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हर चैनल पर खबर चल रही है कि जेएनयू छात्रों की बात सरकार ने मान ली है. लग रहा है कि शायद अब छात्र शांत हो जाएंगे. लेकिन ये सच नहीं है. फीस में इजाफे को लेकर छात्रों ने पहले कैंपस में जोरदार प्रदर्शन किया ,फिर यूजीसी ऑफिस के सामने भी प्रदर्शन हुआ. आजादी के नारे, तख्तियों पर तीखे मैसेज और छात्रों का सख्त रवैया देख सरकार सकते में आ गई. खबर आई कि बढ़ी हुई फीस आंशिक तौर पर वापस ले ली गई है. शिक्षा सचिव आर सुब्रमण्यम ने ट्वीट कर ये जानकारी दी. लेकिन जेएनयू के छात्र और छात्र संगठन इस ट्वीट को चालाकी बता रहे हैं.
वीडियो एडिटर: इरशाद आलम
छात्रों का कहना है कि ये ट्विटर और सर्कुलर उन्होंने खूब देखे हैं, ये सिर्फ छात्रों को बहकाने के लिए हैं, फीस बढ़ोतरी का मसला पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. जेएनयू छात्र संगठन के जनरल सेक्रेटरी सतीश यादव कहते हैं कि वाइस चांसलर को सामने आकर साफ-साफ करना चाहिए. सतीश कहते हैं कि ट्वीट से कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है, ये सिर्फ छात्रों को बरगलाने के लिए ट्वीट किया गया है, प्रशासन को हर मांग माननी चाहिए.
साकेत का कहना है कि छात्रों की तीन मांग थी जो अब भी बनी हुई हैं, पहली मांग- वाइस चांसलर हमसे बातचीत करे. दूसरी मांग- ड्राफ्ट मैनुअल को पूरी तरह से वापस लिया जाए. तीसरी मांग- जो IHA मीटिंग 28 अक्टूबर 2019 को हुआ था, उसे रद्द कर दिया जाए. नई मीटिंग बुलाई जाए, जो जेएनयू के नियम कानून के तहत हो. छात्रों को भी इसमें शामिल किया जाए.
अगर आप दिल्ली या इसके आसपास नहीं रहते और जेएनयू के बारे में ज्यादा कुछ पढ़ा सुना नहीं हैं तो आपको न्यूज चैनलों और अखबारों में जेएनयू के प्रोटेस्ट की खबरें ही सुनाई देती होंगी. ऐसा भी लगता होगा कि ये लोग टैक्स पेयर्स के पैसे पर पढ़ते हैं और हो हल्ला मचाते हैं, थोड़ी सी फीस क्या बढ़ा दी गई मानो इनकी डफली ही छीन ली गई हो. कंडोम, शराब सब खरीद सकते हैं, लेकिन हॉस्टल की फीस, सर्विस चार्ज ये सब मांग लो तो हंगामा शुरू.
लेकिन हकीकत अलग है, जेएनयू की एनुअल रिपोर्ट के मुताबिक 2017-18 में एडमिशन लेने वाले स्टूडेंट्स में 40% ऐसे थे, जिनकी घर की आमदनी हर महीने 12,000 से भी कम थी. मतलब 40 फीसदी स्टूडेंट ऐसे थे जिनका परिवार रोजाना चार सौ रुपये से भी कम पैसे में अपना गुजारा करता है. 400 रुपये. ये बच्चे दिहाड़ी मजदूर, चाय वाले, रिक्शा वाले, किसान, मामूली नौकरी करने वाले कमजोर तबके के लोगों के हैं. जो पढ़ लिखकर अपनी जिंदगी और समाज को भी बेहतर बनाना चाहते हैं.
यूनिवर्सिटी कह रही है कि ये फीस बढ़ोतरी 10 साल बाद हुई है. साथ ही 30 साल से हॉस्टल फीस स्ट्रक्चर में बदलाव नहीं किया गया था. सवाल है कि तो क्या ऐसी जरूरत क्यों आ पड़ी? क्या मंदी के पहले शिकार जेएनयू ही होगी? या क्या 40 फीसदी बच्चों के पास अचानक 15 लाख रुपये आ गए हैं?
अगर फीस बढ़ाना जरूरी ही था तो क्यों नहीं छात्रों के परिवारों की आमदनी के आधार पर बढ़ाई गई...क्यों फीस की फांस हर छात्र के गले में डाल दी गई?
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