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क्या इलेक्टोरल बॉन्ड से चुनाव में भ्रष्टाचार कम होगा? वही इलेक्टोरल बॉन्ड जो मोदी सरकार ने दो साल पहले लाने का फैसला किया कि इससे चुनावी भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी. पॉलिटिकल फंडिंग में पारदर्शिता आएगी. भ्रष्टाचार को लेकर तो आप जानते हैं मोदी जी कितने प्रो-एक्टिव रहे. लोकपाल नियुक्त करने में पांच साल लगा दिए. वो तो शुक्र मनाइए कि सुप्रीम कोर्ट ने सिर पर सवार होकर, मोदी सरकार को एक डेडलाइन देकर लोकपाल की नियुक्ति करा ली, वरना क्या पता कि एक निर्जीव सैटेलाइट की तरह भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए बनी वो संस्था भी लो अर्थ ऑर्बिट में विचरती रहती.
ये एक प्रकार के प्रोमिसरी नोट हैं, यानी ये धारक को उतना पैसा देने का वादा करते हैं. ये बॉन्ड सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक पार्टियां ही भुना सकती हैं. ये बॉन्ड आप एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ की राशि में ही खरीद सकते हैं. ये इलेक्टोरल बॉन्ड आप स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की चुनिंदा शाखाओं से ही ले सकते हैं. ये बॉन्ड आप अकेले, समूह में, कंपनी या फर्म या हिंदू अनडिवाडेड फैमिली के नाम पर खरीद सकते हैं.
ये बॉन्ड आप किसी भी राजनीतिक पार्टी को दे सकते हैं और खरीदने के 15 दिनों के अंदर उस राजनीतिक पार्टी को उस बॉन्ड को भुनाना जरूरी होगा, वरना वो पैसा प्रधानमंत्री राहत कोष में चला जाएगा. चुनाव आयोग द्वारा रजिस्टर्ड पार्टियां जिन्होंने पिछले चुनाव में कम से कम एक फीसदी वोट हासिल किया है, वो ही इन इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा लेने की हकदार होंगी. चुनाव आयोग ऐसी पार्टियों को एक वेरिफाइड अकाउंट खुलवाएगी और इसी के जरिए इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे जा सकेंगे.
यहां पर पहले थोड़ा विस्तार से ये बताना जरूरी है कि चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के सामने अपने एफिडेविट में क्या कहा. चुनाव आयोग ने कहा- सरकार ने पिछले सालों में जो दो वित्तीय कानूनों के तहत महत्वपूर्ण कानूनों में संशोधन किए हैं, वो दरअसल चुनावी भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के बजाय पारदर्शिता पर ही लगाम हैं.
आयोग ने कहा कि इन संशोधनों से शेल कंपनियों के जरिए राजनीतिक पार्टियों के पास बेरोकटोक विदेशी कंपनियों का धन पहुंचेगा. सरकार ने 2010 के FCRA कानून में भी संशोधन किया कि वो विदेशी कंपनियां अब चंदा दे सकेंगी जिनका भारतीय कंपनियों में Majority Stake है. चुनाव आयोग ने अपने एफिडेविट में कहा है कि इससे भारतीय नीतियों पर विदेशी कंपनियों का प्रभाव बढ़ेगा.
RP Act में जो संशोधन जो हुआ है उससे ये होगा कि इलेक्टोरल बॉन्ड से राजनीतिक पार्टियों को जो फंड मिलता है उसका हिसाब किताब चुनाव आयोग को देने की जरूरत नहीं होगी. चुनाव आयोग का मानना है कि आयोग को ये कैसे पता चलेगा कि पैसा जायज तरीके से अगर आया तो वो सरकारी कंपनियों से आया या विदेशी सोर्सेज के हवाले से, क्योंकि RP एक्ट के section 29B के तहत राजनीतिक पार्टियां सरकारी कंपनियों से चंदा नहीं ले सकती.
पॉलिटिकल फंडिंग के तरीके में तीन अहम फेरबदल किए मोदी सरकार ने. एक, अब राजनीतिक पार्टियां विदेशी फंड भी चंदे में ले सकती हैं.
क्योंकि सिर्फ बॉन्ड देने वाले को ही पता होगी किस राजनीतिक पार्टी को उसने इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा दिया. कंपनियों से नहीं पूछा जायेगा कि चंदा किस राजनीतिक पार्टी को गया. राजनीतिक पार्टियों को इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले पैसे का ब्योरा चुनाव आयोग को बताना होगा, लेकिन ये पैसा कहां से आया ये बताना जरूरी नहीं होगा.
चुनाव आयोग ने सरकार को मई 2017 में भी एक पत्र लिखकर अपनी आशंका जताई थी, लेकिन सरकार ने इन आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी एडीआर ने पीआईएल दाखिल की है.
राजनीतिक पार्टी सीपीएम ने भी पिटीशन दायर की है जिसपर सुनवाई के तहत ही चुनाव आयोग और सरकार अब कोर्ट में आमने सामने हैं. इस पिटीशन में कहा गया है कि इलेकटोरल बॉन्ड के लिए सरकार ने जो महत्वपूर्ण कानूनों में संशोधन किए हैं, वो संविधानिक अधिकारों पर अतिक्रमण है और लोकतांत्रिक संस्थानों की स्वायत्ता पर भी हमला है.
तो इलेक्टोरल बॉन्ड का सबसे ज्यादा फायदा किस पार्टी को होगा. साफ है सत्ताधारी पार्टी को. इकनॉमिक टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के हवाले से एक आंकड़े के मुताबिक, पिछले साल मार्च तक सबसे ज्यादा डोनेशन किस राजनीतीक पार्टी को मिला.
222 करोड़ के जो इलेक्टोरल बॉड खरीदे गए उनसे में 210 करोड़ बीजेपी के खाते में चंदे के रूप में गए. पिछले नवंबर तक लगभग 1100 करोड़ के इलेटोरल बॉन्ड खरीदे गए. आप खुद अंदाजा लगा लें कि सबसे ज्यादा चंदा किस पार्टी को मिला होगा.
है न कमाल की स्कीम. हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखे का चोखा. लगे की भष्टाचार पर बम मारा है. पास से देखो तो पता चला सुतली बम था. और रिजल्ट. इसका जवाब तो खुद चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में दिया है कि चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता के लिहाज से ये एक रेट्रोगेड कदम है.
हकीकत तो यही है कि चुनाव लड़ने के लिए किसी भी राजनीतिक पार्टी को फंड यानी चंदे की जरूरत पड़ती है. राजनीतिक पार्टियां वैसे तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज मुखर करती रहती हैं, मगर अपनी पार्टी फंडिंग के ऑडिट की पुरजोर मुखालफत करती हैं.
तो कैसे मान लें कि ये पार्टियां चुनाव सुधार को लेकर सीरियस हैं. इलेक्टोरल बॉन्ड भी एक आवरण है जिसके पीछे चुनावी सुधार नहीं, पॉलिटिकल फंडिंग के नायाब तरीके हैं, जिसे कोई सैटेलाइट न पकड़ पाए.
कुल मिलाकर ये कि इलेक्टोरल बॉन्ड से भ्रष्टाचार के दूसरे आयाम और रास्ते खुलने की आशंका बढ़ गई है. पारदर्शिता के ठीक उलट अब तो इसे पर्दों की कई तहों में ढक दिया गया है. न काला धन पकड़ा जाएगा न काले धन को यूं चुनाव में झोंकने वाले वो लोग.
( प्रभात शुंगलू सीनियर जर्नलिस्ट हैं और अपना YouTube चैनल The NewsBaaz चलाते हैं. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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