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"अभी तो तुम जवान हो, मस्ती करो, करियर, गर्लफ्रेंड, इन सब पर ध्यान दो, मंदिर-मस्जिद, तीर्थयात्रा, ये सब तो बूढ़ों का काम है." अक्सर लोग यही कहते, जब मैं उन्हें अपने हज पर जाने का प्लान बताता. जहां ज्यादातर हिंदुस्तानी मुसलमान इस्लाम का पांचवां फर्ज अपने उम्र के आखिरी पड़ाव या यूं कहें कि रिटायरमेंट और अपने बच्चों की शादी के बाद सोचते हैं, वहीं मैंने हज पर जाने के लिए सिर्फ 24 साल की उम्र में ही सोच लिया था.
हज पर जाने के लिए आपको हज कमेटी ऑफ इंडिया में फॉर्म सबमिट करना होता है. इसके बाद लॉटरी सिस्टम के जरिए हज पर जाने वालों की लिस्ट जारी होती है. लिस्ट में हमारा नाम आ चुका था. जाने की तैयारी शुरू हो गई थी.
मैं, मेरे अब्बू और अम्मी, तीनों ही हज के लिए जा रहे थे. हम लोग थोड़ा डरे हुए थे, क्योंकि अम्मी हार्ट की पेशेंट हैं. साथ ही अम्मी पहले कभी फ्लाइट में नहीं बैठी थीं.
जो लोग हज पर जाते हैं, उनसे मिलने के लिए रिश्तेदार, पड़ोसी सब उनके घर पर आते हैं और अपने लिए दुआ करने को कहते हैं. ठीक हमारे साथ भी वैसा ही हुआ. मिलने के लिए घर से लेकर एयरपोर्ट तक लोगों की भीड़ थी. मानो हम कोई सेलिब्रिटी हों. लोग हाथ मिलाते और ये कहते कि "हमारे लिए भी दुआ कीजिएगा, हमे भी अल्लाह के घर जाने का मौका मिले".
गया इंटरनेशनल एयरपोर्ट से मदीना की फ्लाइट थी. फ्लाइट में ज्यादातर लोग बूढ़े और पहली बार हवाई जहाज में बैठे थे.
लगभग 8 घंटे में हम लोग मदीना पहुंच चुके थे. मदीना को पैगम्बर मुहम्मद साहब का शहर भी कहते हैं. रात के 8 बजे भी करीब 40 डिग्री टेम्परेचर था. मजेदार बात यह थी कि एयरपोर्ट के ज्यादातर स्टाफ को न ही अंग्रेजी सही से आती, न ही उर्दू-हिंदी. वहीं भारत के ज्यादातर लोगों को न ही अंग्रेजी आती, न ही अरबी. इशारों-इशारों में ही इमीग्रेशन हुआ. उसके बाद अपने होटल पहुंचे. फिर सुबह मस्जिद-ए-नबवी पहुंचे.
अब्बू बार बार समझाते, "यहां भूल जाओ कि तुम पत्रकार हो. न किसी से बहस, न सवाल और मोबाइल भी ज्यादा इस्तेमाल नहीं करना." फिर हमने नमाज पढ़ी. पैगम्बर मुहम्मद साहब के कब्र पर गए जिसे, रौज़ाए अक़दस भी कहते हैं. हम लोग दरूद और सलाम पढ़ रहे थे. दरूद और सलाम का मतलब होता है पैगम्बर मुहम्मद साहब पर अल्लाह का आशीर्वाद हो.
सेल्फी का कोई धर्म नहीं होता है. सेल्फी और फोटो के जरिए लोग अपनी मौजूदगी को यादों के पन्नों में सजा रहे थे. 4G इंटरनेट ने भी कमाल कर रखा था, वीडियो कॉल, स्काइप चैट, फेसबुक लाइव इन सब के जरिए लोग अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से जुड़े हुए थे.
एक और दिलचस्प बात ये थी कि भले ही चीन में मुस्लिम आबादी बहुत कम हो या फिर गैर मुस्लिम मक्का और मदीना शहर में नहीं आ सकते हों, लेकिन मेड इन चीन वाले प्रोडक्ट का बाथरूम से ले कर बैडरूम और मस्जिद से लेकर होटल तक पर कब्जा था.
मदीना से मक्का लगभग 450 किलोमीटर की दूरी पर है. ये रास्ता हमें बस से तय करना था.
फिर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को हज कमिटी की लापरवाही के बारे में ट्वीट किया. लेकिन उनका भी कोई जवाब नहीं आया.
लेकिन इन सब के बीच ट्विटर पर ट्रोल अपने काम पर लग चुके थे. सरकारी लापरवाही की शिकायत करने पर मुझे धार्मिक गालियां मिलनी शुरू हो चुकी थी. खैर हज कमेटी को लगातार फोन करना काम आ गया. जल्द ही बस का एसी ठीक हो गया. फिर हम मक्का शहर में थे. हम मस्जिद-ए-हरम के लिए निकल गए, जहां काबा है.
मक्का जाने से पहले मर्दों को सफेद रंग का बिना सिला हुआ कपड़ा पहनना होता है, जिसे एहराम कहते हैं. उस सफेद रंग के कपड़े को पहनने के बाद हज की नियत करनी होती है. एहराम के कुछ नियम होते हैं. एहराम की हालत में लड़ाई-झगड़ा, गुस्सा, भद्दी बात इन सब चीजों की पाबंदी होती है. पेड़-पौधे या उसकी पत्ती, किसी भी जानवर या कीड़े को मारना नहीं है. यहां तक कि मच्छर-मक्खी को भी नुकसान नहीं पहुंचना होता है.
हमने टैक्सी की. टैक्सी वाला पाकिस्तानी. टैक्सी में बैठने के बाद ड्राइवर ने कहा, "आप लोग हिंदुस्तान से हो, अच्छा लगा आप लोगों से मिलकर. लेकिन भाईजान वहां तो मुसलमानों पर हिंदू बहुत जुल्म करते हैं." मुझे थोड़ा गुस्सा आया, लेकिन फिर मैंने उसे बड़े प्यार से कहा, "जी शायद आपको कोई गलतफहमी हुई है, पाकिस्तान से तो बेहतर हालात हैं हमारे यहां. वैसे भी अच्छे और बुरे लोग तो हर जगह ही हैं."
कहते हैं काबा पर पहली नजर पड़ते ही जो दुआ की जाए, वो कुबूल होती है, इसलिए नजर झुका कर मस्जिद-ए-हरम के अंदर जाते गए. जैसे ही नजर उठाया, फिर दिल थम सा गया. जिस काबा को बचपन से फोटो में देखा था, वो सामने था. सबने दुआ की. फिर तवाफ़ मतलब काबा की परिक्रमा पूरी की.
मेरे साथ अब्बू-अम्मी दोनों थे. भीड़ बहुत ज्यादा नहीं थी. लेकिन फिर भी मैंने अपने अब्बू-अम्मी दोनों का हाथ पकड़ लिया, ताकि हममे से कोई बिछड़े नहीं. तवाफ़ खत्म होने के बाद हम लोगों ने अब-ए-ज़मज़म पिया मतलब ज़मज़म का पानी.
इस्लामिक इतिहास के मुताबिक,
ये पानी बहुत पवित्र माना जाता है. एक खास बात ये है कि उस जगह पर कोई तालाब या नदी नहीं है, फिर भी वहां से आज भी पानी निकलता है और लाखों लोग वो पानी पीते हैं.
हज के तीन पड़ाव होते हैं. मिना, अराफात, मुज़दलफ़ा. ये तीनों जगह जा कर ही हज के सारे अरकान मतलब क्रिया पूरी होती है. सबसे पहले हम लोग मक्का से मीना गए. जहां हजारों टेंट लगे थे. टेंट में एसी, लाइट और रहने की सारी सुविधा मौजूद थी. मीना में हाजी दुनिया मे शांति, मोहब्बत और इंसानियत से लेकर बाकी चीजों के लिए दुआ करते हैं. वहां रात गुजारने के बाद हम लोग अराफात के मैदान गए.
कहते हैं अगर अराफात के मैदान में जो नहीं पहुंच सका, उसका हज नहीं हुआ, इसलिए हर कोई वहां वक्त पर पहुंचना चाहता था. यहां तक की अगर कोई बीमार होता है, तो सऊदी सरकार उन्हें एम्बुलेंस से लेकर अराफात के मैदान आती है. एक तय वक्त तक अराफात के मैदान में रहना होता है.
शाम होते ही मुज़दलफ़ा के लिए सभी लोग रवाना हो गए. मुज़दलफ़ा में भी खुले आसमान के नीचे आराम करना था और शैतान को कंकड़ी मारने के लिए कंकड़ी चुनना था. रात वहां रुकने के बाद वापस मीना आकर जमरात, मतलब शैतान को कंकड़ी मारना होता है.
साल 2015 में मीना में शैतान को कंकड़ी मारने वाली जगह पर ही भगदड़ हुई थी, जहां बहुत सारे लोगों की मौत हो गई थी. सरकार ने पिछले बार के भगदड़ से सीख लेते हुए इस बार अच्छा इंतजाम कर रखा था. इसलिए बड़े आसानी से हम लोगों ने भी कंकड़ी मारी.
फिर हम लोग मक्का वापस आ गए थे. बाकी के अरकान को पूरा करने के लिए. मक्का में सब कुछ पूरा कर वापस मीना जाना होता है. दो रात वहां रुककर हम लोग वापस मक्का अपने होटल पहुंच गए. इस तरह हम लोगों का हज पूरा हो चुका था.
अब हमारे वापस आने का वक्त आ चुका था. हम जेद्दाह एयरपोर्ट से गया एयरपोर्ट आ गए. हम लोगों के लिए खजूर और ज़मज़म का पानी तोहफे में लाए.
अगर हमारी गाड़ी में किसी के खरोंच लग जाए, तो हम उसे गाली देंगे, मारेंगे. लेकिन वहां जो मैंने देखा, वो हैरान करने वाला था, जब आपस में दो गाड़ी टकराई, तो दोनों ड्राइवर गाड़ी से बहार आ कर एक-दूसरे से हाथ मिलाने लगे.साथ ही जिस की गलती थी, उसने अपनी गलती मान ली. काश, हम भी कुछ ऐसा ही करें.
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