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शुक्रवार 2 अक्टूबर की शाम, इंडिया टुडे की पत्रकार तनुश्री पांडे और हाथरस के कथित गैंगरेप और हत्या मामले की पीड़ित लड़की के एक रिलेटिव के बीच फोन पर हुई बातचीत सोशल मीडिया पर ‘लीक’ हो गई.
इस मामले पर राइट-विंग डिजिटल पोर्टल ओपइंडिया की एक रिपोर्ट के बाद, टाइम्स नाउ ने पीड़ित के परिवार सहित गांव के लोगों से जुड़े कई 'लीक्ड' फोन कॉल पर एक शो चलाया.
हालांकि, परिवार के दावों को देखते हुए कि वे निगरानी में हैं और उनके फोन भी पुलिस ने एक प्वाइंट पर छीन लिए, इस मामले में फोन-टैपिंग को लेकर चिंताएं जताई जा रही हैं.
दरअसल, इंडिया टुडे के एक शो में इस बारे में पूछे जाने पर, बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने इस आरोप से इनकार नहीं किया कि फोन टैप करने की प्रक्रिया चल रही है.
इंडिया टुडे ने दलील दी कि या तो उनके पत्रकार या पीड़ित के परिवार का फोन टैप किया गया था, और टेलीफोन कॉल को "गैरकानूनी तरीके’’ से "गलत इरादों" के साथ पब्लिक के बीच जारी किया गया था, ऐसे में, उन्होंने पूछा है कि दोनों में से कोई भी फोन क्यों था टैप किया जा रहा था - और फिर रिकॉर्डिंग को उन अधिकारियों द्वारा कैसे ‘लीक’ किया गया, जिनके पास इसकी पहुंच थी.
ऐसे में सवाल उठता है कि कानून के मुताबिक, किसी का फोन कब टैप किया जा सकता है? क्या तनुश्री पांडे या पीड़ित परिवार के फोन को टैप करना अवैध होगा? इसके लिए कानून का पालन करते हुए किस प्रक्रिया का पालन किया जाना जरूरी है?
पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने जांच एजेंसियों की ओर से बढ़ती फोन टैपिंग की रिपोर्ट्स के बाद 1990 के दशक में सुप्रीम कोर्ट में एक PIL दायर की थी, जिसमें 1991 की जर्नल 'मेनस्ट्रीम' की एक रिपोर्ट भी शामिल थी, जिसमें बताया कहा था कि सीबीआई कैसे राजनेताओं के फोन टैप कर रही थी.
उस रिपोर्ट में पाया गया था कि सही तरीके के अनुमति के बिना ही, अथॉरिटीज के मौखिक अनुरोध पर फोन को टैप किया जा रहा था, जिसका कोई पेपर रिकॉर्ड भी नहीं रखा जा रहा था.
केंद्र सरकार के पास इंटरसेप्शन या ब्लॉकिंग से संबंधित विशेष नियम बनाने की ताकत है, जैसे कि इंटरनेट सस्पेंड करना. हालांकि, सरकार ने कभी भी फोन-टैपिंग पर कोई नियम नहीं बनाया है.
कोर्ट में सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि निजता का अधिकार संविधान के आर्टिकल 19 और 21 के तहत मौलिक अधिकार है. उन्होंने कहा कि फोन-टैपिंग जाहिर तौर से निजता के अधिकार में घुसपैठ है और इसलिए टेलीग्राफ एक्ट की धारा 5(2) असंवैधानिक होगी, जब तक कि उसे पूर्व न्यायिक मंजूरी के साथ न पढ़ा गया हो.
एक तरह से, उन्होंने कहा कि जब तक कि कोर्ट से मंजूरी न ली गई हो, तब तक किसी अथॉरिटी के पास फोन टैप करने की ताकत नहीं होनी चाहिए.
कोर्ट ने इस मामले में वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल और राजीव धवन की बात सुनी. दोनों वकीलों ने बार के जिम्मेदार सदस्यों के तौर पर कोर्ट में बात रखी और तर्क दिया कि कोर्ट की पूर्व मंजूरी की जरूरत न पड़े, उसके लिए एक प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों की व्यवस्था बनाई जा सकती है. सिब्बल का तर्क था कि कोर्ट की पूर्व मंजूरी की जरूरत टेलीग्राफ एक्ट की मौजूदा फ्रेमिंग में मुमकिन नहीं होगी और उसके लिए एक्ट में बदलाव करने होंगे.
ये भी कहा गया कि 'कुछ लोग ये महसूस करते हैं और बिना वजहों के नहीं, कि प्रेस को फोन टैपिंग का सामना करना पड़ेगा.'
हालांकि, ये कहा गया कि सेक्शन 5(2) के तहत कम्युनिकेशन इंटरसेप्ट करने की ताकत विशेष परिस्थितियों में ही इस्तेमाल की जाएगी. जैसे कि पब्लिक इमरजेंसी या पब्लिक सेफ्टी के हित में. इन दोनों ही स्थिति में मौलिक अधिकारों को कुछ हद तक सीमित किया जाता है.
कोर्ट ने साफ तौर से कहा था कि टेलीग्राफ एक्ट के सेक्शन 5 के तहत पब्लिक इमरजेंसी या पब्लिक सेफ्टी हित पर 'खुफिया हालात' में सवाल नहीं किया जा सकता है.
एक बार ये स्थापित करने पर कि पब्लिक इमरजेंसी है या पब्लिक सेफ्टी हित में किया जाना है, फोन-टैपिंग का आदेश लिखित में वजहें रिकॉर्ड किए जाने के बाद ही दिया जा सकता है कि ये क्यों जरूरी था या इसे इन हितों में जारी किया गया:
इन्हें देखने के बाद ये पता लगाना मुश्किल है कि तनुश्री पांडे या पीड़ित परिवार का फोन टैप करने के पीछे क्या संभावित कारण हो सकता है. घटना को लेकर वैध पब्लिक सेफ्टी चिंता हो सकती है लेकिन तब भी उसके लिए इनके फोन टैप किए जाने क्यों जरूरी थे?
कानून के मुताबिक यूपी सरकार को ये वजह लिखित में देनी होगी. अगर ये मामला कोर्ट में जाता है तो वजहों को देखना दिलचस्प होगा.
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