला आने में सालों लगते हैं."

"इसका मतलब यह है कि निर्दोष लोग भी कई साल तक जेल में रहने को मजबूर होते हैं, जब तक कि अदालत अंततः यह निर्णय नहीं ले लेती कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है. चूंकि ऐसे बहुत सारे मामले हैं, इसलिए राज्य के लिए सभी को हर्जाना देना बहुत मुश्किल हो जाएगा. ऐसे में यह अहम है कि मुकदमे में तेजी लाई जानी चाहिए या जमानत दी जानी चाहिए."
मदन बी लोकुर, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश

आजादी की कीमत

इस बीच यह कहना भी जरूरी है कि जबकि बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश ने साईबाबा की रिहाई का रास्ता साफ किया है लेकिन अभी वह पूरी तरह से आजाद नहीं हैं.

हर्जाने की बात तो दूर साईबाबा और उनके सह आरोपियों (जो जिंदा हैं) को असल में जमानत के साथ 50,000 रुपए का बॉन्ड भरने के लिए कहा गया है. अदालत का कहना है कि यह CRPC की धारा 437-ए के मुताबिक है. इस धारा के तहत बॉन्ड और जमानत छह महीने की तक वैध रहते हैं.

लेकिन कानूनी विशेषज्ञों के हिसाब से क्या यह निर्देश सही है?

जस्टिस लोकुर के मुताबिक, "धारा 437-ए के तहत साईबाबा और अन्य को 50,000 रुपए का मुचलका भरने का आदेश देना गलत है."

उनका ऐसा कहना इसलिए है क्योंकि हाई कोर्ट मानता है कि सुप्रीम कोर्ट उच्च अदालतों के लिए एक अपीलीय अदालत है. लेकिन, वह कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट 437-ए के प्रयोजनों के लिए अपीलीय अदालत नहीं है. यह प्रावधान मजिस्ट्रेट से जिला जज या जिला जज से हाई कोर्ट तक अपील की स्थिति में लागू होता है."

कितना हर्जाना काफी होगा?

जमानत, अपील और हर्जाने के कानूनी बवंडर को देखते हुए, कुछ मानवीय सवाल फिर से खड़े होते हैं. यह बात अलग है कि उनका जवाब देना बहुत मुश्किल है.

जिनकी जिंदगी ही खत्म हो गई, उसकी क्या है कीमत? जीएन साईबाबा की जिंदगी के दस सालों की एवज में कितनी रकम काफी होगी? जब वह पढ़ा सकते थे, भले चंगे हो सकते थे, और वसंता के साथ सुखद पल बिता सकते थे. पांडु नरोटे के परिवार को जो खालीपन नसीब हुआ, उसे भरने के लिए कितनी रकम काफी होगी? क्या कोई हर्जाना कभी भी काफी हो सकता है?

स्टेन स्वामी की मौत के दो साल बाद उनके दोस्त फादर जोसफ जेवियर ने कहा था: "उनके साथ जो हुआ, दूसरों के साथ नहीं होना चाहिए."

हमें उनके बारे में सोचना चाहिए जिन्हें अब भी बचाया जा सकता है. जिन्हें अब भी बचाया जाना चाहिए. जो अब भी नाइंसाफी की कठोर सलाखों के पीछे कैद हैं, उन्हें आजादी दिलाई जानी चाहिए. 

2019 में एक कविता में साईंबाबा ने अपनी कोठरी की चारदीवारी से पूछा था:

कबीर कहते हैं वह लोगों के लिए प्रेमदूत हैं, तुम मेरे रास्तों से इतना डरते क्यों हो?

(जीएन साईबाबा के साथ बरी किए गए अन्य पांच लोग हैं पांडु नरोटे, प्रशांत राही, महेश टिर्की, हेम मिश्रा और विजय टिर्की) (द कैरावान, वायर, स्क्रॉल और लाइवलॉ के इनपुट्स के साथ.)

(मेखला सरन सोआस, लंदन विश्वविद्यालय में ग्लोबल मीडिया और डिजिटल कम्युनिकेशंस की पढ़ाई कर रही हैं. वह पहले द क्विंट में प्रिंसिपल कॉरस्पांडेंड-लीगल थीं. उनका एक्स हैंडल @mekhala_saran है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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