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सरकार ने 2019 के चुनाव से पहले खरीफ फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी बढ़ा दिया है. खरीफ सीजन की सबसे अहम फसल धान की कीमत 13 फीसदी की बढ़ोतरी की गई है. दस साल में धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में यह सबसे अधिक बढ़ोतरी है. देश में खेती-किसानी की लागत बढ़ती जा रही है और किसान कई इलाकों में वाजिब कीमत की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं. किसानों के इस असंतोष को देखते हुए इस साल बजट में सरकार ने फसलों की लागत का डेढ़ गुना कीमत देने का ऐलान किया था.
अब जबकि सरकार ने 14 खरीफ फसलों के एमएसपी में इजाफे का ऐलान कर दिया है तो इस बात की पड़ताल जरूरी है कि किसानों को इससे कितना फायदा होगा. क्या सरकार का यह कदम देश में महंगाई बढ़ाएगा और राजकोषीय घाटे को बेकाबू कर देगा. क्या यह कदम किसानों को सचमुच राहत देगा या फिर यह सरकार का चुनावी पैंतरा है.
सरकार ने फसलों की लागत निकालने के लिए A2+FL फॉर्मूला अपनाया है. A2+FL फॉर्मूले के तहत फसल की बुआई पर होने वाले खर्च और परिवार के सदस्यों की मजदूरी शामिल होती है. लेकिन कई किसान संगठन C-2 फॉर्मूले से लागत तय करने की मांग की है. C-2 फॉर्मूले में जमीन की कीमत शामिल है. स्वामीनाथन आयोग ने फसल कीमत निकालने के फॉर्मूले में इसकी सिफारिश की है.
गृह मंत्री ने एमएसपी का ऐलान करते हुए कहा कि इससे सरकार पर 15000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा लेकिन इससे महंगाई नहीं बढ़ेगी. हालांकि तमाम विशेषज्ञों का का कहना है कि खरीफ फसलों की कीमतें बढ़ने से महंगाई में निश्चित तौर पर इजाफा होगा.
अगर सरकारी एजेंसियों ने बढ़े हुए एमएसपी पर फसलों की खरीद बढ़ाई तो यह कीमत जीडीपी के 0.3 फीसदी के बराबर होगी. चूंकि तेल की कीमतें बढ़ने से राजकोषीय घाटे स्थिति पहले से ही खराब है. इसलिए सरकार पर दबाव और बढ़ जाएगा. ऐसी स्थिति सरकार के पास दूसरे सार्वजनिक खर्चे और विकास परियोजनाओं के लिए पैसे कम पड़ जाएंगे.
खरीफ फसलों की बढ़ी हुई कीमतें किसानों को फरवरी-मार्च में मिलेगी. ये ठीक लोकसभा चुनाव से पहले का वक्त है. इसलिए विश्लेषकों का मानना है कि एमएसपी बढ़ाने का असली मकसद चुनावी फायदा लेना है. जो सरकार चार साल तक किसानों की दिक्कत पर चुप बैठे रही वे आखिरी साल में एमएसपी क्यों बढ़ा रही है.
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