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“पहली नजर में न्यायिक प्रावधानों पर संविधान सभा की बहस में प्रशासनिक पहलुओं, और अधिक प्रासंगिक रूप से, न्यायाधीशों को चुनने की व्यवस्था पर काफी चिंता देखी जा सकती थी. हालांकि अगर करीब से देखा जाए तो पता चलता है कि सदस्यों की रुचि नियमित मामलों पर थी... उनकी इच्छा यह थी कि सरकार की अंदरूनी और बाहरी ताकतों के दबावों से अदालतों को महफूज रखा जा सके."- ग्रैनविले ऑस्टिन, द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन: कॉर्नरस्टोन ऑफ अ नेशन
भारतीय संविधान (Indian Constitution) के अनुच्छेद 39ए, जो बाद में अनुच्छेद 50 बना, में न्यायपालिका से कार्यपालिका को अलग करने से संबंधित प्रावधान थे.
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 50: राज्य को न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका का कार्यपालिका से अलगाव सुनिश्चित करना है.
लेकिन इस प्रावधान को काफी जबरदस्त बहस के बाद मंजूर किया गया था.
पंडित हृदय नाथ कुंजरू ने उपराष्ट्रपति से अनुरोध किया था, "सर, यह एक महत्वपूर्ण संशोधन है और मुझे आशा है कि आप सदन को इस पर अपनी राय व्यक्त करने की अनुमति देंगे."
इसके बाद जो हुआ, वह विचारों का एक भावुक आदान-प्रदान था. उन लोगों के बीच जो इसे जोड़ने (उस समय) के खिलाफ थे, और जो इसके पक्ष में थे. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, अपनी ओर से, इस प्रस्ताव के पक्ष में लग रहे थे, इसके बावजूद उन्होंने कहा - "हम इसे भारत सरकार की तरफ से पेश करना नहीं चाहते, हालांकि सरकार इसमें गहन रुचि रखती है. स्वाभाविक रूप से और जब भी संभव होगा, वह इस सदन के समक्ष अपने विचार रखना चाहेगी."
फिर भी काफी बहस के बाद 25 दिसंबर 1948 को प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने का प्रावधान संविधान में जोड़ दिया गया.
यह देखते हुए कि आजकल कार्यपालिका, न्यायपालिका के मामलों में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी ले रही है (जब ऊंचे सरकारी ओहदेदार बता रहे हों कि अदालतों को अपना काम कैसे करना चाहिए), यह जानना मुनासिब होगा कि इन दोनों के बीच शक्तियों का अलगाव क्यों जरूरी है. लोग इसके खिलाफ क्यों थे? और अब भी यह मसला इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
जैसा कि भारत के विभाजन से पहले लाहौर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और संविधान सभा के सदस्य डॉ. बख्शी टेकचंद ने कहा था, दोनों अंगों को अलग करने की शुरुआत 1850 के दशक में हुई थी.
ब्रिटिश भारत में, कार्यपालिका और न्यायिक जिम्मेदारियों के बीच की रेखाएं प्रायः धुंधली थीं. जिला मजिस्ट्रेट कार्यकारी और साथ ही न्यायिक, दोनों तरह के कार्य करते थे.
संविधान सभा के एक अन्य सदस्य, आर के सिधवा के शब्दों में, जिला मजिस्ट्रेट "मुद्दई थे और... इंसाफ देने वाले भी."
जाहिर था, इसने चिंता पैदा की कि ऐसे इंसाफ कैसे दिया जा सकता है. डॉ चंद ने संविधान सभा को आगे बताया कि इस मामले पर पहली बार 1852 की शुरुआत में चर्चा छिड़ी, "जब बंगाल में जनता ने एकजुट होकर खुद को अभिव्यक्त करना शुरू किया". उन्होंने कहा:
मन मोहन घोष और सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे अन्य नेताओं ने भी कमान संभाली, और "साल दर साल सभी सार्वजनिक बैठकों में इस सवाल को उठाया."
1885 में कांग्रेस ने बंबई में अपने पहले अधिवेशन में इस प्रशासनिक सुधार पर सबसे ज्यादा जोर दिया.
"बाद में, न सिर्फ सभी विचारधारा वाले राजनेताओं, बल्कि जिंदगी भर प्रशानसिक सेवा में रहे रिटायर्ड अधिकारियों ने भी इस मामले को उठाया और इसका समर्थन किया," डॉ चंद ने बताया.
तो, इस प्रस्ताव की जड़ अतीत में तलाशी जा सकती हैं, लेकिन सभी इस पर सहमत क्यों नहीं थे?
1948 में संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया क्योंकि उन्हें लग रहा था कि इसकी प्रासंगिकता केवल ब्रिटिश शासन में थी. अब जब भारत उपनिवेशवादियों के चंगुल से मुक्त हो गया है तो उनके अनुसार, इस तरह के जोड़ की बहुत जरूरत नहीं थी.
स्थगन की मांग करते हुए संविधान सभा के सदस्य बी दास ने उपराष्ट्रपति से कहा:
उन्होंने यह भी महसूस किया कि वित्तीय आधार पर न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करना व्यावहारिक नहीं होगा.
फिर भी यह विभाजन क्यों कायम है? इस प्रस्ताव पर ऐतराज किया गया तो उसका जवाब भी दिया गया. जैसे दास के तर्क पर हैरानी जताते हुए सिधवा ने कहा:
"अगर एक सिद्धांत, एक बुनियादी सिद्धांत ब्रिटिश शासन के समय बुरा था, तो मैं यह समझ नहीं पा रहा हूं कि आजाद भारत में यह कैसे अच्छा हो सकता है ... क्या निष्पक्ष न्याय वही शख्स दे सकता है जो मुकदमा चलाता है और उसी समय, उस मामले पर फैसला सुनाता है?"
चंद के अनुसार, लोकतंत्र और आजादी ने इशारा किया है कि सेपरेशन ऑफ पावर की बहुत ज्यादा जरूरत है. उन्होंने कहा:
"पहले सिर्फ इस बात की आशंका थी कि जिला मजिस्ट्रेट और नौकरशाह सरकार के कुछ सदस्य न्यायपालिका के काम में दखल दे सकते हैं. लेकिन अब मुझे यह कहते हुए बहुत दुख हो रहा है कि कुछ प्रांतों में मंत्रियों और राजनीतिक दलों के सदस्यों ने भी यह काम करना शुरू कर दिया है."
चंद ने यह भी कहा कि बंबई में कांग्रेस सरकार ने इस संबंध में एक समिति का गठन किया था कि दोनों अंगों को अलग करने की वित्तीय लागत कितनी होगी. उन्होंने बताया था कि इस समिति ने कहा था कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के कामों को अलग-अलग करना व्यावहारिक था.
आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) में 1973 में संशोधन किया गया था (और संशोधन 1974 में लागू किया गया था) ताकि जिम्मेदारियों का पूरी तरह से विभाजन किया जा सके. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई ऐतिहासिक फैसलों में इस विभाजन को बरकरार रखा है. वह इस पर जोर दे चुका है और उसकी पुष्टि कर चुका है.
शक्तियों का पृथक्करण इसे सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. चंद ने क्या कहा, सिधवा ने क्या कहा, अंबेडकर ने क्या कहा, यह समझने के लिए किसी को सिर्फ पीछे मुड़कर देखना होगा. और, जैसा कि किसी भी दूसरे लोकतंत्र में होता है, यह एक ऐसा सिद्धांत है जिसे पूरे जोश से बरकरार रखा जाना चाहिए.
पढ़ें ये भी: यह आर्टिकल क्विंट हिंदी की सीरिज ‘'संविधान को जानिए’ का हिस्सा है. पूरी सीरीज के लिए यहां क्लिक करें.
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