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कृषि कानूनों को लेकर किसानों और सरकार के बीच जारी जंग खत्म होने का नाम नहीं ले रही है. आंदोलन खत्म करने को लेकर सरकार लगभग अपने हर हथकंडे अपना चुकी है, लेकिन फिर भी बात नहीं बनी. जिसके बाद इस पूरी पिक्चर में सुप्रीम कोर्ट की एंट्री हुई है. कानूनों को कुछ वक्त के लिए रोक दिया गया है और कमेटी बना दी गई है. इसके बाद सरकार ने किसानों को कमेटी की बातचीत में शामिल होने को कहा है, वहीं किसानों पर अब दबाव है कि वो इस कमेटी के सामने पेश हों और कानूनों को लेकर बातचीत करें. लेकिन किसान भी हार मानने को तैयार नहीं हैं.
सुप्रीम कोर्ट की कमेटी को किसानों ने सिरे से खारिज कर दिया है और अपना आंदोलन आगे बढ़ाने की बात कही है. 25 नवंबर को दिल्ली चलो आंदोलन से शुरू हुई ये लड़ाई आखिर किस मोड़ पर जाकर खत्म होगी, ये फिलहाल कहा नहीं जा सकता है. लेकिन अब तक की तस्वीर में किसका पलड़ा भारी है और कौन दबाव में है ये साफ देखा जा सकता है.
आंदोलन की आगे की तस्वीर बताने से पहले आपको थोड़ा पीछे लेकर जाते हैं. जब सरकार संसद में कृषि कानूनों को ला रही थी तो इनका विरोध तभी से शुरू हो गया था. लेकिन विरोध की आवाज न तो दिल्ली में बैठे नेताओं के कानों तक पहुंची और न ही मेनस्ट्रीम मीडिया ने इसे दिखाने की जहमत उठाई. इसके बाद संसद से बिल पास हुए, राष्ट्रपति ने भी मुहर लगा दी और ये कानून बन गए. किसानों ने इसके बाद संगठनों को जुटाना शुरू कर दिया, करीब दो महीने तक आंदोलन की तैयारी हुई. जिसके बाद संविधान दिवस के मौके पर दिल्ली के रामलीला मैदान में आंदोलन करने की कॉल दी गई.
अब यहां तक सभी को यही लगा कि किसान सिर्फ एक दिन राजधानी दिल्ली में प्रदर्शन करेंगे और लौट जाएंगे, या फिर दिल्ली की सीमाओं को सील करके उन्हें उल्टे पांव भेज दिया जाएगा. जैसा पिछले तमाम किसान प्रदर्शनों में हम देखते आए हैं. अब 26 नवंबर 2020 का वो दिन आ गया. किसान दिल्ली की ओर कूच करने लगे तो पहले से ही सीमाओं को सील कर दिया गया, कहीं सड़क को खोद दिया गया तो कहीं कंटीली तारें लगाई गईं. पुलिस और किसानों के बीच तीखी झड़प हुई, आंसू गैस के गोले, ठंडे पानी की बौछार और लाठीचार्ज हुआ.
किसानों ने सिंघु बॉर्डर को ही अपना घर बना लिया और ऐलान किया कि जब तक कानून वापसी नहीं हो जाती, तब तक घर वापसी भी नहीं होगी. पहले तो आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ दिया गया, लेकिन यहां ये पैंतरा नहीं चला. फिर सरकार को लगा कि बैठक से ही बात बनेगी. बैठकों का दौर शुरू हुआ और सरकार ने कानून में संशोधन की बात की, लेकिन किसानों ने साफ कहा कि जिन कानूनों में इतनी कमियां हैं उन्हें रद्द किया जाना चाहिए.
डेढ़ महीने में लगातार 8 दौर की बैठकें हुईं, खुद गृहमंत्री अमित शाह ने भी भारत बंद की शाम किसानों को मिलने बुलाया, जिसे किसानों ने भारत बंद की कवरेज से मीडिया का ध्यान भटकाने वाला एक मूव करार दिया. इस बीच और भी काफी चीजें हुईं.
एक तरफ केंद्रीय कृषि मंत्री लगातार कानून विरोधी किसानों से बातचीत और उनकी शर्तों को मानने की बात करते रहे, वहीं दूसरी तरफ ऐसे किसान संगठनों को जुटाया गया, जो केंद्र सरकार के इन कानूनों का समर्थन कर रहे हैं. खुद कृषि मंत्री ऐसे किसान संगठनों के साथ बैठकों की फोटो और उनके समर्थन पत्र रोज शेयर कर रहे हैं. वहीं बीजेपी के तमाम नेता किसान आंदोलन पर शुरू से लेकर अब तक सवाल उठा रहे हैं. जिसमें मीडिया के भी एक बड़े तबगे ने उनका बखूबी साथ दिया. लेकिन आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ने वाले इन्हीं मीडिया चैनलों को बाद में अपनी चैनल आईडी निकालकर किसान आंदोलन को कवर करना पड़ा.
अब सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई सरकार को फटकार लगाने के साथ शुरू हुई. कहा गया कि आप कानूनों को होल्ड पर रखिए नहीं तो हमें रखना होगा. फटकार के साथ कोर्ट ने कमेटी का जिक्र छेड़ दिया. अगले दिन सुप्रीम कोर्ट ने कुछ वक्त के लिए कृषि कानूनों को लागू करने पर रोक लगा दी, लेकिन कमेटी का भी ऐलान कर दिया. जिसमें शामिल चार सदस्यों का ऐलान भी कर दिया गया. इन सदस्यों को लेकर भी विवाद है, जिसकी बात अभी करेंगे, लेकिन पहले जान लेते हैं कि इस फैसले से किसे राहत मिली है और किसकी मुश्किलें अब बढ़ गई हैं.
केंद्र सरकार की पहली बैठक से ही कमेटी की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी. केंद्रीय कृषि मंत्री ने इसका प्रस्ताव भी किसानों के सामने रखा, लेकिन किसानों ने साफ इनकार कर दिया. शुरू से लेकर आखिरी तक कमेटी बनाने की चर्चा रही. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने खुद कमेटी गठित कर दी है. जो कहीं न कहीं सरकार के लिए एक राहत की खबर है. यानी सरकार पर अब तक आंदोलन का जितना दबाव बना था, वो अब रिलीज हो चुका है.
वहीं किसानों ने भले ही सुप्रीम कोर्ट की इस कमेटी को ठुकरा दिया हो, लेकिन अब उनकी मुश्किलें कहीं न कहीं बढ़ रही हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी को 10 दिन के भीतर पहली बैठक करने को कहा है, लेकिन किसान तैयार नहीं हैं. अब अगर किसान इस कमेटी के साथ बातचीत नहीं करते हैं तो उनपर दबाव बनाया जा सकता है. कमेटी गठित होने के ठीक बाद ही ये नैरेटिव चलाया जा रहा है कि किसान अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश का भी पालन नहीं करना चाहते हैं.
अब इसे समझने के लिए किसानों का पक्ष देखना जरूरी है. जब किसानों पर अब एक बार फिर चौथरफा हमला शुरू हो चुका है, तब वो क्या सोच रहे हैं और क्यों उन्हें किसी भी कमेटी से दिक्कत है. दरअसल किसानों ने शुरुआत से ही कमेटी की बात को नकारा है. उनका कहना है कि किसी भी मामले को अगर ठंडे बस्ते में डालना हो तो सरकारें उसके लिए कमेटी गठित कर देती हैं और वो अपने आंदोलन को ऐसे ठंडे बस्ते में नहीं डाल सकते हैं.
इस कमेटी में खेती-किसानी से जुड़े एक्सपर्ट - कृषि वैज्ञानिक अशोक गुलाटी, डॉ. प्रमोद कुमार जोशी, अनिल धनवट और भूपिंदर सिंह मान जैसे नाम शामिल हैं.
अब जैसा कि हमने आपको बताया था कि कमेटी का बनना सरकार के लिए विन-विन सिचुएशन है. अब सरकार की तरफ से भी सीधे किसानों को इस कमेटी में हिस्सा लेने को कहा गया है. 15 जनवरी को होने वाली अगले दौर की बैठक से ठीक पहले ये कहा गया है, यानी इस बैठक का होना फिलहाल मुमकिन नहीं लग रहा. क्योंकि सरकार सीधे यही कहेगी कि जब सुप्रीम कोर्ट बातचीत के लिए कमेटी बना चुका है तो हम फिलहाल चर्चा नहीं कर सकते हैं. वहीं किसानों के पास अब ज्यादा विकल्प नजर नहीं आ रहे हैं.
फिलहाल किसान एक ही बात के सहारे बैठे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आंदोलन का अधिकार नहीं छीन सकते हैं. लेकिन अगर कमेटी में शामिल नहीं हुए तो सुप्रीम कोर्ट का रुख बदल सकता है और आंदोलन को लेकर किसान ही मुश्किल में पड़ सकते हैं. किसानों ने 15 जनवरी को अपना आगे का प्लान तय करने की बात कही है. 26 जनवरी को एक विशाल ट्रैक्टर मार्च बुलाया गया है, जिसे लेकर सरकार भी परेशान नजर आ रही है. सुप्रीम कोर्ट में इस मार्च पर रोक लगाने की याचिका दी गई है. जिस पर सुनवाई होनी है.
तो कुल मिलाकर अब आगे कुछ दिनों तक सरकार की भूमिका दूर से बैठकर देखने की होगी. वहीं किसान को इस जद्दोजहद से जूझना होगा कि वो सुप्रीम कोर्ट की कमेटी को ठुकराने के बाद भी कैसे अपना आंदोलन जारी रख पाते हैं.
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