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नबंवर 2018 में महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में मराठाओं ने आरक्षण के मुद्दे को लेकर आंदोलन किया था, जिसके बाद महाराष्ट्र विधानसभा में मराठाओं को सरकारी नौकरी और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण देने के लिए विधेयक पारित किया गया. महाराष्ट्र की सियासत में मराठा आरक्षण मुद्दा बहुत मायने रखता है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी है, जिससे ये मुद्दा फिर से तूल पकड़ सकता है.
महाराष्ट्र विधानसभा में नवंबर 2018 को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग अधिनियम 2018 को पारित किया गया था. इसके तहत सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में महाराष्ट्र में मराठों को 16 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था, जिससे प्रदेश में आरक्षण सुप्रीम कोर्ट की 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक हो गया.
सरकार के इस फैसले को बॉम्बे हाई कोर्ट में चैलेंज किया गया. लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट ने मराठा आरक्षण की वैधता को बरकरार रखा था. हालांकि हाई कोर्ट ने राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों के अनुसार इसे रोजगार के मामले में 12% एवं शैक्षणिक संस्थानों में 13% से अधिक नहीं करने का आदेश दिया था.
बॉम्बे हाई कोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, जिसमें कहा गया था कि ये फैसला इंदिरा साहनी मामले का उल्लंघन करता है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के अनुसार आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय की गई है. अपने फैसले में बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा था कि राज्य विशेष परिस्थितियों में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण दे सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से राजस्थान जैसे राज्यों को आरक्षण के मुद्दे पर विरोध का सामना करने के साथ अपनी रणनीति को भी बदलने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है. क्योंकि यहां विभिन्न समुदाय पहले से आरक्षण की मांग करते रहे हैं, जो सियासी पार्टियों और सरकारों के लिए एक चिंता का विषय है.
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