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चुनाव आयोग (Election Commision) ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि चुनाव से पहले या बाद में मुफ्त उपहार देना एक राजनीतिक दल का नीतिगत फैसला है और वह राज्य की नीतियों और पार्टियों द्वारा लिए गए फैसलों को नियंत्रित नहीं कर सकता. आयोग ने एक हलफनामे में कहा,
चुनाव आयोग राज्य की नीतियों और निर्णयों को विनियमित नहीं कर सकता है जो जीतने वाली पार्टी द्वारा सरकार बनाते समय लिए जा सकते हैं. कानून में प्रावधानों को सक्षम किए बिना इस तरह की कार्रवाई, शक्तियों का अतिरेक होगा।"
चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया कि उसके पास तीन आधारों को छोड़कर किसी राजनीतिक दल का पंजीकरण रद्द करने की शक्ति नहीं है, जिसे शीर्ष अदालत ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बनाम समाज कल्याण संस्थान और अन्य (2002) के मामले में रेखांकित किया था.
ये आधार हैं - धोखाधड़ी और जालसाजी पर प्राप्त पंजीकरण, पार्टी की संविधान के प्रति आस्था, निष्ठा समाप्त होना और कोई अन्य समान आधार.
चुनाव आयोग ने कहा कि उसने कानून मंत्रालय को एक राजनीतिक दल का पंजीकरण रद्द करने और राजनीतिक दलों के पंजीकरण और पंजीकरण को विनियमित करने के लिए आवश्यक आदेश जारी करने की शक्ति का प्रयोग करने में सक्षम बनाने के लिए भी सिफारिशें की हैं.
हलफनामे में आगे कहा गया है :
चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया ने अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर एक जनहित याचिका के जवाब में हलफनामा दायर किया. जनहित याचिका में दावा किया गया है कि चुनाव से पहले सार्वजनिक धन से तर्कहीन मुफ्त का वादा या वितरण एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जड़ों को हिलाता है और चुनाव प्रक्रिया की शुद्धता को खराब करता है.
(इनपुट IANS से)
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