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प्रोड्यूसर - अज़हर अंसार
वीडियो एडिटर - पवन कुमार
चिंता देवी का घर मिट्टी और खपरैल का है. उसमें ईंट की दीवार तो हैं लेकिन दरारें पड़ चुकी हैं. हालात ऐसे हैं कि वह कभी भी गिर सकते हैं. दिन भर वो घर के से बाहर ही रहतीं हैं लेकिन रात में डर के साए में ही सोती हैं. वो बताती हैं कि दो साल पहले उनके पड़ोस में रहने वाले उत्तम कुमार अपने घर में सो रहे थे. अचानक घर के नीचे से गैस निकलने लगी और घर ढहने लगा. उत्तम कुमार की उसी में दबकर मौत हो गई. ये हालात हैं झारखंड (Jharkhand) की राजधानी रांची से 160 किलोमीटर दूर झरिया के बस्ताकोला इलाके की.
झारखंड के झरिया के बस्ताकोला इलाके में जमीन के नीचे से कोयला तो निकाल लिया जाता है, लेकिन नियम के मुताबिक उस गड्ढे को भरा नहीं जाता. परिणाम ये होता है कि जमीन के नीचे आग लगी रहती है. जहरीली गैस का रिसाव होता रहता है. बस्ताकोला से दो किलोमीटर दूर कजरापट्टी इलाके में साल 2019 में सुनील नामक युवक पास के एक गड्ढे में खेलते हुए पहुंच गया था. धीरे-धीरे जमीन धंसने लगी. सुनील जब तक चिल्लाता, वह जमीन में समा चुका था. उसके पिता उसे बचाने गए, लेकिन वह भी जमीन में समां चुके थे.
झरिया के कोयला खदान एरिया में बीते 100 सालों से जमीन के नीचे आग लगी है. झरिया की कुल 595 साइट ऐसी है, जो इस आग से प्रभावित हैं. इसमें से बरोरा, गोविंदपुर, कतरास, सिजुआ, कुसुंडा, पीबी एरिया, बस्ताकोला, लोदना सहित कुल 70 बेहद खतरनाक इलाके हैं. इन जगहों पर जमीन धंसने से कई लोगों की मौत हो चुकी है. मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो इस आग को बुझाने के लिए अब तक 2,311 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं.
बीते 11 जनवरी को कोयला सचिव अमृतलाल मीणा ने झारखंड सरकार से इस मसले पर बात की थी. उसके बाद धनबाद जिला प्रशासन और बीसीसीएल के अधिकारियों ने इन लोगों को शिफ्ट करने के लिए तीन महीने का वक्त दिया.
इनमें से 2,110 लीगल टाइटल होल्डर यानी जमीन के वैध मालिक हैं, वहीं 10,213 नन लीगल टाइटल होल्डर यानी जमीन पर अवैध कब्जा कर रह रहे लोग हैं. वहीं इन 70 साइट में फिलहाल 118.50 मिलियन टन कोकिंग कोल है.
झरिया रिहैबिलिटेशन एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी (JRDA) में काम कर चुके एक इंजीनियर ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि ऐसा पत्र ना जाने कितनी बार आ चुका है लेकिन उसका कुछ असर नहीं होता है. सही जगह घर न मिलने से लोग भी जाने से मना करते हैं, विभाग तो लापरवाही करता ही है.
जेआरडीए (JRDA) की ओर से जारी मास्टर प्लान के मुताबिक कुल 79,159 परिवारों को 2021 तक विस्थापित कर बसाना था लेकिन संसद में दिए एक बयान में पूर्व कोयला मंत्री पीयूष गोयल ने स्वीकार किया था कि साल 2016 तक मात्र पांच प्रतिशत लोगों को ही विस्थापित कर बसाया जा सका है.
जिन पांच प्रतिशत लोगों को बस्ताकोला से 14 किलोमीटर दूर बेलगरिया नाम की जगह पर बसाया गया है, उनके मकान टूटने लगे हैं. वहां भी सिलन और दरारें पड़ चुकी हैं.
इलाके के निवासी अरुण कुमार यादव ने बताया कि यहां पीने का पानी उपलब्ध नहीं है. एक दिन गैप कर सप्लाई वाला पानी आता है, वह भी मात्र एक घंटा के लिए.
उनके बेटे प्रवीण कुमार आगे बताते हैं कि पापा का एक्सिडेंट हो गया था. उसके बाद से उनके घुटने में काफी दर्द रहता है. हमें चौथे तल्ले पर घर मिला है. हर दिन पापा ऊपर चढ़ते हैं, इसके बाद दर्द से कराहते रहते हैं.
प्रभात खबर के स्थानीय पत्रकार बीते 8 साल से कोयला संबंधित रिपोर्ट कर रहे हैं. वो क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहते हैं कि पेट की आग बुझाने के लिए लोग जमीन के नीचे लगी आग के ऊपर रहने को मजबूर हैं. खदान एरिया में रह रहे हैं तो चोरी से ही सही, कोयला बेचकर जीवन चला रहे हैं. यहां रह रहे मजदूरों को हर दिन 200 से 400 रुपए तक की कमाई हो जाती है.
वो आगे कहते हैं कि
बस्ताकोला निवासी गीता देवी अपने घरों के टूटे दिवारों को दिखाती हैं. वो कहती हैं कि घर देगा तो क्यों नहीं लेंगे. कभी DC (जिलाधिकारी) तो कभी GM (बीसीसीएल) के यहां चिट्ठी लेकर जाते हैं. सब कागज जमा कर दिए हैं लेकिन आज तक घर नहीं मिला. यहीं अगर कोई ऊंची जाति के लोगों का घर रहता, उनकी बहू-बेटियां यहां रहती तो कब का घर मिल जाता उन गरीबों को कौन पूछने वाला है.
इसी इलाके के कईलू पासवान कहते हैं कि रात को आइए तो यह इलाका जलता हुआ लंका दिखाई देता है. हमारा बेटा कोयला मजदूर है, यहां से हटेंगे तो कहां जाकर काम मिलेगा. लेकिन अगर सरकार घर देती है, तो हम जरूर यहां से जाना चाहेंगे.
ये सवाल पूछे जाने पर वो कहती हैं कि क्या करेंगे, रहेंगे रोड पर, घर नहीं मिलेगा तो कहां जाएंगे. जिसका कोई नहीं होता, उसका भगवान होता है. उसी के भरोसे रह रहे हैं. यहां हर दिन गैस निकलती रहती है. कई लोगों के सिर में लगातार दर्द रहता है, लोग और भी कई तरह की बीमारियों से ग्रस्त हैं.
गीता देवी आगे कहती हैं कि अभी दिन है, रह रहे हैं, रात में क्या होगा, कौन जानता है. मिट्टी और शरीर एक हो जाएगा, इससे ज्यादा क्या होगा. पांच साल से ये सब झेल रहे हैं. जहां-जहां कहा गया, हमने कागज जमा कर दिया लेकिन कौन दबा कर रखा है, नहीं पता. गरीब हैं, इसलिए मर रहे हैं. किसी दिन आग में धंस जाएंगे, लोग वहीं छोड़ देंगे.
रोहित कुमार दसवीं पास कर गए, लेकिन कहीं नौकरी नहीं मिली. अब वो झरिया में ही कोयला ढोने वाली ट्रक में खलासी का काम करते हैं. वो कहते हैं कि यहां का कोई बच्चा इससे आगे नहीं पढ़ पाता है. सब कोयला ढोने और उसको बेचने में ही लगे रहते है.
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