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मायावतीः दलितों की मसीहा बनी नेता के सामने वर्चस्व बचाने की चुनौती

पढ़िए- कैसे एक दशक में अर्श से फर्श पर पहुंच गई बीएसपी?

अंशुल तिवारी
भारत
Updated:
बीएसपी चीफ मायावती आबादी के लिहाज से सबसे बड़े सूबे यूपी की चार बार सीएम रह चुकी हैं
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बीएसपी चीफ मायावती आबादी के लिहाज से सबसे बड़े सूबे यूपी की चार बार सीएम रह चुकी हैं
(फोटोः PTI)

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देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में मायावती की पहचान 'दलितों की मसीहा' और उनकी पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की छवि 'दलित हितैषी दल' के रूप में रही है. लेकिन हाल के सालों में उत्तर प्रदेश में दलित वोटबैंक मायावती के पाले से खिसक रहा है और बीएसपी समेत उनकी पहचान धुंधली पड़ती जा रही है.

दलितों की नेता के तौर पर पहचान बनाने वाली मायावती का आज 62वां जन्मदिन है. इस मौके पर हम जानने कि कोशिश करेंगे कि कैसे कभी यूपी की बड़ी पार्टी रही बीएसपी महज दस सालों में अर्श से फर्श पर आ गई. इसके अलावा ये भी जानने की कोशिश करेंगे कि मायावती का मजबूत किला दरकने और उनके पाले का कोर वोट खिसकने के पीछे क्या वजहें रहीं.

कैसे एक दशक में अर्श से फर्श पर पहुंच गई बीएसपी?

साल 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों और फिर पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों से साफ हो गया है कि बीएसपी की जमीन खिसक रही है. 2014 लोकसभा चुनावों में बीएसपी का खाता भी नहीं खुला और 2017 विधानसभा चुनाव में वह 20 का आंकड़ा भी नहीं छू पाई.

सिर्फ दस साल में बीएसपी अर्श से फर्श पर आ गई. साल 2007 में बीजेपी ने 206 सीटें हासिल कर बहुमत के साथ सरकार बनाई थी. लेकिन अगले विधानसभा चुनाव में बीएसपी को करारी हार का सामना करना पड़ा और पार्टी 80 सीटों पर सिमट गई. बीते लोकसभा और विधानसभा चुनाव ने साफ कर दिया है कि मायावती को अब नए सिरे से कवायद करने की जरूरत है.

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पुराने पैंतरे फेल हो गए, नई टेक्निक चली नहीं

मायावती ने देश के सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझा और दलित मुद्दों को उठाते हुए अपनी आवाज बुलंद की. वर्चस्व बढ़ाने के लिए सोशल इंजीनियरिंग का भी बखूबी इस्तेमाल किया. कभी ‘तिलक तराजू और तलवार’ वाला नारा देकर दलितों के साथ-साथ दूसरी पिछड़ी जातियों को भी अपने पाले में किया तो कभी ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा हाथी बढ़ता जाएगा’ का नारा देकर अगड़ी जातियों का समर्थन हासिल किया.

लेकिन पार्टी को एंटी इंकंबैंसी, एससी-एसटी एक्ट पर विवाद समेत, दिग्गज नेताओं के पार्टी छोड़ जाने की वजह से नुकसान उठाना पड़ा. उधर, दलितों में असंतोष बढ़ा और इधर पार्टी का कोर वोट बैंक खिसकता गया.

साल 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने ‘जय भीम-जय मीम’ का नारा देकर समाजवादी पार्टी के वोट बैंक कहे जाने वाले मुस्लिमों को अपने पाले में लाने की कोशिश की, यहां तक कि चुनाव मैदान में अन्य दलों के मुकाबले सबसे ज्यादा मुसलमानों को टिकट दिया लेकिन वह सूबे में चल रही सियासी बयार का रुख नहीं भांप पाई.

इसके अलावा पत्रकारों से दूरी बनाकर रखने वाली पार्टी प्रमुख मायावती का बदला रवैया और सोशल मीडिया पर पार्टी की धमक भी फायदेमंद साबित नहीं हो सकी.

मुश्किल होगी अस्तित्व को बचाए रखने की लड़ाई

लोकसभा चुनाव में सूपड़ा साफ होने के बाद यूपी का विधानसभा चुनाव मायावती के लिए बेहद अहम था लेकिन उसमें भी उन्हें करारी हार मिली. ऐसे में अब मायावती के लिए आगे का रास्ता बेहद कठिन हो सकता है. दरअसल, उनकी चुनौतियां बढ़ती जा रहीं हैं, एक ओर उनके सामने लगातार दो हारों के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने की चुनौती है. तो वहीं पार्टी के कई बड़े नेताओं के अलग रास्ता अख्तियार कर लेने के बाद उन्हें उनके खिलाफ पार्टी के भीतर दबी आवाजों को मुखर होने से भी रोकना होगा.

दूसरी ओर दलितों पर हो रहे अत्याचारों की घटनाओं को भी पार्टी मुद्दा बना पाने में विफल रही है, जबकि ऐसे मुद्दों के बीच से गुजरात में जिग्नेश मेवाणी और पश्चिमी यूपी में भीम आर्मी के चंद्रशेखर जैसे नेता जनाधार जुटाने में कामयाब दिख रहे हैं.

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Published: 15 Jan 2018,04:00 PM IST

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