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पुरी (Puri) की विश्व प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा (Lord Jagannath Rath Yatra) अपने निर्धारित समय के अनुसार चल रही है. सदियों से चली आ रही इस रथ यात्रा के इतिहास में ऐसा दूसरी बार हो रहा है कि इस भव्य उत्सव का आयोजन भक्तों के बिना हो रहा है. पुरी स्थित भगवान जगन्नाथ अपने भक्तों से काफी प्यार करते हैं तभी तो उन्हें भक्त वत्सला के रूप में भी जाना जाता है.
हालांकि, कोरोना (COVID-19) महामारी ने भगवान जगन्नाथ और उनके लाखों भक्तों के बीच एक रेखा खींच दी है. इस बार अभी तक भक्तों ने अपने प्रिय भगवान के दर्शन अपनी टेलीविजन स्क्रीन के माध्यम से किए होंगे. दुनिया भर में मौजूद लाखों भक्त इस वर्ष राजसी रथ पर विराजमान अपने भगवान के भौतिक दर्शन से वंचित रह जाएंगे.
इस बार जब भगवान जगन्नाथ अपने जन्म स्थान, श्री गुंडीचा मंदिर के 9 दिवसीय प्रवास पर जाने के लिए तीन किलोमीटर की यात्रा तीन घंटे से ज्यादा समय के लिए करेंगे तब उनके साथ चलने वाले भक्तों का तांता और उनके द्वारा होने वाला आलौकिक भजन-गायन पुरी की गलियों में मौजूद नहीं रहेगा.
रीति-रिवाजों और परंपरा के अनुसार कुछ समुदाय के लोगों को पुरी के मंदिर में प्रवेश देने से रोक दिया जाता है. यह प्रथा सार्वभौमिकता की उस भावना के खिलाफ प्रतीत होती है, जिसे खुद पुरी के भगवान (श्री कृष्ण) ने परिभाषित किया है. वहीं दूसरी ओर यह यात्रा भक्तों के उस सार्वभौमिक प्रेम और भक्ति की अभिव्यक्ति है जो देवाताओं के चारों ओर रहती है.
रथ यात्रा के दौरान जब रथ ग्रैंड रोड (या बड़ा डंडा) पर लगभग 200 मीटर आगे की ओर लुढ़कता है. तब नंदीघोष यानी भगवान जगन्नाथ का रथ दाहिनी ओर एक मजार (मकबरा) पर ठहरता है.
यहां रथ कुछ देर रुकता है, इस दौरान मकबरे में शांति से विश्राम करने वाली आत्मा को याद किया जाता है उसके बाद रथ अपनी मंजिल की ओर बढ़ जाता है.
भगवान के रथ को इस पड़ाव पर रोकने के अनुष्ठान के पीछे रोचक कहानी है.
यह घटना सदियों पहले मुगल काल के दौरान की है.
मुगल सम्राट जहांगीर के शासनकाल में जहांगीर कुली खान एक वर्ष (1607-1608) के लिए बंगाल के सूबेदार थे, उन्हें लालबेग के नाम से भी जाना जाता था. ओड़िशा में अपनी एक सैन्य यात्रा के दौरान उन्होंने एक युवा ब्राह्मण विधवा को स्नान के बाद जाते हुए देखा. उस औरत की सुंदरता ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर लिया. उन्होंने उस महिला को जबरन अपने घोड़े पर बैठा लिया और अपने साथ ले गए. अंतत: उन्हें उस महिला से प्यार हो गया और उन्होंने शादी भी कर ली.
उनसे एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसका नाम उन्होंने सालबेग रखा. अपनी मां के साथ नजदीक से रहने वाले सालबेग ने शुरुआत से ही भगवान जगन्नाथ पंथ का रुख किया क्योंकि उनकी मां भगवान की उत्साही भक्त थीं.
मुगल सेना की पैतृक छाया में पले-बढ़े एक युवा मुसलमान, सालबेग को भगवान जगन्नाथ के प्रति गहरी भक्ति विकसित करने के लिए ज्यादा समय नहीं लगा. उनकी भक्ति की गाथाएं आज भी असंख्य भजनों और गीतों में जिंदा हैं. जिन्होंने भगवान के अनुष्ठानों के प्रदर्शनों में एक अहम जगह बनाई है.
लेकिन सालबेग इस बात को लेकर बहुत दुखी थे कि उन्हें अलग समुदाय की वजह से अपने ही भगवान को पूजने के लिए मंदिर में प्रवेश नहीं मिल पा रहा था.
कहा जाता है कि अपने भगवान श्री कृष्णा के प्रति समर्पण में उन्होंने वृंदावन में कम से कम एक वर्ष का समय बिताया था.
किवदंति है कि जब सालबेग रथ यात्रा में शामिल होने के लिए वापस ओड़िशा आ रहे तब वे बीमार पड़ गए थे. जब उनके शरीर ने लगभग जवाब दे दिया था तब उन्होंने भगवान जगन्नाथ से प्रार्थना की कि कम से कम एक बार वे उन्हें दर्शन करने की अनुमति दें. भगवान की स्तुति में गाए जाने वाले सैकड़ों गीत व भजन सालबेग के अटूट विश्वास और धैर्य को प्रकट करते हैं
उनकी आत्मा से निकली आवाज ने भगवान जगन्नाथ को हिला दिया. जब यात्रा शुरु हुई तो, भगवान का रथ सालबेग की कुटिया के सामने आकर रुक गया और आगे नहीं बढ़ा. ऐसा माना जाता है कि वह आवाज सालबेग की अंतर्रात्मा की आवाज थी, जिसकी वजह से रथ को रोकने की दैवीय मंजूरी मिली थी.
इस प्रकार से भगवान जगन्नाथ अपने कट्टर भक्त के पास जाकर उसे अपने रथ के नीचे आकर पूजा करने की अनुमति दी.
सालबेग को सम्मान देने के बाद ही भगवान जगन्नाथ का रथ आगे बढ़ा.
आज भी यह परंपरा चली आ रही है. भगवान के रथ को अपने भक्त की समाधि या मजार पर अनिवार्य रूप से रुकना पड़ता है.
सालबेग का भजन "अहे नीलाशैला" आज भी इस दिन के लिए भगवान के अनुष्ठानों के इतिहास में सर्वकालिक हिट है.
डॉ. मोहम्मद यामीन अपनी ओडिशा समीक्षा में लिखते हैं कि
"कृष्णरास में मदहोश सालबेग की वृंदावन जाने की इच्छा हुई होगी. वहां उन्हाेंने साधु-संतों से अपने पीठासीन भगवान के बारे में सुना होगा और भगवान श्रीकृष्ण के बालमुकुंद स्वरुप में खो गए होंगे. श्रीकृष्ण ने जिस तरह से बालक की तरह अपनी माता से व्यवहार किया था, सालबेग उससे अवश्य मोहित हो गए होंगे. इसलिए उन्होंने उस बालक (श्रीकृष्ण) का वर्णन करते हुए भजन की रचना की."
"सुनपुआ नचैरे कविता की रचना के दौरान सालबेग ने उस घटना का वर्णन किया है जिसमें श्रीकृष्ण द्वारा भोजन ग्रहण करते समय माता यशोदा को समस्या हुई थी. उस दौरान स्नेही माता यशोदा कुछ गीत गाकर कृष्ण को भोजन कराती हैं."
सुंदरानंद विद्याविनोद और सुकुमार सेन जैसे आलोचकों ने सालाबेग को 17वीं शताब्दी के ओडिशा के एक स्थापित भक्ति कवि के रूप में मान्यता दी है और हिंदी, बंगाली और उड़िया में लिखे गए उनके वैष्णव छंदों का सम्मान करते हैं.
(धीरेन्द्र नारायण सिंह, भुवनेश्वर में रहने वाले एक सीनियर जर्नलिस्ट और पॉलिटिकल एनालिस्ट हैं. यह एक रिपोर्ट और विश्लेषण है. यह लेखक के अपने विचार हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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