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प्रिय जम्मू, मुझे आपकी बेटी होने पर शर्म आ रही है
शर्मिंदा हूं कि आप, मेरे लोगों ने, 8 साल की एक लड़की को सताया और एक पूजास्थल के अंदर उसपर जुल्म किया. उसके खानाबदोश बकरवाल समुदाय को गांव से बाहर निकालने के लिए बेरहमी से उसे मार डाला.
मुझे शर्म आ रही है कि आप, मेरे लोगों ने उन बलात्कारी-हत्यारों के बचाव में रैलियां निकाली और उन दरिंदों के समर्थन में अपने देश का नाम इस्तेमाल किया.
वो मासूम 8 साल की थी. मैं खुद को उसकी सहमी आंखों के बारे में सोचने से नहीं रोक सकती, जिसने अपने अंतिम पलों में इस बीमार समाज की कट्टरता को देखा था, खुद. मेरे पिता के पैतृक गांव कठुआ में उसे बांधकर रखा गया था और उसपर जुल्म ढाए गए थे. हर बार मैं हताश हो जाती हूं जब भी मैं "हिरण" की तरह दौड़ती, "चहकती चिड़िया" को चित्रित करने की कोशिश करती हूं. मीडिया ने भले ही उन आंखों के बारे में खुलासा न किया हो पर मुझे पता है कि वो आंखें क्या कहना चाहती थी.
8 साल का मासूम चेहरा- वो बड़ी, चमकदार आंखें, और वो तीखी नाक- मुझे मेरे बचपन के बकरवाली सहेलियों की याद दिलाती है. जम्मू में बड़े होते हुए हम एक ही चीजों पर हंसा-खिलखिलाया करते थे. एक ही टीचर के बारे में शिकायत करते थे, एक दूसरे के साथ टिफिन शेयर करते थे. और परेशानियों से मायूस होकर दिक्कतों को शेयर करते थे. जिंदगी में तब ऐसी घृणा नहीं थी.
ऐसा नहीं है कि मेरे बचपन में भेदभाव बिल्कुल मौजूद नहीं था "वे (बकरवाल) गंदे लोग हैं", हमें बताया गया था "उनसे दूर रहो". ये भेदभाव की बात है. यह एक घाव की तरह है. इसे अगर ऐसे ही अनदेखा करते रहे तो यह हमारे घरों, स्कूलों, समुदायों में पसरता जाएगा.
बकरवाल कब से और क्यों हमारी आंखों का कांटा बन गए - मुझे आश्चर्य हुआ जब मैंने इस निर्मम मामले का ब्योरा पढ़ा- ये लोग एक साजिश के तहत लगातार, बारी-बारी से उसके साथ बलात्कार करते रहे और एक पत्थर से उसके सिर पर वार किया. ये सब सिर्फ एक गांव से बकरवाल मुस्लिम समुदाय को "बेदखल" करने के लिए किया गया.
और आप, जम्मू हाई कोर्ट बार एसोसिएशन (जेएचसीबीए) के वकील, जब आप पीड़िता के वकील दीपिका सिंह राजावत को मामले को वापस लेने के लिए धमकी दे रहे थे, तो क्या आपकी समझ ने आपको नहीं रोका. आपने उसे खतरा बताते हुए गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी?
हां, यह एक भावनात्मक प्रतिक्रिया है क्योंकि मैं अभी तार्किक रूप से नहीं सोच सकती, क्योंकि मुझे एक ऐसी चीज का सामना करना पड़ रहा है जिसने मेरी अंतरात्मा को झकझोर दिया है. और नहीं, मैं उन शब्दों के पीछे नहीं छिप सकती जो किसी को आहत न कर दें.
यह व्यक्तिगत तकलीफ है. क्योंकि यह मेरी पहचान के दो हिस्सों पर गहरा असर कर रहा है. एक जम्मू डोगरा होने के नाते और दूसरी एक महिला होने के नाते.
मैं अभी से ही विरोधियों को कश्मीरी पंडित महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों पर मेरी 'चुप्पी', 'सेलेक्टिव गुस्सा' को लेकर हमला करते सुन सकती हूं.
उनके लिए, मैं यह कहना चाहूंगी, कि मुझे आपके सवालों में कोई दिलचस्पी नहीं है? क्योंकि दो गलत मिलकर सही नहीं बनाते हैं. और दो बलात्कार की तुलना से बलात्कार मुक्त वातावरण नहीं बन सकता है.
मेरा मानना है कि एक अपराध में शामिल होने के बजाय, सच को स्वीकार करने में अधिक महानता है.
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