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इन दिनों खिचड़ी पर चर्चा एकदम गर्म है. मात्रा के दम पर खिचड़ी ने गिनीज बुक में अपना नाम पीले (सुनहरे) अक्षरों में दर्ज करा लिया है. आइए, इस ऐतिहासिक मौके पर खिचड़ी के पीछे छुपे मैसेज को पकड़ने की कोशिश करते हैं.
सबसे पहले कुछ सवाल. ऐसा कौन है, जिसने अब तक खिचड़ी नहीं पकाई? ऐसा कौन है, जिसे अब तक खिचड़ी ने नहीं पकाया? खिचड़ी को राष्ट्रीय व्यंजन का दर्जा दिलाने की चाहत के पीछे कौन-सी भावना काम कर रही है? इन सवालों के जवाब खिचड़ी के भीतर से ही निकालने की कोशिश करते हैं.
खिचड़ी पकाने के लिए जिन दो चीजों की जरूरत पड़ती है, उनमें एक स्त्रीलिंग है, दूसरा पुलिंग. चावल पुलिंग क्यों है, दाल स्त्रीलिंग क्यों है, किसी को नहीं मालूम. बस इतना पता है कि अगर दोनों को साथ-साथ आंच दी जाए, तभी खिचड़ी पकती है. अलग-अलग पकाने पर इनके नाम और स्वभाव में कोई फर्क नहीं पड़ता.
खिचड़ी को 'सम्मान' या उसका वाजिब हक दिलाने के पक्ष में एक तर्क ये भी है कि इसे केवल गरीब-गुरबों का आहार नहीं समझा जाए. इसे तो देश के कई मंदिरों में प्रसाद के तौर पर चढ़ाया जाता है. यानी जो भगवान को चढ़ाया जाता है, उसे खाकर इंसान को भी गौरव महसूस करना चाहिए.
तर्क में दम है. इस देश में दरिद्र को भी शिष्टाचारवश दरिद्रनारायण कहने की परंपरा है. वही दरिद्रनारायण, जो कभी-कभार खिचड़ी के चावल का आधार तलाशते-तलाशते सो जाता है. इन दोनों नारायणों का फर्क बस इतना है कि एक सोकर देवोत्थान में जग सकते हैं. दूसरे के पास रीटेक का मौका नहीं होता.
खिचड़ी विविधता में एकता का नायाब नमूना नहीं, तो भला और क्या है. दो विपरीत ध्रुव की चीजों, मतलब चावल-दाल में चाहे जितनी चीजें मिलाते जाएं, सब खिचड़ी का हिस्सा बन जाती हैं. अलग रंग, रूप, स्वभाव आदि की चीजें साथ-साथ पककर खिचड़ी का हिस्सा बन जाती हैं.
ये अलग बात है कि इस एकता के लिए सबको एक ही प्रेशर कुकर में जबरन बंद रखा जाता है. टेंपरेचर ही इतना हाई कर देंगे, तो अपना अस्तित्व खोकर एकता तो अपनानी ही होगी.
खिचड़ी के पक्ष में एकजुटता दिखाने की ठोस वजह है. ये तो घर-घर पकती है. घर-घर खिचड़ी पकने की वजह यह है कि हर छत के नीचे का हाल कमोबेश एक जैसा ही होता है.
सिंगल हों और पेट भरने लायक और कुछ पकाना नहीं आता. शादीशुदा हों और मोहतरमा ने पकाने से मना कर दिया. बिस्तर पर लेटते-लेटते ऑफिस के लिए लेट हो रहे हों.
अचानक पकते हुए दिमाग की सीटी बजती है. खिचड़ी कहती है, ''मैं हूं ना!''
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