advertisement
बीते 27 अक्टूबर को मिथिलांचल के ऐसे युवा जिनकी शादी को एक साल हो चुका है और भारत के किसी दूसरे हिस्से में रहते हैं, अपने गृहजनपद दरभंगा और मधुबनी लौट आए.
वे यहां कोजाग्रत (या कोजाग्र) नाम का एक त्योहार मनाने आए थे, जिसमें उनके ससुराल के लोग उनकी खातिरदारी करते हैं. इस त्योहार में उन्हें उपहार दिए जाते हैं, और ससुराल की महिलाएं इन दामादों के लिए गीत गाती हैं. यही नहीं, इस दिन उन्हें सबसे अच्छा खाना भी खिलाया जाता है.
‘अगड़ी जाति’ के युवा भारत के विभिन्न भागों से, जिनमें पंजाब, हरियाणा, जम्मू, दिल्ली और कोलकाता प्रमुख हैं, मिथिलांचल लौटे हैं. वहां ये युवा बतौर प्रवासी मजदूर काम करते हैं.
इस बार उनकी ‘घर वापसी’ लगभग उसी समय हुई है, जब मिथिलांचल और सीमांचल में 5 नवंबर को बिहार विधानसभा चुनावों के पांचवें और अंतिम चरण के वोट पड़ने वाले हैं. इनके आने से परंपरागत रूप से अगड़ी जातियों का वोट पाने वाली पार्टी बीजेपी का वोट बेस बढ़ा है.
मधुबनी में हिंदी अखबार प्रभात खबर के प्रतिनिधि रमन मिश्रा कहते हैं, ‘इस कोजाग्रत पर मिथिलांचल में बीजेपी अपने पक्ष में 25% ज्यादा वोट पड़ने की उम्मीद कर सकती है.’
हालांकि यह संख्या काफी ज्यादा लगती है, लेकिन इतना तो तय है कि कोजाग्रत त्योहार की वजह से बिहार के ऐसे काफी युवा, जो अपने प्रदेश से दूर भारत के विभिन्न इलाकों में मजदूरी के लिए जाते हैं, अपनी छुट्टियां बढ़ाकर 5 नवंबर को वोट करने जाएंगे.
कोजाग्रत बिहार के बाकी हिस्सों में नहीं मनाया जाता है, और वर्तमान चुनावों में इन इलाकों में वोटर टर्नआउट औसत दर्जे का रहा है. पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे चरण में वोटर टर्नआउट क्रमश: 54.85%, 54.99%, 54.24% और 57.59% प्रतिशत रहा है.
कुल मिलाकर देखा जाए तो बिहार में मतदान का अब तक का औसत 55.41% ठहरता है, जिसकी वजह प्रवास की ऊंची दर है. राज्य के पुरुषों के प्रवास की वजह से ही यहां की महिलाओं का वोटर टर्नआउट ऊंचा नजर आता है.
औसत मतदान बिहार के लिए नई बात नहीं है. वर्ष 2010 के विधानसभा चुनावों में 52.73% वोट पड़े थे, जबकि 2005 के विधानसबा चुनावों में मतदान का औसत 45.85% रहा था. 2014 के लोकसभा चुनावों में बिहार के 56.28% वोटरों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था.
इन तीनों चुनावों में सबसे खास बात महिलाओं का टर्नआउट ज्यादा होना रहा था, जिससे पता चलता है कि पुरुषों द्वारा कम वोटिंग का कारण राज्य के 38 में से अधिकांश जिलों से उनका काम की तलाश में बाहर जाना है.
चौथे चरण में हुए कम या औसत मतदान से इस बात का पता लगाना मुश्किल है कि मतदाताओं ने किस गठबंधन को ज्यादा समर्थन दिया है.
बिहार के ग्रामीण इलाकों से उत्तरी भारत की तरफ प्रवास की दर हमेशा से ऊंची रही है. इन प्रवासियों में हरेक जाति-धर्म के लोग होते हैं, जिनमें सबसे ज्यादा संख्या मुसलमानों की होती है. इनमें से भी अधिकांश दिहाड़ी मजदूर, खेतिहर मजदूर और आंशिक रूप से किसान होते हैं.
भारत में आए यूरोपियन यूनियन डेलिगेशन के साथ की गई इंस्टिट्यूट ऑफ सोसल साइंसेज की एक स्टडी के मुताबिक, भारत के 58% प्रवासी ‘आधिकारिक गरीबी रेखा से नीचे’ की श्रेणी में आते हैं.
इससे पता चलता है कि इन इलाकों में आने वाली बाढ़ और उच्च जन्म दर जैसे कारण लोगों को आजीविका की तलाश में बिहार के बाहर जाने के लिए मजबूर करते हैं. इस स्टडी के मुताबिक गया, औरंगाबाद और भोजपुर (वे तीन जिले जहां सर्वेक्षण किया गया) के 65% परिवारों के पास खेती योग्य जमीन नहीं है, जबकि 81% परिवारों के पास एक एकड़ से भी कम जमीन है.
हालांकि मनरेगा स्कीम के आने के बाद दूसरे राज्यों को जाने वाले मजदूरों की संख्या में थोड़ी कमी आई है, लेकिन काम कम होने, मांग ज्यादा होने और मजदूरी मिलने में देरी होने की वजह से इसका भी कुछ खास असर नहीं हो पाया है.
मैं 23 से 31 अक्टूबर के बीच बिहार के पटना (ग्रामीण), वैशाली, भोजपुर, बक्सर, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी, अररिया, सुपौल, पुर्णिया और किशनगंज जिलों में गया. इन सभी जिलों में राष्ट्रीयकृत बैंकों की शाखाएं मिलीं, जो संकरी लेकिन अच्छी सड़कों से जुड़ी हुई हैं.
राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में अपने दो कार्यकालों में नीतीश कुमार का यही एकलौता योगदान रहा है. हालांकि इन बैंकों में खाते भी खुले हैं, लेकिन मजदूरी के अलावा इन खातों में बाकी किसी भी किस्म का पैसा जमा नहीं है.
पूर्णिया जिले के डगरुआ ब्लॉक के अंतर्गत आने वाले गांव फूलपुर चकदा के महादलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले मुखिया बालाजी राय कहते हैं कि गांव से मुसलमान भारी संख्या में बाहर गए हैं.
फूलपुर-चकदा में कुल मिलाकर 1,046 मतदाता हैं, जिनमें से लगभग 900 मुस्लिम हैं. अधिकांश मुस्लिम प्रवासी पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश राज्यों में जाकर सड़क निर्माण में लगे हैं या फिर इनमें या अन्य उत्तर भारतीय राज्यों में जाकर खेतों में काम कर रहे हैं.
राय ने कहा, ‘उनमें से अधिकांश मौसमी प्रवासी हैं जो दशहरा के बाद गए हैं नवंबर के लगभग मध्य में होने वाली छठ पूजा के आसपास लौट आएंगे.’. राय ने यह भी बताया कि जाने वाले लोगों में कुछ यादव और अति पिछड़ा वर्ग के लोग भी हैं. ये सभी अशिक्षित और बेरोजगार हैं.
फूलपुर-चकदा के महादलित या तो भूमिहीन हैं या मुसलमानों और यादवों के खेतों पर बंटाई पर काम करते हैं. राय के छह भाइयों में से एक दोकईलाल राय, लदवा गांव के मिडिल स्कूल में पढ़ाते हैं और उनके पास अपने वेतन के अलावा आय का कोई अन्य स्त्रोत नहीं है. अपने भाई के अपेक्षाकृत बड़े घर के सामने खड़ी दो कमरों की अपनी झोपड़ी की तरफ इशारा करते हुए दोकईलाल कहते हैं, ‘मेरे पास कुल मिलाकर यह घर ही है.’
भले ही महादलित भूमिहीन हैं, लेकिन वे नीतीश कुमार के शासन में अपने आपको सशक्त महसूस करते हैं. नीतीश ने मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में कुछ उपजातियों को महादलित समुदाय में शामिल कर सामाजिक सीमाओं का विस्तार किया है.
इसी के साथ महादलितों और अति पिछड़ा वर्ग को पंचायत सीटों में 20% आरक्षण देना एक पॉलिटिकल मास्टर-स्ट्रोक साबित हुआ है और उम्मीद है कि नीतीश इस बार इसकी फसल काटेंगे.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)