आपको मिले अंक पर गुल का मंथन : चलो चलें (मगर कहां?)

मेरे पिता मुझे अपने दम पर आगे बढ़ने के लिए मदद करते थे

क्विंट हिंदी
भारत
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(फोटो : हर्ष साहनी द्वारा बदला गया/ द क्विंट)
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(फोटो : हर्ष साहनी द्वारा बदला गया/ द क्विंट)
अपने पैरों पर ‘खड़े होने और स्वतंत्र होने’ का (और सफल होने का) एक मात्र रास्ता क्यों बन गये ‘अच्छे अंक’?

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बात 20 साल से ज्यादा पुरानी है, 1997 चल रहा था. मैं पटियाला के सरकारी महिला कॉलेज में पढ़ रही थी (क्योंकि तब मेरे ब्रिगेडियर पिता की वहीं पोस्टिंग थी). मुझे फर्स्ट ईयर का रिजल्ट अभी-अभी मिला था. मुझे ‘अच्छे अंक’ नहीं मिले थे. बेशक मुझे इसका आभास था. ( ये जितनी कोशिश, उतना पाया के हिसाब से आदर्श और सुंदर नतीजा था.) जिसकी वजह से बात बिगड़ गयी वो ये थी कि मैं ‘अच्छी स्टूडेंट’ के तौर में मशहूर थी जो अपनी पढ़ाई पर बहुत अच्छा कर रही थीं.

जाहिर है पापा नाराज थे क्योंकि वो लगातार मुझे बता रहे थे दबाव बना रहे थे कि पढ़ाई में अच्छा करना जरूरी है ताकि मैं ‘स्वतंत्र और सफल व्यक्ति’ बन सकूं. वे मजाक करते कि अगर मैंने “अच्छा नहीं किया और अपने पैरों पर खड़ी नहीं हुई” तो मेरा भी वही हाल होगा जो देश में ज्यादातर लड़कियों का होता है- शादी.

नतीजे का दिन और वही चिरकालीन सवाल

नतीजे के दिन वो डाइनिंग रूम में आए (किसी चीज पर पहले से अपसेट थे). मेरी मां और मैंने घबराहट में अपनी सांसें रोक लीं कि कहीं वो रिजल्ट के बारे में पूछ ना बैठें. लेकिन जिसका डर था वही हुआ वो गरजे..

अगर आपने पढ़ाई को लेकर कमर नहीं कसी तो मैं आपकी शादी उस नौजवान अफसर से कर दूंगा को सबसे पहले राजी हो जाएगा. “ (वैसे कई लोग थे!)

अधिक दिनों तक ये मजाक नहीं चला. अब ये गंभीर धमकी बन चुकी थी. मैं डरी हुई थी और कई दिनों तक नींद नहीं ले पाती थी. मैं अपनी क्षमता के हिसाब से और अधिक मेहनत कर सकती थी और बेहतर नतीजे पा सकती थी (जैसा कि मैंने बहुत बाद में किया, वास्तव में हाल फिलहाल में मास्टर्स करते हुए, मगर वह एक अलग स्टोरी है). लेकिन मैं ऐसा चाहती नहीं थी. क्यों ‘अपने पैरों पर खड़े होने और स्वतंत्र होने (और सफल होने) के लिए’ अच्छे अंक जरूरी थे?

क्यों? क्यों? क्यों?

यह सवाल 2018 में भी प्रासंगिक है?

सेकंड ईयर में क्लास करते हुए कुछ हफ्ते हो गये थे और मैं उस बकरे की तरह चल रही थी, जो हलाल होने ही वाला हो. जब एक दिन मेरे अर्थशास्त्र के प्रोफेसर ने मुझे (क्लास में मेरी तर्क देने की क्षमता को पहचानते हुए) इंटर कॉलेज डिबेट में अपने कॉलेज का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा. मैं जीत गयी. उसके बाद सार्वजनिक भाषण के कई इवेंट में जीतती चली गयी. मैंने बहुत अच्छा महसूस किया. मेरा आत्मसम्मान जाग गया. अब भी मैं उस सवाल का हल नहीं ढूंढ़ पायी थी कि कैसे मैं ‘स्वतंत्र और अपने पैरों पर खड़ी’ होने जा रही हूं.

मेरा मतलब है कि ‘अच्छे अंक’ पाने के बावजूद मेरे पास विकल्प क्या थे? दिल्ली में कट ऑफ का क्रेज अलग है. किस तरह मैं कभी उनसे स्पर्धा कर पाती, जिन्होंने यही कोर्स जेएमसी से किया हो, जैसे कि मेरे बचपन की मित्र जो अब बेहद सफल बिजनेस और पत्रकार ईरा दुग्गल हैं?

क्या वास्तव में ये अच्छे अंक मुझे आगे ले जा सकते थे? सफलता दिला सकते थे? मेरे अपने शक-शुबहे थे.

मैं सपने देखने की दुस्साहसी थी और यही उन्होंने कहा था

हर नौजवान व्यक्ति की तरह जो आमतौर पर पायलट बनना चाहता है और हर लड़की जो ब्यूटी क्वीन बनना चाहती है, मैंने भी इस बारे में सोचा था. एक पायलट और ब्यूटी क्वीन बनने के लिए किसी को भी ‘अच्छे अंक‘ की जरूरत नहीं, जिसके लिए लोग मरे जा रहे हैं. ( पायलट बनने के लिए किसी को काफी पढ़ना पड़ता है, मैंने ये बाद में जाना. मगर, कम से कम आप वो तो पढ़ रहे हैं जिसमें आप दिलचस्पी रखते हैं.)

मैं जानती थी कि इसमें भारी निवेश होता है क्योंकि

  • पटियाला फ्लाईंग क्लब मेरे घर के ठीक बगल में था.
  • मेरे रिश्ते के भाई वहां उड़ान भरते थे और अब वे जेट एयरवेज के साथ हैं. सफल और अपने पैरों पर खड़े. (इंतजार करें हम पुरुष के बारे में ऐसा नहीं कह रहे.)
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दूसरे विकल्प पर भी कुछ खर्च होते हैं, लेकिन तुलनात्मक रूप में बहुत कम. इसके अलावा मैं एक पायलट के रूप में काम करना नहीं चाहती थी, केवल पायलट बनना चाहती थी. इसलिए उस वक्त ये मुझे कुछ उचित नहीं लगा. मेरे परिवार के पास भी उतने संसाधन नहीं थे कि मैं पायलट जैसी चीज का उल्लेख भी कर पाती. काफी सोच विचारकर मैंने दूसरे का जिक्र किया, ब्यूटी पैजंट . मेरे पिता इस विचार के साथ थे. वास्तव में उन्होंने कहा- क्यों नहीं? उन्होंने मुझे पढ़ाई करते हुए यह भी परखा था कि आखिरकार यह मेरे वश का नहीं है. मैं ईश्वर का धन्यवाद करती हूं कि उन्होंने मेरा साथ दिया.

उन्होंने कहा, “तुम फिट हो.“ (वे मुझे 15 साल की उम्र से बिना किसी वजह के रौज दौड़ते हुए देखा करते थे)

“तुम अच्छा बोलती हो.“ (सार्वजनिक भाषणों में जीतते हुए जो जबरदस्त विश्वास दिखा था उसके हवाले से)

“और तुम जानती हो कि तुम्हे कैसे व्यवहार करना है.“ (सशस्त्र बल के साथ आगे बढ़ने का उदाहरण)

“मुझे लगता है कि तुम्हारे लिए अच्छी संभावना है.”

उन्होंने अपनी सारी बचत मेरे लिए प्रोफेशनल फोटो (मैं अपनी तस्वीरें फैमिली एलबम से निकालकर भेजने की योजना बना रही थी), मेरे लिए कपड़े पसंद करने (मेरे एक गाउन की कीमत 17000 रुपये थी जो उस समय उनके हाथ में मिलने वाली सैलरी से महज 1 हजार कम थी) में लगा दी. और, मेरी मां और मुझे मिशन मिस इंडिया पर झोंक दिया.

मेरी मां बिना देरी किए घर के पीछे दौड़कर चली गयी (और तब मेरा छोटा भाई भी), हम सौन्दर्य प्रतियोगिता की चीजों के बारे में सबकुछ समझने की कोशिश करने लगे.

ग्रेजुएट होना वास्तव में क्या करने के लिए?

क्या होता अगर मेरे माता-पिता ने मेरे प्रयासों का समर्थन नहीं किया होता? क्या मैं अकेले इन अंकों से अपने जीवन में कुछ कर पाने में सफल होती, जिससे मुझे संतोष मिलता? शायद नहीं. उत्तर सम्भवत: किसी विकल्प और समांतर चलने वाले वक्त में छिपा है.

हममें से ज्यादातर लोग हमारा साथ देते हैं जब हम कॉलेज को स्कूल का विस्तार मानते हैं. ऐसा कुछ जो होना था. केवल ठंडे कपड़ों को पहनना छोड़कर या जो हम उस समय सोचा करते थे. आज भी चीजें बहुत अलग नहीं हैं. ग्रेजुएशन एक नया हाई स्कूल है, जिसके बिना एक आदमी ‘शिक्षित’ नहीं माना जाता. उस डिग्री की आवश्यकता पर थोड़ा सोचने की जरूरत है या फिर उन पर, जिन विषयों के अध्ययन की दिलचस्पी है. आश्चर्य नहीं होता है जब देखती हूं कि इतनी बड़ी संख्या में ग्रेजुएट बेरोजगार हैं.

हम उच्च शिक्षा को प्राथमिक शिक्षा, जो एक आवश्यकता है, की तरह देखना छोड़ें. डिग्री से अलग जिंदगी होती है, जिसे कोई आधे-अधूरे मन से करता है और कभी उसका इस्तेमाल नहीं कर पाता. और, ऐसा करते हुए हम अपने उच्च शिक्षा संसाधनों पर बेवजह दबाव बनाते हैं जो पहले से ही दबाव में है.

महत्वपूर्ण ये है कि खुद को हम लेबल के चक्कर से निकालें. केवल ‘अच्छे अंक’ के पीछे भागना निश्चित रूप से हमें गड्ढे में ले जाएगी. डॉक्टर, इंजीनियर, एमबीए, वकील बनने की कोशिश. ये वही रास्ता है जहां बहुत सारे दुखी लोग पहले से खिंचे जा रहे हैं.

दो चीजें होती हैं. एक लोग उस करियर को खत्म कर देते हैं जो बहुत खुशी नहीं देता है और कई बार वे ऐसा नहीं कर पाते हैं जैसा कि करियर में करना चाहते हैं. और, इस तरह अपने-अपने तरीके का दुख पैदा करते हैं जिस कारण वे अपने व्यवसाय में श्रेष्ठ नहीं रह जाते.

दूसरी बात ये है कि रोजगार बाजार में मांग-आपूर्ति की रेखा विषम हो जाती है. आखिरकार हमें कितने डॉक्टर और इंजीनियरों की जरूरत है? और वास्तव में कितने इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर चुके लोग वास्तव में अपने कारोबार में प्रैक्टिस करते हैं? हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जिनके पास व्यावसायिक दक्षता हो. एक समाज के रूप में हमें उस दिशा में बढ़ना चाहिए जिसमें हम व्यावसायिक शिक्षा और क्षमता हासिल करने को सम्मान दें.

एक अन्य चीज जिस पर सोचने की जरूरत है कि हमने जितना फोकस अंकों पर रखा है (और केवल अकों पर), उसी तरीके से क्या हम अपने नौजवान समूहों में कोई ऐसी चीज डाल सकते हैं जो सफलता को सुनिश्चित बनाने में उतना ही महत्वूपूर्ण हो? एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व? एक व्यवस्था जो क्षमता को पहचान सके? क्या हम ‘अच्छे अंक’ के उत्साह में एक ही दिशा में एक जैसे व्यक्ति को पैदा नहीं कर रहे हैं? आप बस डीयू के कट ऑफ के क्रेज से जुड़कर अपने अतीत को एकनिष्ठ रूप से सुंदर बना सकते हैं.

एक समाज बहुत बेहतर कर सकता है अगर क्षमतावान लोग डिग्री से ऊपर उठकर सोचने लगें और वो दक्षता हासिल करें, जिसके लिए वे श्रेष्ठ हैं. हम अपनी योग्यता को ढूंढ़ें. हम अपनी दिलचस्पी को खोजें. सफलता हमारे पीछे होगी. और यहां तक कि ‘अच्छे नंबर’ भी. चार साल पहले मैंने अपने मास्टर्स में बहुत अच्छा किया, क्योंकि आगे पढ़ना बहुत सोच समझकर लिया गया पैसला था. इसका आधार दिलचस्पी और क्षमता थी. कोई सामाजिक या अभिभावकों का दबाव नहीं था कि एक डिग्री लेनी है.

कई तरह के करियर हैं जो आज चुने जा सकते हैं जो परंपरागत रूप से ‘अच्छे अंक’ वाले नजरिए में आवश्यक रूप से फिट नहीं बैठते, लेकिन ये उपयुक्त मुकाम का माध्यम हैं. अच्छे अंक पर सवाल पूछना भी अच्छा विचार हो सकता है. क्या ये धन है? संतुष्टि है? या खुशी है? अंत समझने के लिए एक क्षण के लिए रुकें. और, हमें नहीं भूलना चाहिए कि अंक अंत का माध्यम होता है. और, इस अंत का हम स्वत: अंत कर दें.

फिर मिलेंगे, लेकिन तब तक हर चीज पर सवाल करते रहें क्योंकि आप ही बेहतर विकल्प पैदा करते हैं जब आप सवाल करते हैं.

(गुल पनाग एक एक्टर, पायलट, पॉलिटिशियन, एन्टरप्रेनर और बहुत कुछ हैं. व्यक्त किए गये विचार व्यक्तिगत हैं. द क्विन्ट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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