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संडे व्यू: कैसे हो जजों की नियुक्ति? प्रतिष्ठा की लड़ाई बनी मैनपुरी

पढ़ें आज टीएन नाइनन, पी चिदंबरम, शरत प्रधान, तवलीन सिंह, मार्कण्डेय काटजू के विचारों का सार

क्विंट हिंदी
भारत
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<div class="paragraphs"><p>पढ़ें तवलीन सिंह, पी चिदंबरम, टीएन नाइनन, शोभा डे, रामचंद्र गुहा के विचारों का सार</p></div>
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पढ़ें तवलीन सिंह, पी चिदंबरम, टीएन नाइनन, शोभा डे, रामचंद्र गुहा के विचारों का सार

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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कार्यपालिका-न्यायपालिका में खुली तकरार

पी चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि जज की नियुक्ति के मामले में केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ के बीच चल रहा विवाद अप्रिय है. दोनों के बीच सार्वजनिक हुआ संवाद भी स्वीकार्य नहीं हो सकता. अनुच्छेद 124 (2) और 217 (1) की व्याख्या को लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच गहरे मतभेद दिख रहे हैं. चालीस साल की प्रथा यह थी कि राज्य सरकार संबंधित उच्च न्यायालय से परामर्श करके नामों को केंद्र सरकार के पास भेजा करती थी. फिर केंद्र सरकार अनुच्छेद 217 में वर्णित प्रक्रिया का पालन करते हुए उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति किया करती थी. इसी तरह केंद्र सरकार नामों का प्रस्ताव करती और अनुच्छेद 124 में वर्णित प्रक्रिया का पालन करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती.

चिदंबरम बताते हैं कि 1993 और 1998 में न्यायिक व्याख्या के बाद स्थिति बदली. कॉलेजियम नामक तंत्र का आविष्कार हुआ. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के लिए न्यायाधीशों के चयन की शक्ति अपने हाथों में ले ली.

अब केंद्र सरकार सिफारिश को स्वीकार या फिर वापस कर सकती थी. दोबारा भेजे जाने की स्थिति में सरकार नियुक्ति करने को बाध्य होती है. मगर, नियुक्तियों को रोकना केंद्र सरकार का नियमित अभ्यास बन गया है. कॉलेजियम की दोबारा भेजी गयी सिफारिशों को भी रोक दिया जाने लगा है. यही समस्या है. कार्यपालिका का मजबूत तर्क यह है कि दुनिया के किसी भी अन्य देश में खुद न्यायाधीश, नए न्यायाधीशों का चयन नहीं करते हैं.

वहीं, न्यायपालिका का मजबूत तर्क यह है कि सेवारत न्यायाधीश वकालत करने वाले वकीलों और सेवारत जिला न्यायाधीशों के बारे में सबसे अच्छी तरह जानते हैं. लेखक कार्यपालिका और न्यायपालिका से राजकीय कौशल दिखाने की अपेक्षा रखते हैं.

प्रतिष्ठा की लड़ाई बनी मैनपुरी

शरत प्रधान डेक्कन हेराल्ड में लिखते हैं कि उत्तर प्रदेश में मैनपुरी लोकसभा सीट और रामपुर सदर एवं खतौली विधानसभा सीटों पर हो रहे उपचनाव यूपी की सियासत में बेहद महत्वपूर्ण हो गये हैं. समाजवादी पार्टी के लिए अपने गढ़ मैनपुरी को बचाना जहां चुनौती है. वहीं, बीजेपी आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट के बाद अब मैनपुरी पर भी कब्जा करने को आतुर है.

शरत प्रधान लिखते हैं कि आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीटें क्रमश: अखिलेश यादव और आजम खां के इस्तीफा देने से खाली हुई थीं, जिनपर बीजेपी ने कब्जा कर यूपी की सियासत में बड़े परिवर्तन का रुख दिखलाया था. वहीं, अगर समाजवादी पार्टी के संरक्षक दिवंगत मुलायम सिंह की सीट मैनपुरी पर भी बीजेपी कब्जा कर लेती है, तो अखिलेश यादव से विरासत की सियासत छिन जाने का संकेत जाएगा.

यही कारण है कि शिवपाल यादव के चरण छूने का कोई मौका अखिलेश यादव और डिंपल यादव ने नहीं छोड़ा है. अखिलेश के लिए यह सीट इसलिए भी अहम है कि न सिर्फ उनकी पत्नी चुनाव मैदान में है, बल्कि चुनाव लड़ने के तरीके ने इसे यादव कुनबे पर परिवार की पकड़ का विषय बना दिया है. बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. बड़ी संख्या में मंत्री, विधायक चुनाव प्रचार कर रहे हैं. वहीं, समाजवादी पार्टी को अपने सियासी समीकरण और परिवार की एकता का भरोसा है.

बसाए क्यों नहीं जाते विस्थापित पंडित?

तवलीन सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि 'कश्मीर फाइल्स' पर जब हंगामा शुरू हुआ तब वह न्यूयॉर्क में थीं. अपनी यहूदी दोस्त के साथ खाना खा रही थीं, जो इजराइल के अखबार पढ़ती हैं. उसने बताया कि इजराइल के राजदूत ने भारत सरकार से माफी मांगी है. पूरा मामला समझने पर वह चौंक गयी. उसके मन में सवाल उठे कि कश्मीरी हिंदुओं का पलायन रोका क्यों नहीं गया? आज जब दिल्ली में हिंदू हृदय सम्राट गद्दी पर आसीन हैं, तो कश्मीरी हिंदुओं को वापस घाटी में बसाया क्यों नहीं जा रहा है?

तवलीन सिंह लिखती हैं कि उनके मन में सवाल है कि कश्मीरी पंडित क्यों नहीं केंद्र सरकार के समर्थन से लाखों की तादाद में वापस घाटी में बसने की मांग कर रहे हैं? वहां शांति नहीं लौटना ही इसकी मुख्य वजह हो सकती है.

दोष कश्मीर के राजनेताओं का तो है ही, दिल्ली के राजनेताओं का भी है. 'कश्मीर फाइल्स' में महत्वपूर्ण मुद्दों को गहराई से उठाने के बजाए सिर्फ जिहादियों की दरिंदगी पर ध्यान दिया गया है. इजराइली फिल्म निर्देशक नदव लापिड को लगा कि फिल्म सरकारी प्रचार के लिए बनायी गयी है. वहीं, फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री कह रहे हैं कि उनकी सोच अर्बन नक्सल वाली है.

लेखक अपने अनुभव से लिखती हैं कि कश्मीर की समस्या को इस फिल्म में भड़काऊ तरीके से पेश किया गया है. घाटी की आधी कहानी बतायी गयी है. जिस तरह से देश भर में हिंदू भड़क गये हैं, उससे साबित होता है कि शायद निर्देशक का उद्देश्य नफरत और क्रोध फैलाना ही था. जितनी आजादी है फिल्म निर्देशकों को अपनी मर्जी से फिल्म बनाने की, उतनी ही आजादी है फिल्म देखने वालों को फिल्म देखकर उसकी आलोचना करने की.

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चीन-ईरान की तरह भारत में भी होंगी चौंकाने वाली घटनाएं!

टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि भारत के लिए दो बातें एकदम निश्चित नजर आ रही हैं. संकटग्रस्त वैश्विक अर्थव्यवस्था के बीच भारत आर्थिक शक्ति के रूप में उभरना जारी रखने वाला है और दूसरा भारतीय जनता पार्टी का दबदबा भी बकरार रहेगा. उसे चुनावों में जीत मिलती रहेगी. नहीं भी मिली तो वह किसी और तरीकों से सत्ता में आ ही जाएगी. दूसरी बात का ही एक और पहलू यह है कि बीजेपी पूरी तरह से नरेंद्र मोदी पर निर्भर होती जा रही है. ठीक वैसे ही, जैसे कभी कांग्रेस इंदिरा गांधी पर निर्भर थी. चुनाव प्रबंधन की विशेषज्ञता के लिए पार्टी अमित शाह पर निर्भर है.

नाइनन लिखते हैं कि चौंकाने वाली घटनाएं भी घटती हैं. चीन में शी जिनपिंग और ईरान में अयातुल्लाह के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन ऐसी ही घटनाएं हैं. एक इमारत में लगी आग से कुछ लोगों के जल मरने की खबर से चीन में और हिरासत में एक महिला की मौत के बाद ईरान में ये विरोध प्रदर्शन हुए. भारत में भी सीएए और कृषि कानूनों के विरोध में हुए प्रदर्शनों के बाद मोदी सरकार को अपने कदम खींचने पड़े थे. फिर भी स्वायत्त आवाज को दबाने की कोशिश रुकने वाली नहीं है.

सरकार के एक मित्रवत टीवी चैनल का एक स्वतंत्र टीवी चैनल पर नियंत्रण ताजा उदाहरण है. स्वास्थ्य और शिक्षा में निरंतर कम निवेश की स्थिति बदलने वाली है. ऐसे लोगों में बेरोजगारी बची रहेगी जो वास्तव में रोजगार योग्य नहीं हैं. बढ़ती असमानता भी चिंता का विषय है. बेहतर होगा कि सरकार उपायों पर काम करे बजाए इसके कि वह उन चीजों पर टिके रहे जिसे मार्क्स ने अफीम कहा था.

आतंकवाद से भारत को खुद लड़ना होगा

मार्कण्डेय काटजू द टेलीग्राफ में लिखते हैं कि भारत ने वैश्विक सुरक्षा के मुद्दों और खासकर आतंकवाद पर दुनिया का ध्यान खींचने के लिए ठोस प्रयास किए हैं. महीने भर के भीतर इंटरपोल की जनरल असेंबली, यूएन की आतंकरोधी कमेटी की विशेष बैठक और आतंकवाद को आर्थिक मदद के विरोध में मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में भारत ने शिरकत की है. हालांकि दुनिया की अहम ताकतों की प्राथमिकता में आतंकवाद का स्थान कमजोर हुआ है. उनका ध्यान यूक्रेन पर रूसी हमले और उसके बुरे वैश्विक नतीजों, खासकर यूरोपीयन यूनियन के संदर्भ में रहा है.

काटजू लिखते हैं कि न तो चीन और न ही अमेरिका को वास्तव में कभी आतंकवाद का खतरा महसूस हुआ. अलकायदा प्रमुख और अल जवाहिरी को मारकर अमेरिका ने और उइघरों के खिलाफ कार्रवाई कर चीन ने अलग तेवर दिखलाए हैं. भारत के वैश्विक एजेंडे पर आतंकवाद बना हुआ है.

एनएमएफटी कॉन्फ्रेंस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, "हमारे इरादा आतंकवाद के खिलाफ अगले चरण में दुनिया को एकजुट करना है."

नरेंद्र मोदी ने बहुत सही कहा कि आतंकवाद का शिकार केवल वही लोग नहीं हैं जो मारे गये हैं, बल्कि वे लोग भी हैं जिनकी जीविका तबाह हुई है. नरेंद्र मोदी ने कहा, "कुछ देशों की विदेश नीति का हिस्सा है आतंकवाद का समर्थन करना."

भारत ने यह रुख बीते 30 साल से अपना रखा है. मगर, हाल में एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट से पाकिस्तान का बाहर आना बताता है कि इसके बहुत अच्छे नतीजे नहीं निकले हैं. चीन और पाकिस्तान की मिली भगत से भारत विरोधी आतंकवाद को शह दिया जाता रहा है.

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