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भारत ने अपने संविधान के प्रदर्शन और प्रभाव की कभी भी गंभीरता से पड़ताल नहीं की. संविधान को स्वीकार किए जाने के 67 वर्षों में हुए चार आधिकारिक रिव्यू में से शुरुआती तीन में कोशिश यही रही कि हम अपने मूल संविधान के आसपास ही रहें. माना गया कि कोई भी बदलाव हमारे संविधान को कमजोर कर देगा.
नेशनल कमीशन टू रिव्यू द वर्किंग ऑफ द कंस्टीट्यूशन (एनसीआरडब्लूसी) की ओर से की गई संविधान की आखिरी पड़ताल राजनीति की भेंट चढ़ गई. आयोग ने समीक्षाओं के बाद कई सिफारिशें पेश कीं, लेकिन उसकी रिपोर्ट यूं ही पड़ी रही.
हमारे संविधान को किसी पवित्र धर्मग्रंथ के जैसा नहीं होना था. खुद नेहरू ने संविधान सभा के शुरुआती दिनों में कहा था- “मैं संविधान को लेकर कह सकता हूं कि जिसे हमने ही तैयार किया है वो खुद में आखिरी नहीं है. बल्कि ये सिर्फ आगे हमारे काम के लिए आधार भर है.”
पटेल ने साफ-साफ कहा था :
विडंबना ये है कि देश ने अपने मूल संविधान को सौ से अधिक बार संशोधित किया है. इसमें हुए कुछ बदलाव निर्णायक रहे हैं, लेकिन हम संविधान के समग्र पूनर्मूल्यांकन का विरोध करते हैं. संविधान को लागू करने के पहले ही साल 1951 में नेहरू ने संविधान पर कैबिनेट कमेटी की बैठक की अगुवाई की. इस बैठक में इस बात का रास्ता निकालने पर चर्चा हुई कि सरकार के जमींदारी उन्मूलन कार्यक्रम को कोर्ट से अस्वीकार करने के बाद क्या किया जाए.
उन्होंने राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखा कि न्यायपालिका की भूमिका चुनौती देने से बाहर है.
इसी के नतीजे में संविधान में पहला संशोधन हुआ, जिसने न सिर्फ गलत मिसाल पेश की, बल्कि इसने संविधान में नई अनुसूची को जन्म दिया, जिसने भावी कानूनों को न्यायिक समीक्षा से रोक दिया. तब इस बात का विरोध करते हुए एसपी मुखर्जी ने संसद में कहा भी कि- संविधान के साथ रद्दी कागज की तरह व्यवहार किया जा रहा है.
एक और दूसरा नुकसानदेह बदलाव भी ज्यादा पीछे नहीं था. 1954 में कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने नेहरू की अगुवाई में एक सब कमेटी का निर्माण किया. इस कमेटी पर दस्तावेज को जांचने की जिम्मेदारी थी. इस बार कोशिश इस बात की थी कि अगर सरकार निजी संपत्तियों का अधिग्रहण करती है, तो मुआवजे को लेकर सवाल पूछने का कोर्ट को कोई हक न हो.
चौथे संशोधन पर संसद में नेहरू ने कहा कि “यह विरोधाभासों को दूर करने और मौलिक अधिकारों को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के सहायक बनाने के लिए था.”
गृहमंत्री जीबी पंत ने कहा :
हम लोग संविधान का पुनर्वास कर करे हैं, न कि इसके साथ कोई छेड़छाड़.
तीसरा पुनर्मूल्यांकन व्यापक और बेहद नुकसानदेह था. 1976 में इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन का सुझाव देने के लिए स्वर्ण सिंह की अगुवाई में पार्टी की एक कमेटी बनाई. इसके पीछे इंदिरा गांधी की कोशिश दरअसल पार्टी के अंदर ही तैयार उस प्रस्ताव का आकलन कराने की थी, जिसमें एक पूरी तरह से केंद्रीकृत व्यवस्था की वकालत की गई थी. ये प्रस्ताव- ‘अ फ्रेश लुक ऐट आवर कंस्टीट्यूशन’ नाम से आया था..
इंदिरा गांधी के नेतृत्व में लाया गया बयालीसवां संशोधन दरअसल संवैधानिक शक्तियों को प्रधानमंत्री के हाथों में देने वाला था. स्वर्ण सिंह के प्रस्ताव के नतीजे में संविधान में बयालीसवां संशोधन आया. इस संशोधन ने सत्ता की ताकत को प्रधानमंत्री के हाथों में केंद्रीकृत कर दिया. राष्ट्रपति को फैसले लेने की ताकत से अलग कर दिया गया और किसी फैसले को रिव्यू करने की न्यायपालिका की ताकत में बुरी तरह से कटौती कर दी गई.
भारतीय संविधान के जाने-माने इतिहासकार ग्रैनविले ऑस्टिन ने इस बदलाव पर लिखा :
संविधान को बदलने के इस कामचलाउ एप्रोच ने देश की समस्याओं को सिर्फ और गंभीर ही बनाया. इसका एक उदाहरण 1980 में पास किया गया दलबदल विरोधी संविधान संशोधन है. इस संशोधन ने हमारे जनप्रतिनिधियों को पार्टी के बड़े बॉस के हाथों की कठपुतली बनाकर छोड़ दिया. इससे संसद के मूलभूत उद्देश्यों की उपेक्षा ही हुई.
संविधान के काम करने के तरीकों में सुधार की पहली समग्र और पारदर्शी कोशिश सन 2000 में नेशनल कमीशन की ओर से हुई. इसके लिए तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने पूर्व चीफ जस्टिस एम एन वेंकटचेलैया की अगुवाई में समिति बनाई. ये बात दरअसल एनडीए के चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा थी. इससे पहले एनडीए के कई नेता समय-समय पर संविधान में आमूल-चूल बदलाव की बातें करते रहे थे.
1998 में अपनी स्पीच में वाजपेयी ने कहा था :
कमीशन के गठन पर तब की विपक्षी पार्टियों ने खूब हो-हल्ला मचाया. आरोप लगाया गया कि सरकार अंबेडकर के संविधान को नष्ट करने के अपने छिपे एजेंडे पर काम कर रही है. और संसदीय लोकतंत्र को खत्म करना चाहती है. आरोप ये भी लगा कि धर्मनिरपेक्षता और आरक्षण को खत्म करने की कोशिश हो रही है. इस हंगामे के बीच आडवाणी ने ‘क्यों हमारे संविधान में बदलाव की जरूरत है’- नाम से एक लेख लिखकर सेक्यूलरिज्म और आरक्षण को खत्म करने की अटकलों और आरोपों को खारिज किया.
संसदीय बनाम प्रेसिडेंशियल सिस्टम के मुद्दे पर आडवाणी ने तब तर्क दिया कि संसदीय लोकतंत्र की आधारभूत बनावट पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन विपक्ष का विरोध जारी रहा.
नतीजतन वाजपेयी की सरकार कमीशन के दायरे को कम करने के लिए मजबूर हुई. कमीशन को अब संसदीय लोकतंत्र के दायरे में ही काम करने और सुझाव देने के लिए कहा गया. और उतने ही बदलावों की सिफारिश करने को कहा गया, जिससे कि संविधान की मूल भावना में किसी तरह की कोई छेड़छाड़ न हो.
एनसीआरडब्लूसी की रिपोर्ट :
सफलताओं से ज्यादा विफलता ये बात जाहिर करती है कि विगत 50 सालों में संविधान के काम करने का तरीका मौकों को खो देने का जीता-जागता उदाहरण है.
संसदीय प्रणाली सरकारों की स्थिरता की कीमत पर जवाबदेही को अधिक तवज्जो देता है. आयोग ने तर्क दिया कि इस पर फिर से चर्चा होनी चाहिए. क्योंकि आज के संदर्भ में एक हद तक स्थिरता और मजबूत शासन व्यवस्था, दोनों अहम हैं. न्यायमूर्ति वेंकटचेलैया बाद में कहेंगे कि वो भारत के लिए शासन के प्रेसिडेंशियल फॉर्म की सोच रख रहे थे.
कमीशन ने 250 सिफारिशें कीं, लेकिन इसकी रिपोर्ट कभी भी संसद के सामने नहीं रखी गई.
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