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नवोदय में सुसाइड: यहां का डिप्रेशन छात्रों की जाति नहीं देखता

नवोदय विद्यालय एक बार फिर सुर्खियों में है. लेकिन गलत वजह से, इस बार बच्चों की आत्महत्या की खबरें मुद्दा बनी हुई हैं

अभय कुमार सिंह
भारत
Updated:
(फोटो: क्विंट हिंदी)
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(फोटो: क्विंट हिंदी)

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हर बार बोर्ड परीक्षाओं में सबसे आगे रहने, छोटे गांव-कस्बों  के छात्रों के सपनों में उड़ान भरने लायक ईंधन भरने के लिए मशहूर जवाहर नवोदय विद्यालय एक बार फिर सुर्खियों में है. लेकिन गलत वजह से, इस बार बच्चों की आत्महत्या की खबरें मुद्दा बनी हुई हैं. हाल में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2013 से लेकर 2017 के बीच में 49 बच्चों ने आत्महत्या किया और इसमें से आधे दलित और आदिवासी समुदाय से हैं.

अब जहां जाति की बात आती है, हमारा (सोशल मीडिया और नेता नगरी) एंटीना अपने आप खड़ा हो जाता है, बार-बार ये कहा जाने लगा आखिर दलित और आदिवासी ही क्यों?

‘सुसाइड को जाति-धर्म का एंगल मत दीजिए’

ऐसे में जवाहर नवोदय के पूर्व छात्र और अध्यापक इस ‘जाति के एंगल’ को साफ-साफ नकारते हैं. उनका कहना है कि नवोदय का माहौल ऐसा है कि क्लास में पढ़ने वाले बच्चों को ये पता ही नहीं चलता कि उनका साथी किस जाति या धर्म से नाता रखता है. साथ ही यहां का डिप्रेशन किसी छात्र की जाति नहीं देखता.

नवोदय के पूर्व छात्र और AIIMS के सीनियर डॉक्टर अरुण पांडेय कहते हैं,

वो 7 साल एक ऐसा सफर था. जहां कभी ये अहसास ही नहीं हुआ कि जाति-धर्म भी कोई चीज है. मुझे  तो इन 7 साल में किसी भी साथी की जाति के बारे में पता ही नहीं था. साथ खाना, बैठना और खेलना यही तो नवोदय है. सुसाइड का मामला गंभीर है, लेकिन इसे जाति से जोड़ना उससे भी ज्यादा गलत.
अरुण पांडेय, सीनियर डॉक्टर, AIIMS

नवोदय के पूर्व छात्र और एक कोचिंग इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर दिनेश कुमार कहते हैं कि जब ऐसी दुखद घटनाओं को जातीय रंग या राजनैतिक रंग दिया जाता है तो हमें यानी पूर्व छात्रों को दुख होता है.

ये रिपोर्ट तो अखबारों, टीवी चैनलों में चल जाती हैं लेकिन क्या कभी कोई नवोदय में पढ़ने वाले वर्तमान छात्रों की सोचता है? अब तक जाति, धर्म की बात न सोचने वाले इन छात्रों को जब ऐसी खबरें मिलेंगी तो क्या उनमें बंटवारा नहीं होगा?
दिनेश कुमार, पूर्व छात्र, जवाहर नवोदय विद्यालय
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लेकिन सुसाइड तो हुए हैं, दोषी कौन?

लेकिन बच्चों ने आत्महत्या तो की है, ये फैक्ट है. इसकी वजह क्या है? AIIMS के डॉक्टर अरुण पांडेय का कहना है कि इसकी सबसे बड़ी वजह है वो 'नंबर रेस' जो छात्रों में पहले दिन से ही घुसा दी जाती है. बोर्ड की परीक्षा, करियर, नौकरी की तिकड़म में फंसकर छात्र सिर्फ नंबर पाने की दौड़ में लग जाता है. जिसका दबाव कुछ छात्र नहीं झेल पाते हैं.

काउंसलर क्यों नहीं?

देश में कुल 635 नवोदय विद्यालय हैं. जहां छात्र और शिक्षक एक ही कैंपस में रहते हैं. हॉस्टल में छात्रों को 4 भाग में बांटा जाता है, अरावली, शिवालिक, उदयगिरी और नीलगिरी. जिन्हें 'हाउस' कहते हैं, हर हाउस का एक हाउस मास्टर होता है, जो स्कूल का टीचर ही होता है, उसे हाउस मास्टर की अतिरिक्त जिम्मेदारी दे दी जाती है. साथ ही स्कूल में नर्स, फिजिकल एजुकेशन टीचर, आर्ट टीचर भी अलग से होते हैं लेकिन काउंसलर नहीं.

डॉक्टर अरुण इसे भारी खामी मानते हैं,

टीचर से आप सारे काम नहीं करा सकते. वो पहले से ही अपने कोर्स के दबाव में है. बच्चे कई महीनों तक घर नहीं जाते, अभिभावकों की अपनी अलग जिम्मेदारियां हैं. ऐसे में काउंसलर होने ही चाहिए. जो छात्र की परेशानियों का समाधान बता सके. उसे गाइड कर सके, मोटिवेट कर सके.

डिप्रेशन की ये कहानी हालात बयां करते हैं

यूपी के नवोदय के एक और पूर्व छात्र कुणाल (बदला हुआ नाम) ने क्विंट को इसी दबाव और डिप्रेशन से जुड़ी एक सच्ची घटना बताई.

‘’मैं और मेरे दो दोस्त एक ही साथ नवोदय में दाखिल हुए. मैं पढ़ने में बाकी दोनों से कमजोर था. अखिल मेरे क्लास का टॉपर था और विजय दूसरे नंबर पर आता था. अखिल तेज दिमाग का था और विजय काफी मेहनती. धीरे-धीरे विजय के नंबर अखिल से ज्यादा आने लगे. इस बात का जिक्र अखिल मुझसे करता भी था और परेशान रहने लगा. 10वीं बोर्ड के एग्जाम में दोनों ने 90 फीसदी के आसपास आए, लेकिन विजय के नंबर अखिल से ज्यादा थे. 11वीं में नवोदय से ही दोनों का सेलेक्शन आईआईटी की मुफ्त कोचिंग इंस्टीट्यूट के लिए हो गया. वहां कई दूसरे नवोदय के टॉपर्स भी पहुंचे थे. ऐसे में अखिल नंबर रेस में और पिछड़ता गया, इस बात का लगातार वो जिक्र करता और बेहद परेशान रहने लगा. बाद में अजीब-अजीब हरकतें और बातें करने लगा कि 'कहीं मैं फेल तो नहीं हो जाऊंगा, कहीं एग्जाम के दिन मेरा पैर तो नहीं टूट जाएगा'. हालत इतने बुरे हो गए कि अखिल के अभिभावकों को उसे मनोवैज्ञानिक के पास ले जाना पड़ा. इस बात को कई साल बीत चुके हैं, लेकिन अखिल अब भी पूरी तरह से नॉर्मल नही हैं.’’

कुणाल की ये कहानी उस पूरे 'प्रेशर कुकर' को बताती है, जिसमें नवोदय विद्यालय धीरे-धीरे पकता जा रहा है. क्योंकि यहां जब पिछड़े इलाकों, गांवों के बच्चे आते हैं तो उनके पास हर वो सुविधा होती है, जिससे वो अपने सपनों को पंख दे सकते हैं. लेकिन, फिर अगर किसी वजह से वो सपने पूरे होते नहीं दिखते तो उसका अंजाम डिप्रेशन होता है.

मानव संसाधन विकास मंत्रालय इन नवोदय विद्यालयों को संचालित करता है, नवोदय के तमाम पूर्व छात्रों का ये आग्रह है कि जल्द से जल्द इन स्कूलों में काउंसलर की नियुक्ति कर इस मॉडल स्कूल को बर्बाद होने से बचा लें.

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Published: 25 Dec 2018,03:39 PM IST

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