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ऑपरेशन विजय यानी कि कारगिल वॉर को 20 साल पूरे हो गए हैं. 8 मई 1999 को शुरू हुआ कारगिल वॉर करीब दो महीने तक चला. 26 जुलाई 1999 को वॉर खत्म होने की औपचारिक घोषणा की गई. तब से अब तक 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस के तौर पर मनाया जाता है.
कारगिल वॉर में भारत ने घुसपैठियों को ऐसा सबक सिखाया था, जिसे दुश्मन कभी भूल नहीं पाएगा. आज हम आपको ऐसे ही तीन शूरवीरों के किस्से बताएंगे. इन्होंने जंग के मैदान में अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया और आज भी देश के लिए एक मिसाल हैं.
कारगिल वॉर में सर्वोच्च बहादुरी के लिए चार जवानों को परमवीर चक्र से नवाजा गया था. इनके नाम हैं-
7 जुलाई 1999
कैप्टन विक्रम बत्रा और 13 जम्मू एंड कश्मीर राइफल्स की डेटा कंपनी के उनके 25 साथी पत्थरों की ओट लेकर बैठे थे. प्वॉइंट 4875, अभी भी उनसे 70 मीटर की दूरी पर था. उन्हें ये काम सौंपा गया था कि वहां पहुंचकर दुश्मन को खदेड़कर दिन निकलने से पहले चौकी पर अपना कब्जा जमा लें.
प्वॉइंट से थोड़ा पहले पहाड़ी पर एक संकरा सा उभरा हुआ हिस्सा था, जहां दुश्मन के सिपाही मौजूद थे और उससे आगे जाना करीब-करीब असंभव था. उसी वक्त बत्रा ने फैसला किया कि दिन की रोशनी के बावजूद वो और उनके जवान चौकी पर सीधा हमला करेंगे. अपनी जान की परवाह किए बगैर उन्होंने असावधान दुश्मन पर हमला कर दिया. लेकिन दुश्मन की ओर से भी गोलियों की बौछार शुरू हो गई. जख्मी होने के बावजूद विक्रम ने मोर्चा नहीं छोड़ा और उनके बचाव में चलाई जा रहीं गोलियों की आड़ में वो किसी तरह उस उभरे हुए हिस्से तक पहुंच गए. तभी उन्हें पता चला कि उनके एक साथी को गोली लगी है. कैप्टन बत्रा की नजर कुछ ही फुट की दूरी पर खून से लथपथ पड़े उस जवान पर थी, जो थोड़ी देर पहले दर्द से कराह रहा था, लेकिन अब शांत हो चुका था.
सूबेदार रघुनाथ के अनुभव ने उन्हें बताया कि जवान के जिंदा होने की संभावना कम थी. इसलिए उन्होंने कैप्टन बत्रा से कहा कि उन्हें इसे निकालने के चक्कर में अपनी जान जोखिम में नहीं डालनी चाहिए.
लेकिन बत्रा अपने जवान को ऐसे ही पड़ा रहने देने के पक्ष में नहीं थे. उन्होंने सूबेदार रघुनाथ पर तंज कसा, ‘डरते हैं, साहिब?’
रघुनाथ सिंह ने जवाब दिया, ‘डरता नहीं हूं साहिब’ और उठ खड़े हुए. जैसे ही वे खुले में आने वाले थे, बत्रा ने उन्हें कॉलर से पकड़ा और कहा, ‘आपका परिवार और बच्चे हैं. मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है. मैं सिर की तरफ रहूंगा और आप पांव उठाएंगे.’ ये कहते हुए बत्रा ने रघुनाथ को पीछे धकेला और खुद उनकी जगह पर आ गए. जैसे ही बत्रा घायल सिपाही को उठाने के लिए झुके, दुश्मन के स्नाइपर की गोली उनके सीने में आकर लगी.
बत्रा के इस अदम्य साहस और कुर्बानी से प्रेरित होकर दस जवानों के उनके जत्थे ने उभार की आड़ पर धावा बोल दिया. हर जवान के पास एक-एक एके-47, 6-6 मैगजीन और दो-दो 36 नंबर के हथगोले थे. उन्होंने हलवा बना रहे पाकिस्तानी सिपाहियों में से हरएक को मार गिराया. इस हमले में आखिरी बचे 10 भारतीय जवानों में से एक भी सिपाही को नुकसान नहीं पहुंचा. जवानों के इस हमले से पाकिस्तानी इतने घबरा गए थे कि उनमें से कइयों ने पहाड़ी के छोर से कूद कर पथरीली घाटी में दर्दनाक मौत मरे.
मरते हुए बत्रा ने पालमपुर के नियूगल कैफे में एक दोस्त के साथ यूं ही किए अपने उस वादे को भी निभाया, जिसमें उन्होंने अपने दोस्त से कहा था, ‘या तो मैं जीतकर तिरंगा फहराकर लौटूंगा या तिरंगे में लिपटकर.’
2-3 जुलाई 1999
मनोज कुमार पांडेय एक गड्ढे में बैठे थे. पिछले करीब सात दिनों से वे लगातार जंग के मैदान में थे. वे और उनके साथी जवान पिछले 14 घंटों से चढ़ाई चढ़ रहे थे. पिछले 24 घंटों से वे सोए नहीं थे. ओलों और बर्फबारी की वजह से बढ़ गई ठंड से उनकी हड्डियां तक ठिठुरने लगी थीं. वे इस मुश्किल रास्ते का सही सही अंदाजा लगाने में गलती कर बैठे थे. अंधेरे में वे दो बार रास्ता भटक चुके थे. जब उन्हें धुंधली चोटी का आभास हुआ तो सुबह हो चुकी थी.
दुश्मन को पता लग जाने से पहले उनके पास वापस लौटने का विकल्प था. लेकिन मनोज ने पक्का इरादा कर लिया था, कि जो काम उन्हें सौंपा गया है वे उसे पूरा किए बिना नहीं लौटेंगे. ठंडी उंगलियों के सहारे वे इस खराब मौसम का फायदा उठाते हुए दुश्मन के बंकरों पर धावा बोलने वाले थे.
अचानक गोलीबारी हुई और एक सैनिक कराह कर गिर पड़ा. मनोज चिल्लाए, ‘आड़ ले लो, ये दुश्मनों की गोलियां लग रही हैं.’ बंदूक और मशीनगन की गोलियां और रॉकेट लॉन्चर उन पर बड़े सटीक निशाने से बरसाए जा रहे थे.
मनोज उठे और उन्होंने अपने बचे हुए जवानों को अपने पीछे आने के लिए ललकारा. वे गोलियों की बौछार के बीच से होते हुए दुश्मन के पहले बंकर की ओर लपके. मनोज ने अपनी कमर में लटक रही खुखरी निकाली और पाकिस्तानी नॉर्दन लाइट इन्फैंट्री के दो सिपाहियों को ढेर कर दिया.
उनके साथ ही गोरखा रेजीमेंट के दूसरे सिपाही भी खुखरियां हाथ में लेकर दूसरे बंकर में घुसकर दुश्मनों पर टूट पड़े. खूनी हाथापाई के बीच ‘जय महाकाली, आयो गोरखाली’ नारे गूंजने लगे.
अचानक मनोज के कंधे में गोली लगती है. लेकिन फिर भी वे दर्द की परवाह किए बगैर हाथ में बंदूक लिए एक बंकर की ओर बढ़ते हैं और दुश्मन पर गोलियों की बौछार कर देते हैं. एक और गोली उनकी टांग में लगती है. इसके बाद अपनी घायल टांग को घसीटते हुए वे हथगोले की तरफ हाथ बढ़ाते हैं और उसे चौथे बंकर की ओर उछाल देते हैं, जहां से उन पर मोर्टार का हमला हो रहा था. आसमान में धमाका गूंजने के साथ ही मनोज के माथे पर एक गोली लगती है और वे सीने के बल आगे की तरफ लुढ़क जाते हैं.
गोरखा राइफल्स के मनोज कुमार पांडेय जब देश के लिए शहीद हुए, तब उनकी उम्र 24 साल और सात दिन थी.
2-3 जून 1999
पाकिस्तानियों को पता चल चुका था कि भारतीय सैनिक टाइगर हिल पर पहुंच चुके हैं. कमांडिंग अफसर कुशल ठाकुर ने अपने जवानों को दुश्मन के हरकत में आने से पहले उन पर हमला करने का आदेश दिया. योगेंदर सिंह यादव और उन्हीं के नाम के एक और जवान योंगेद्र यादव सबसे आगे थे. उन्होंने दोबारा चढ़ाई शुरू कर दी. सुबह साढ़े पांच बजे जब वे ऊपर चढ़ रहे थे, तो उन पर गोलियों की बौछार शुरू हो गई. दोनों तरफ बने दुश्मन के बंकरों से गोलियां आ रहीं थीं.
वहां अफरा-तफरी मच गई और ऐसे में सबसे आगे वाले केवल सात जवान ही ऊपर चढ़ने में कामयाब हो पाए. बाकियों को गोलियों की बौछार की वजह से पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा. योगेंदर सिंह यादव और उनके साथ योगेंदर यादव के साथ पांच अन्य जवान दुश्मनों की गोलियों को चकमा देकर आगे बढ़ने में कामयाब रहे. हालांकि, अब वे अपने बाकी साथियों से कट चुके थे.
योगेंदर सिंह यादव कहते हैं, ‘अब हम सिर्फ सात लोग थे. हम वापस भी नहीं जा सकते थे, क्योंकि दुश्मन ने हमारा रास्ता बंद कर दिया था. हमने आगे बढ़ते रहने का फैसला किया. हम अपने आगे पत्थरों से बने पोस्ट को देख सकते थे. हमें नहीं मालूम था कि उसके अंदर कितने लोग थे. लेकिन इससे पहले कि वे हमें देख पाते, हमने उन पर गोलियां चलाना शुरू कर दिया.’
यादव बता हैं कि दुश्मन के चार लोग तुरंत ही मारे गए. जब उन्होंने वापस गोलियां चलानी बंद कर दीं, तो हमें पता लग गया कि वे सभी मारे गए हैं. लेकिन तब तक इस गोलीबारी को सुनकर हमारे ऊपर के बंकर में मौजूद पाकिस्तानी चौकन्ने हो गए और उन्होंने भी हम पर गोलियां बरसाना शुरू कर दिया.
सभी जवान उस पाकिस्तानी बंकर की तरफ लपके, जहां मौजूद दुश्मनों को जवानों ने ढेर कर दिया था.
योगेंदर सिंह बताते हैं, ‘सुबह साढ़े ग्यारह बजे के करीब दुश्मन के 12 सिपाही नीचे ये देखने के लिए उतरे कि हम जिंदा हैं, या मर चुके हैं. हमारी राइफलों में 45-45 राउंड बचे थे, लेकिन हम उनके नजदीक आने तक चुपचाप बैठे रहे. फिर अचानक हमने उन पर गोलियां बरसाना शुरू कर दीं. इसमें दो को छोड़कर बाकी दस पाकिस्तानी मारे गए. जो दो बच गए थे, वे वापस अपनी पोस्ट पर पहुंचने में कामयाब रहे.’
थोड़ी ही देर में पाकिस्तानियों की मशीनगन की गोलियों से यादव के सभी साथी मारे गए. पाकिस्तानियों की पूरी कोशिश के बाद भी कि उनमें से कोई बचने ना पाए, योगेंदर यादव अभी तक बचे हुए थे. पाकिस्तानी मरे हुए जवानों पर भी गोलियां चला रहे थे. जब उनकी बगल में उनके मरे हुए साथी पर पाकिस्तानी सैनिकों ने चार गोलियां दागीं तो योगेंदर ने अपनी आंखें बंद कर लीं और अपनी बारी का इंतजार करने लगे.
जब योगेंदर आंखें बंद कर लेटे हुए थे तो एक पाकिस्तानी सिपाही ने उनके करीब आकर उन पर गोली चला दी. लेकिन योगेंदर फिर भी बचे रहे. सभी भारतीय सैनिकों के मारे जाने से संतुष्ट पाकिस्तानियों ने मुश्कोह घाटी स्थित अपने बेस कैंप को संदेश भेजा कि पहाड़ पर मौजूद भारतीय सैनिकों को खत्म किया जा चुका है. अब नीचे एक भारतीय एलएमजी चौकी मौजूद है, उसे भी खत्म करना चाहिए.
योगेंदर सिंह को पता था कि पहाड़ पर नीचे उनके 18 बिछड़े हुए साथी फंसे हुए हैं. अपने साथियों को बचाने के लिए योगेंदर के भीतर जिंदा रहने की जिद पैदा हो गई और वे बेहोश ना होने की कोशिश करने लगे.
इस गोलीबारी से पाकिस्तानी खेमे में हड़कंप मच गया. क्योंकि पाकिस्तानी सैनिक ये मान चुके थे कि सारे भारतीय सैनिक मारे गए हैं इसलिए उन्होंने सोचा शायद नीचे से सैनिक मदद आ पहुंची है. इसके बाद पाकिस्तानी सैनिक घबराकर वहां से भाग निकले.
घंटों दर्द से कराहने के बाद योगेंदर सिंह यादव रेंगकर नीचे पहाड़ी पर फंसे अपने 18 जवानों के पास पहुंचे, जिसके बाद जवान उन्हें अपने कंधों पर उठाकर नीचे कैंप में ले आए. योगेंदर सिंह यादव को इसके तीन दिन बाद 9 जुलाई को होश आया, तब उन्हें टाइगर हिल से श्रीनगर के बेस हॉस्पिटल में आए तीन दिन हो चुके थे.
योगेंदर सिंह यादव जब कारगिल में लड़ने के लिए गए उस वक्त उनकी उम्र महज 19 साल थी.
(रचना बिष्ट की किताब ‘शूरवीर’ के आधार पर)
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