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मार्च,बात,हिंसा,पंचायत- कहां से चला,किस मोड़ पर खड़ा किसान आंदोलन?

कमजोर पड़ने के बाद भी कैसे दोबारा उठ खड़ा हुआ किसान आंदोलन, महापंचायतों का किसे मिल रहा फायदा?

मुकेश बौड़ाई
भारत
Published:
कमजोर पड़ने के बाद भी कैसे दोबारा उठ खड़ा हुआ किसान आंदोलन, महापंचायतों का किसे मिल रहा फायदा?
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कमजोर पड़ने के बाद भी कैसे दोबारा उठ खड़ा हुआ किसान आंदोलन, महापंचायतों का किसे मिल रहा फायदा?
(फोटो: AlteredByQuint)

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कृषि कानूनों का संसद में आहट के बाद से ही इन्हें लेकर विवाद शुरू हो चुका था. जिसके बाद आज इन विवादित कानूनों के खिलाफ किसानों का एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो चुका है. जिसकी चर्चा सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि अब दुनियाभर में हो रही है. पिछले तीन महीनों से दिल्ली की सीमाओं पर हजारों किसान डेरा डाले हुए हैं, इस दौरान कड़कड़ाती ठंड, बारिश और पुलिस के डंडों से किसानों का सामना हुआ. लेकिन फिर भी किसानों का ये आंदोलन टस से मस नहीं हुआ. इन तीन महीनों में क्या कुछ हुआ और अब किसान आंदोलन किस मोड़ पर खड़ा है, आइए जानते हैं.

कैसे गांव-कस्बों से शुरू हुआ किसान आंदोलन

सबसे पहले आपको किसान आंदोलन का एक छोटा रीकैप बताते हैं. संसद से कृषि बिल पास होने के बाद से ही पंजाब, हरियाणा और यूपी के कुछ इलाकों में विरोध शुरू हो गया. गांवों और कस्बों में बैठकें हुईं और 26 नवंबर को दिल्ली चलो आंदोलन बुलाया गया. हरियाणा दिल्ली और यूपी के बॉर्डर पर पुलिस और किसानों के बीच झड़प हुई. आंसू गैस, पानी की बैछारें और लाठीचार्ज भी हुआ, इस घटना के बाद केंद्र सरकार की जमकर आलोचना हुई. कहा गया कि अन्नदाता को राजधानी में आने का अधिकार नहीं दिया जा रहा, दबाव के बाद आखिरकार 28 नवंबर को बुराड़ी के निरंकारी मैदान में आंदोलन की इजाजत मिली. लेकिन किसानों ने बॉर्डर पर ही बैठकर प्रदर्शन शुरू कर दिया. सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर को प्रदर्शन स्थल बना दिया गया.

पिछले तीन महीने में क्या-क्या हुआ?

सरकार और किसानों के बीच लगातार जारी बातचीत में दोनों अड़े रहे, सरकार ने कहा कि कृषि कानूनों को रद्द नहीं कर सकते हैं, तो वहीं किसान तीनों कानूनों को रद्द करने की मांग से पीछे नहीं हटे. इसी बीच सरकार पर दबाव बनाने के लिए किसान संगठनों ने 26 जनवरी को होने वाली गणतंत्र दिवस परेड के जैसे ही अपनी ट्रैक्टर परेड निकालने का ऐलान किया. 6 जनवरी को इसकी एक झलक भी दिखाई गई, जिसे 26 जनवरी का ट्रेलर कहा गया.

लेकिन जब 26 जनवरी को पुलिस से कई दौर की बातचीत के बाद रूट तय हुआ तो कई प्रदर्शनकारी रूट बदलकर लाल किले की तरफ चल पड़े. इनके पीछे ट्रैक्टरों की भीड़ भी चल पड़ी और लाल किले में घुस गई. पुलिस और सुरक्षाबलों पर हमला हुआ और जमकर हिंसा हुई.

आंदोलन खत्म करने की नाकाम कोशिश

अब आंदोलन को लेकर पहले से ही एक धारणा बनाई जा रही थी, सरकार समर्थक कुछ लोग लगातार आंदोलन को एंटी नेशनल या फिर खालिस्तानी करार दे रहे थे. हालांकि बात कुछ जम नहीं रही थी, यानी ये पैंतरा काम नहीं कर रहा था. लेकिन हिंसा होने के बाद ऐसे तमाम लोगों और खुद सरकार को बड़ा मौका मिल गया.

बीजेपी के तमाम बड़े मंत्री और मुख्यमंत्री आंदोलनकारियों पर हमलावर हो गए. रातोंरात प्रदर्शन स्थल खाली कराने के आदेश भी जारी हुए. मीडिया चैनल खबरें चलाने लगे कि, गाजीपुर बॉर्डर खाली हो रहा है, सिंघु बॉर्डर से लोग घर जा रहे हैं. हजारों की संख्या में सुरक्षाबल तैनात हो गए. एक पल के लिए लगा कि वाकई में किसान आंदोलन खत्म होने जा रहा है, क्योंकि किसान नेताओं ने भी हिंसा के बाद अपना रुख नरम कर लिया था.

कमजोर पड़े आंदोलन का टर्निंग प्वाइंट

शायद ऐसा हो भी जाता, लेकिन इसी बीच 28 जनवरी को कुछ लोग किसानों के प्रदर्शन स्थल पर पहुंचे और उनसे मारपीट तक करने लगे. पुलिस की मौजूदगी में ये सब हो रहा था. लेकिन आंदोलन का लोहा कमजोर समझकर हथौड़ा मारने चले इन लोगों को क्या पता था कि, उनकी इस हरकत से आंदोलन को एक नई ताकत मिल जाएगी. इस पूरी घटना का आरोप बीजेपी विधायक नंद किशोर गुर्जर और सुनील शर्मा पर लगा, बीकेयू के प्रवक्ता राकेश टिकैत की आंखों में आंसू आए. इन आंसुओं का दर्द पूरे यूपी और हरियाणा के किसानों के दिल पर हुआ, यहीं से किसान महापंचायतों का दौर शुरू हो गया और आंदोलन पहले से दोगुनी ताकत के साथ खड़ा हुआ.

इस बीच विदेशी हस्तियों ने भी किसान आंदोलन के समर्थन में ट्वीट किए, जिनके जवाब में पुलिस ने टूलकिट नाम का एक डॉक्यूमेंट सामने रखा और बताया कि कैसे आंदोलन को पूरी दुनिया में फैलाने की प्लानिंग की गई थी. इस मामले को लेकर अब क्लाइमेट एक्टिविस्ट्स की गिरफ्तारियां भी हो रही हैं. 

संसद में विपक्ष ने उठाया मुद्दा, सरकार पर नहीं पड़ा असर

अब 26 जनवरी की घटना के बाद वो विपक्षी नेता भी खुलकर किसानों के समर्थन में आ गए, जो अभी तक हिचकिचा रहे थे. ऐसा इसलिए क्योंकि खुद किसान संगठनों ने उन्हें मंच देने से साफ इनकार कर दिया था. कांग्रेस पार्टी ने खुलकर किसानों के साथ खड़े होने का ऐलान किया, साथ ही संसद के बजट सत्र में भी ये मुद्दा गूंजता रहा. जहां प्रधानमंत्री ने आंदोलन करने वालों को आंदोलनजीवी और परजीवी कहकर बुलाया, साथ ही विपक्ष के सांसदों को जवाब देते हुए कहा कि इन कानूनों में कोई अनिवार्यता नहीं है, जिसे चाहिए वो ले, जिसे नहीं चाहिए वो पुरानी व्यवस्था पर चल सकता है.

प्रधानमंत्री के अलावा कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने भी संसद में साफ कर दिया कि सरकार के कानूनों में कहीं भी खोट नहीं है. उन्होंने यहां तक कह दिया कि अगर हम कानूनों में संशोधन करने के लिए तैयार हैं, तो इसका मतलब ये नहीं समझा जाना चाहिए कि कानूनों में कुछ भी गलत है. इसी बीच उन्होंने इस पूरे आंदोलन को सिर्फ एक राज्य का आंदोलन करार दिया.
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किसे मिल रहा महापंचायतों का फायदा?

फिर अगर विपक्ष की भूमिका की बात करें, तो विपक्ष अब किसानों के इस मुद्दे को पकड़कर रखना चाहता है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी लगातार किसान महापंचायतों को संबोधित कर रहे हैं. उनके अलावा आरएलडी के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी भी किसान महापंचायतों में हिस्सा ले रहे हैं. जिनमें हजारों की संख्या में किसान आ रहे हैं. वहीं राजस्थान में कांग्रेस की तरफ से सचिन पायलट ने मोर्चा संभाला है. बताया जा रहा है कि कांग्रेस को किसानों के साथ खड़े रहने का फायदा उत्तर प्रदेश और प्रदर्शन करने वाले अन्य राज्यों में भी मिल सकता है. वहीं आरएलडी को भी यूपी में अपना वोट बैंक फिर से हासिल करने में मदद मिल सकती है.

किसानों के फायदे की अगर बात करें तो, सरकार पूरी तरह से अपने कानूनों के साथ खड़ी है, वहीं मीडिया का एक बड़ा तबका भी किसानों को तवज्जो नहीं दे रहा है. ऐसे में विपक्षी नेताओं का समर्थन कहीं न कहीं किसानों के लिए एक फायदे का सौदा है. विपक्ष के बड़े नेताओं की किसान सभाओं को नेशनल मीडिया भी पूरी तरह नजरअंदाज नहीं कर पा रहा, वहीं सरकार पर भी एक तरह का दबाव बन रहा है.

किसान आंदोलन का चुनावों पर कितना असर?

अब आपने देखा कि कैसे सरकार और खुद प्रधानमंत्री मोदी कानूनों को लेकर अपना रुख साफ कर चुके हैं कि किसी भी हाल में इन्हें वापस नहीं लिया जा सकता है. तो अब किसानों के सामने सरकार पर दबाव बनाने के लिए सिर्फ एक ही तरीका है, वो है चुनाव. अगर किसान आंदोलन का चुनावों पर असर पड़ता है, तो ऐसे में मुंह फेरकर खड़ी बीजेपी सरकार को पलटकर किसानों की ओर फिर देखना होगा.

किसान आंदोलन के बीच हाल ही में पंजाब में निकाय चुनाव हुए. जिनमें बीजेपी का सूपड़ा साफ हो गया. वहीं कांग्रेस ने नगर निगम की सातों सीट जीतकर क्लीन स्वीप की. इन नतीजों को सीधे किसान आंदोलन के साथ जोड़कर देखा गया और कहा गया कि अब आने वाले चुनावों पर भी असर पड़ेगा.

लेकिन बीजेपी के तमाम नेता और खुद कृषि मंत्री बचाव में आए और कहा कि इसे किसान आंदोलन के साथ नहीं जोड़ना चाहिए, पार्टी पहले भी पंजाब में कमजोर थी और इस बार अकाली दल के बिना चुनावी मैदान में उतरी थी, इसीलिए नतीजे ऐसे रहे.

बंगाल समेत पांच राज्यों में चुनाव, BJP के लिए बड़ी चुनौती

अब ये तो लोकल चुनाव था, लेकिन इसके बाद लगातार पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. जिनमें से सबसे बड़ा और अहम राज्य पश्चिम बंगाल है. इसे लेकर बीकेयू नेता राकेश टिकैत ने कहा है कि अब पश्चिम बंगाल में भी किसान महापंचायत होगी. इस बयान के बाद बीजेपी नेता भी अलर्ट मोड पर हैं और जाट नेताओं को साधने की तैयारी शुरू हो चुकी है. क्योंकि पश्चिम बंगाल, जहां बीजेपी ने अपना पूरा लाव लश्कर उतारा है, वहां किसानों का प्रदर्शन पहुंच जाता है तो चुनाव में बीजेपी को बड़ा नुकसान झेलना पड़ सकता है.

सिर्फ बंगाल ही नहीं, किसान नेता सरकार पर दबाव बनाने और चुनावी राज्यों में किसानों को एकजुट करने की तैयारी में जुटे हैं. इसके लिए असम और तमिलनाडु पर भी नजर है. इन राज्यों में भी किसान जनसभाएं और महापंचायतें बुलाने की तैयारी है. कुछ साल पहले तमिलनाडु के किसानों का प्रदर्शन दिल्ली में पूरा देश देख चुका है. ऐसे में अगर एक बार फिर तमिलनाडु के किसानों ने सरकार के खिलाफ आवाज उठाई तो ये बीजेपी के लिए बहुत बड़ा झटका साबित हो सकता है.
ऐसे वीडियो आने शुरू हो गए हैं जिसमें बीजेपी नेताओं को पश्चिमी यूपी में विरोध का सामना करना पड़ रहा है. खुद संजीव बालियन का एक वीडियो आया है, जिसमें शामली में उनके खिलाफ नारे लग रहे हैं.

चुनाव पर पड़ेगा असर तो झुकेगी सरकार

यानी कुल मिलाकर अब बीजेपी के लिए किसान चुनावों में एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आ सकत हैं. ऑल इंडिया किसान संघर्ष कोऑर्डिनेशन कमेटी (AIKSCC) के सदस्य अविक साहा ने क्विंट से बातचीत में बताया था कि,

“ये आंदोलन लगातार चलता रहेगा. किसान आंदोलन जब तक दिल्ली में है, ये पूरे भारत में फैलता जाएगा. अगर फैलता जाएगा और एक दो चुनाव पर इसका असर पड़ेगा तो पीएम सिर झुका लेंगे. पीएम अपने दोस्तों को ऐसे सड़कों पर नहीं छोड़ सकते हैं और किसान अपनी मांगे पूरी होने तक सड़क नहीं छोड़ेगा.”

किसान-सरकार बातचीत पर लगा ब्रेक

अब आखिर में सरकार और किसानों के बीच होने वाली बातचीत को लेकर जानते हैं कि मौजूदा हालात क्या हैं. फिलहाल बातचीत पर ब्रेक लगा है, सरकार के मंत्री मीडिया के जरिए अपनी बात रख रहे हैं, वहीं किसान नेता भी वही रास्ता अपना रहे हैं. दोनों पक्ष बातचीत के लिए तैयार हैं, लेकिन फिलहाल पहल का इंतजार है. खुद पीएम मोदी भी बातचीत का जिक्र कर चुके हैं. वहीं केंद्रीय कृषि मंत्री का भी कहना है कि वो बातचीत के लिए तैयार हैं. एनडीटीवी के साथ बातचीत में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि वो बातचीत के लिए तैयार हैं, लेकिन हवा में नहीं तर्कों के आधार पर बातचीत होनी चाहिए.

यानी सरकार फिर से कानूनों में संशोधनों की बात कर रही है. लेकिन किसानों का साफ कहना है कि एमएसपी को लेकर कानून और कृषि कानूनों को रद्द करने पर ही बात होगी. पिछले 10 दौर की बातचीत में भी यही सब हुआ.

अब अगर आगे बातचीत होती भी है तो कोई बड़ा समाधान निकलने के आसार नहीं नजर आते हैं. क्योंकि दोनों पक्ष अपनी-अपनी बातों पर अड़े हैं और कोई भी कदम पीछे हटाने को तैयार नहीं है. दरअसल ये अब सरकार बनाम किसान की एक लड़ाई बन चुकी है. जिसमें झुकना किसी को भी मंजूर नहीं है.

फिलहाल किसान आंदोलन को लोगों की नजरों में बनाए रखने के लिए कभी रेल रोको आंदोलन तो कभी देशव्यापी बंद का ऐलान किया जा रहा है. आने वाले दिनों के लिए भी किसानों ने अपने कार्यक्रम तय किए हैं. जिसमें पगड़ी संभाल दिवस, दमन विरोधी दिवस, युवा किसान दिवस और मजदूर किसान एकता दिवस जैसे कई कार्यक्रम शामिल हैं.

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