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देश में पत्रकारों की जमात को मिलने वाली स्वतंत्रता के घटते स्तर पर गाहे-बगाहे सेमिनारों में चिंता व्यक्त की जाती रही है, लेकिन अब एक रिसर्च ग्रुप फ्रीडम हाउस ने अपनी रिपोर्ट में इस बात की तस्दीक की है.
रिपोर्ट कहती है कि पिछले दस सालों में पत्रकारों को मिलने वाली स्वतंत्रता का स्तर साल 2015 में अपने औसत के सबसे निचले स्तर पर चला गया है.
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, साल 1990 से अब तक भारत में 80 पत्रकारों की हत्या के मामले सामने आए हैं. लेकिन सिर्फ एक मामला ही अदालती कार्रवाई के स्तर तक पहुंच सका है. कुछ मामलों में चार्जशीट दाखिल की गई है. वहीं कुछ मामलों में आज तक किसी को कसूरवार तक नहीं ठहराया गया है.
खतरे के लिहाज से असम, उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और तमिलनाडु पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक प्रदेशों में शुमार हैं.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड जैसे राज्यों में पर्यावरणीय भ्रष्टाचार, इनवेस्टिगेटिव स्टोरीज और अवैध जमीन सौदों से जुड़ी रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों पर खतरा सबसे ज्यादा रहता है.
भारत में मारे जाने वाले पत्रकारों में से 47% राजनीति से जुड़ी रिपोर्टिंग करते थे. वहीं, 66% नृशंस हत्या के मामले हैं.
छत्तीसगढ़ में हाल के महीनों में कई पत्रकारों पर नक्सलवादियों से जुड़े होने का आरोप लगाकर उनको गिरफ्तार कर लिया गया, जबकि ये पत्रकार आदिवासियों से जुड़े मामलों पर रिपोर्टिंग कर रहे थे.
भारत पूरी दुनिया में विश्व के सबसे बड़ लोकतंत्र होने पर गर्व महसूस करता है. लेकिन आखिर ये कैसा गर्व है, जब इस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इतने गंभीर संकट में गुजर रहा है.
साल 2015 में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने केंद्र सरकार को पत्रकारों की सुरक्षा से जुड़ी हुई सिफारिशों की लिस्ट सौंपी. लेकिन इस मामले पर अब तक कुछ नहीं हुआ है. पत्रकारों की हत्या से जुड़े मामलों में चार्जशीट दाखिल होकर न्याय सुनिश्चित किया जाना चाहिए.
क्योंकि अगर पत्रकार ही डर के घर बैठ जाएगा, तो जनता के साथ होने वाले अहित की बात सामने कौन रखेगा?
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