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मणिपुर हिंसा के लिए कौन दोषी? कुकी-मेइती समुदाय की जुबानी विभाजन की असल वजह

Manipur Violence: एक मणिपुरी ने कहा कि हिंसा ने कुकी और मेइती, दोनों समुदायों को समान रूप से प्रभावित किया है

मधुश्री गोस्वामी
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>Manipur&nbsp;Violence</p></div>
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Manipur Violence

(फोटो: द क्विंट द्वारा एक्सेस किया गया)

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"आज-कल, जब भी मेरा फोन बजता है, मेरा जेहन डर से भर जाता है. मैं हमेशा सबसे बुरे के बारे में सोचता हूं." यह बात कोलकाता के रहने वाले कृष्णा बंधोपाध्याय ने द क्विंट से कही.

कृष्णा बंधोपाध्याय की बेटी आहेल इंफाल के रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में एमडी कर रही हैं. पिछले महीने, उन्हें मोरेह - भारत-म्यांमार सीमा पर स्थित मणिपुर के एक शहर - में एमडी प्रोग्राम (MD या MS करने वाले छात्रों की तीन महीने के लिए जिला हॉस्पिटल में पोस्टिंग की जाती है) के हिस्से के रूप में तैनात किया गया था.

"4 मई को, आहेल ने मुझे फोन किया और मुझे बताया कि उसे 10 मिनट के भीतर उस हॉस्पिटल को खाली करने के लिए कहा गया था, जहां वह काम कर रही थी. वह केवल अपने साथ अपना लैपटॉप ले जा सकती थी. उसने कहा कि उसे मोरेह में एक आर्मी कैंप में ले जाया जा रहा है. वे बस शिविर में हमले के लगातार डर में जी रहे हैं. मेरी बेटी को वहां से कब निकाला जाएगा, इस पर कोई जवाब नहीं है."
कृष्णा बंधोपाध्याय

अहेल उन कई लोगों में से एक हैं, जो मणिपुर में जारी हिंसा के बाद वहां फंस गयीं. मणिपुर में 3 मई को बहुसंख्यक मेइती को अनुसूचित जनजाति (ST) श्रेणी में शामिल करने के विरोध में निकाले गए आदिवासी एकजुटता मार्च के बाद हिंसा भड़क गए थे.

द क्विंट ने मेइती और कुकी दोनों समुदायों के लोगों से दो समूहों के बीच बढ़ती खाई पर बात की - और उनसे यह भी पूछा कि वे इस हिंसा के केंद्र में मौजूद मुद्दों पर क्या कहते हैं?

'अपना घर खोने से सदमे में हैं लोग'

कुकी जनजाति से संबंध रखने वाले एक रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी जॉन चोंगथम (बदला हुआ नाम) 4 मई से इंफाल के पास एक केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) शिविर में हैं.

उन्होंने क्विंट को बताया, "4 मई को, इंफाल के पास हमारे क्षेत्र में एक भीड़ के हमले के बाद हमें सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया. स्थिति आदर्श नहीं है. खाना खत्म हो रहा है, शौचालयों में पानी खत्म हो रहा है. लोग यहां अपने घरों को खोने के बाद सदमे में आ गए हैं. हम बस बचाए जाने का इंतजार कर रहे हैं."

इंफाल के पास एक शिविर में आदिवासियों को रखा गया है.

(फोटो: द क्विंट द्वारा एक्सेस किया गया)

मेइती लोगों के लिए ST दर्जे के ज्वलंत मुद्दे पर बात करते हुए उन्होंने कहा:

"मुद्दा बहुसंख्यक समुदाय का है जो हाशिए पर मौजूद समुदाय का दर्जा चाहता है. मेइती राज्य के साथ-साथ विधानसभा में संख्या में बड़े हैं, उनकी जिंदगी अच्छी गुजर रही है, राज्य पर शासन करते हैं. इसलिए, यह उनके लिए हमारे जैसा स्टेटस खोजने का कोई मतलब नहीं है.”

मेइती की आबादी नागा और कुकी की संयुक्त आबादी से अधिक है.

'मेइती समुदाय की स्थिति बेहतर होने के बारे में तर्क झूठा है'

राजकुमार सिंह (बदला हुआ नाम), मणिपुर के मोइरांग शहर के एक दुकानदार हैं और वे मेइती लोगों के लिए बनाए गए एक राहत शिविर में काम कर रहे हैं.

उन्होंने कहा, "हर गुजरते दिन के साथ, हम कैंप में लोगों की एक बड़ी बाढ़ आते देख रहे हैं. लोगों के घरों को जला दिया गया है, क्षतिग्रस्त कर दिया गया है, और तोड़फोड़ की गई है. कुछ लोग हैं जो शिविर में खाली हाथ आए हैं, उनकी तन पर सिर्फ कपड़े हैं. चारों ओर अराजकता फैली है. हमें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि इन लोगों को कब रेस्क्यू किया जाएगा."

राजकुमार सिंह ने द क्विंट से दावा किया कि हिंसा के लिए कुकी समुदाय को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. उन्होंने कहा, "एकजुटता मार्च शांतिपूर्ण होना चाहिए था. जिला प्रशासन ने ठीक इसी वजह से मार्च की अनुमति दी थी."

उन्होंने आगे दावा किया कि कुकी समुदाय के बीच एक "बंदूक संस्कृति/ गन कल्चर" है - और उन्हें रैली के ऐसे वीडियो मिले जिसमें कुकी जनजाति के लोग एके -47 राइफल के साथ दिख रहे थे. राजकुमार ने पूछा, "वे तथाकथित शांतिपूर्ण रैली में हथियार क्यों लहरा रहे थे?"
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'उन्हें एसटी का दर्जा देने से हमारे अधिकारों का हनन होगा'

विलियम हाओकिप (बदला हुआ नाम), इम्फाल के पड़ोस में न्यू लैंबुलेन के निवासी हैं और एक कॉलेज में लेक्चरर हैं. उन्होंने द क्विंट से कहा कि मेइती और आदिवासी समुदायों के बीच अविश्वास की भावना पैदा हो गई है.

उन्होंने दावा किया, "यह घर में नजरबंद होने जैसा है. हम मेइती द्वारा पीट-पीटकर हत्या किए जाने के डर से घर से बाहर नहीं निकल सकते."

"मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सभी मैतेई एक जैसे हैं. लेकिन हमारे साथ भी भेदभाव किया गया है. ऐसे उदाहरण हैं जहां आदिवासी होने के कारण हमें उनके घरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई है."
विलियम हाओकिप

हाओकिप के अनुसार, मेइती समुदाय के पास पहले से ही पर्याप्त सुरक्षा उपाय/सेफगार्ड हैं, और इसलिए, उन्हें एसटी श्रेणी में शामिल नहीं किया जाना चाहिए.

इंफाल के पास एक शिविर

(फोटो: द क्विंट द्वारा एक्सेस किया गया)

मंत्रीपुखरो, इंफाल में असम राइफल्स का शिविर

(फोटो: द क्विंट द्वारा एक्सेस किया गया)

"कुछ मेइती समुदाय पहले से ही ओबीसी और एससी श्रेणियों में शामिल हैं, और इसलिए, उन्हें एसटी स्टेटस की आवश्यकता नहीं है. वे अच्छी स्थिति में हैं और सभी सुविधाओं और संसाधनों तक उनकी पहुंच है. चाहे वह शिक्षण संस्थानों की बात है या स्वास्थ्य सुविधाओं की. इंफाल घाटी, जहां वे रहते हैं, वहां अच्छे स्कूल, कॉलेज और अस्पताल हैं. जबकि पहाड़ी इलाकों में, जहां हम जनजातियां रहती हैं, ऐसी सुविधाएं नहीं हैं. वहां कोई विकास नहीं है."
विलियम हाओकिप

उन्होंने कहा, "उन्हें एसटी का दर्जा देने का मतलब हमारे अधिकारों पर अतिक्रमण होगा. अगर उन्हें पहाड़ी इलाकों में रहने की अनुमति दी गई तो वे हमें बाहर निकाल देंगे."

'NRC पर बीरेन सिंह के जोर ने आदिवासियों को सहमा दिया है'

दिल्ली में मणिपुर छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष डॉ रोजेश श्रीराम ने द क्विंट को बताया कि यह तर्क कि मणिपुर सरकार ने हाल ही में आदिवासी क्षेत्रों को संरक्षित वनों के रूप में अधिसूचित करना शुरू किया है, त्रुटिपूर्ण है.

उन्होंने कहा, "सरकार ने (CM) एन बीरेन सिंह के सत्ता में आने से पहले ही इन क्षेत्रों को संरक्षित वनों और आरक्षित वनों के रूप में अधिसूचित कर दिया था. कुकी डरे हुए हैं कि संरक्षित जंगलों से सरकार द्वारा बाहर निकाले जाने का मतलब अफीम की खेती का अंत होगा."

उन्होंने आदिवासी समुदायों के उन डर को भी खारिज कर दिया कि मेइती लोग उन पर हावी हो रहे हैं और उनके अधिकारों का हनन कर रहे हैं.

"मेइती समुदाय के लोग भले ही संख्यात्मक रूप से बड़े हो सकते हैं, लेकिन हमारे पास रहने के लिए उपलब्ध भूमि के संदर्भ में, यह इंफाल के कुल भूमि क्षेत्र का लगभग 10% ही है. शेष 90% पहाड़ी क्षेत्र है जहां केवल आदिवासी निवास कर सकते हैं. हम, मेइती, जमीन खरीदकर वहां बस नहीं सकते. यह संभव नहीं है. इसलिए, वे कैसे दावा कर सकते हैं कि हम उनकी जमीन ले रहे हैं.'

उन्होंने यह भी दावा किया कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के लिए राज्य सरकार के जोर ने आदिवासी समुदाय, विशेषकर कुकी को सहमा दिया है. पिछले महीने, मुख्यमंत्री सिंह ने कहा था कि उनकी सरकार एनआरसी लागू करने के लिए तैयार है, लेकिन केंद्र सरकार का अप्रूवल लंबित था.

'अफीम की खेती पर नकेल'

साइकिलिस्ट और सामाजिक कार्यकर्ता फिलेम रोहन सिंह मेइती-ईसाई समुदाय से हैं, और मूल रूप से मोइरांग के रहने वाले हैं. लेकिन वो वर्तमान में बेंगलुरु में रहते हैं. उन्होंने द क्विंट को बताया कि हिंसा ने कुकी और मेइती समुदायों को समान रूप से प्रभावित किया है.

उन्होंने कहा, "विश्वसनीय सूत्रों ने मुझे पुष्टि की है कि दोनों तरफ के लोगों ने अपने घरों को समान रूप से खो दिया है. चर्च और मंदिरों को जला दिया गया है."

रोहन सिंह के अनुसार, "मेरे दिल में कुकी समुदाय के खिलाफ व्यक्तिगत रूप से कुछ भी नहीं है. वास्तव में, एक ईसाई होने के नाते, मेरे पास शायद कुकी लोगों के साथ अधिक समानताएं हैं क्योंकि वे भी ईसाई हैं. लेकिन मैं इसके खिलाफ हूं कि हम मेइती लोगों पर सारा दोष मढ़ने के लिए अभियान चलाया जा रहा है, जो सच नहीं है."

उन्होंने कहा कि कुकियों के सरकार (जिसके प्रमुख एन बीरेन सिंह हैं, जो मेइती समुदाय से हैं) के खिलाफ होने के मुख्य कारणों में से एक अफीम की खेती पर कार्रवाई है.

"अफीम की खेती एक आकर्षक व्यवसाय है क्योंकि यह करोड़ों रुपये का मुनाफा दिलाता है. अफीम की अधिकांश खेती पहाड़ी क्षेत्रों में की जाती है जहां जनजातियां, विशेष रूप से कुकी रहती हैं. अफीम की खेती के कारण हरे-भरे पहाड़ी इलाकों में मणिपुर के कई हिस्से तबाह हो गए हैं."
रोहन सिंह

उन्होंने कहा, "सरकार केवल हरे-भरे जंगलों की रक्षा करना चाहती है, लेकिन वे इसको उनके खिलाफ निशाना बनाने की कार्रवाई मानते हैं. उन्हें डर है कि बेदखली अभियान चलाने का मतलब अफीम की खेती का अंत हो जाएगा... एक ईसाई के रूप में, साथ ही साथ अपने पिता को नशे की लत के परिणामों को देखकर, मैं पूरी तरह से ड्रग्स पर युद्ध के साथ खड़ा हूं."

ड्रग्स और अल्कोहल के खिलाफ गठबंधन के अनुसार, पिछले 20 वर्षों में, मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में अफीम की खेती कई गुना बढ़ गई है. इसके साथ-साथ मणिपुर की पहाड़ियों में खेती करने वाले "म्यांमार के कई अवैध निवासियों" की संख्या भी बढ़ी है.

उन्होंने दावा किया है कि इससे मणिपुर की जनसांख्यिकी में बदलाव आया है.

उन्होंने कहा, "मैं मैदान पर बड़े पैमाने पर काम करता हूं और इससे जानता हूं कि मणिपुर निश्चित रूप से एक जनसांख्यिकीय बदलाव (विशेष रूप से पहाड़ी इलाकों में) से गुजरा है." इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, फरवरी 2021 में सेना के सत्ता में आने के बाद लगभग 5,000 अप्रवासी संघर्ष प्रभावित म्यांमार से भागकर आए हैं.

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