मुजफ्फरनगर दंगों ने काट दिए किसानों के हाथ

‘गन्ना बेल्ट’ नाम से मशहूर मुजफ्फरनगर के किसान एक बात को लेकर परेशान नजर आते हैं. और वो है लेबर का बंदोबस्त.

प्रशांत चाहल
भारत
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(फोटो: रॉयटर्स/प्रोसेसिंग: द क्विंट)
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(फोटो: रॉयटर्स/प्रोसेसिंग: द क्विंट)
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पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दोआब में इन दिनों गन्ने और धान की बढ़िया फसल तैयार है. इस साल हुई बढ़िया बारिश का असर यहां खड़ी फसलों पर साफ दिखाई देता है.

देश की कृषि नीति और गिरते जल स्तर को लेकर चिंतित रहने वाले किसान कुदरत के निजाम से खुश हैं. कुछ बुजुर्ग किसान बताते हैं कि 1978 में ऐसी बारिश हुई थी. उन्हें विश्वास है कि इस साल उत्पादन में करिश्माई उछाल आएगा. लेकिन ‘गन्ना बेल्ट’ नाम से मशहूर मुजफ्फरनगर (शामिल इर्द-गिर्द) के किसान एक बात को लेकर परेशान नजर आते हैं. और वो है लेबर का बंदोबस्त.

गन्ने और धान की बढ़िया फसल तैयार है. (फोटो: रॉयटर्स)

कस्बा कांधला में एक मुस्लिम परिवार से लेबर के लिए बात करते अनिल कुमार उर्फ मुन्नू से चर्चा हुई तो उन्होंने बताया, ‘ज्वार की फसल कट चुकी है. धान कटाई को तैयार हैं. उसके बाद गन्ने की फसल काटी जाएगी. फिर गन्ने की अगाई फसल बोने का समय भी नजदीक है. ऐसे में बिना लेबर की मदद के एक किसान पार नहीं पा सकता.’

शामली देहात के बहावड़ी गांव से वास्ता रखने वाले अनिल यहां जिस मुस्लिम परिवार से बात कर रहे थे, यह वही परिवार था जिसे 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों में बहावड़ी गांव छोड़ना पड़ा था.

सरकारी आंकड़ों पर नजर डालें, तो साल 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान करीब 50 हजार लोग विस्थापित हुए. 540 ऐसी घटनाएं हुईं, जिनकी FIR दर्ज की गई. दर्ज न हुई वारदातें, इनसे अलग थीं.

सितंबर, 2013 में जब दंगे हुए, उस वक्त भी इस इलाके में गन्ने की बुलंद फसल खड़ी थी. स्थानीय पुलिस की मानें, तो मारकाट की ज्यादातर वारदात इन्हीं खेतों में हुईं. ऐसे में हमेशा से ही छोटे किसान रहे, खेतों में मजदूर रहे या फिर बड़े किसानों के चौथाई-बटाई के हिस्सेदार रहे मुसलमानों के पांव अब उसी अपनायत से इन खेतों में नहीं पड़ते.

चौथाई-बटाई पर जमीन लेकर, उससे ज्यादा उत्पादन लेने के मामले में मुसलमान हुनरमंद माने जाते रहे हैं. (फोटो: रॉयटर्स)

कस्बा कैराना में जा बसे एक विस्थापित परिवार से बात हुई तो उन्होंने कहा, ‘हमें हिंदुओं के गांव में मजदूरी करते वक्त डर लगता है. 3 साल में दोबारा हमें किसी ने कभी कुछ नहीं कहा. फिर भी दंगों के दौरान मन में बैठ चुका डर नहीं निकल पाता.’

इस डर ने दंगा प्रभावित इलाकों में लेबर का एक संकट खड़ा किया है. मजदूरी के रेट बढ़े हैं. किसान अब इसे ‘अपने हाथ कटना’ बताते हैं. कहते हैं समाज तो टूटा ही. साथ ही किसानों के सबसे मददगार मुस्लिम कारीगरों और मजदूरों से दूरी बन गई.

यकीन मानिए, इस इलाके में अब कई ‘अनिल’ हैं. और तमाम ऐसे ‘मुस्लिम परिवार’ भी, जिनकी कहानी इससे काफी मिलती-जुलती है.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, जिला मुजफ्फरनगर, शामली और बागपत में कुल मिलाकर अपर कास्ट से वास्ता रखने वाले महज 5 परसेंट लोगों (अधिकांश जाट समुदाय) के पास 26.73 परसेंट जमीन का मालिकाना है. जबकि 60 परसेंट आबादी के पास कुल मिलाकर 20 परसेंट ही जमीन है.
हस्त कौशल में कुशल कहे जाने वाले मुसलमान समुदाय के लोग मानते हैं कि छोटे से छोटा काम करने से भी उन्हें गुरेज़ नहीं. (फोटो: रॉयटर्स)

सरकारी रेकॉर्ड-बुक के मुताबिक दंगा प्रभावित रहे लिसाड़, लांक, बहावड़ी और फुगाना जैसे गांवों में जाट परिवारों से बात की, तो उन्होंने दावा किया कि वे लगातार मुस्लिम परिवारों को गांव वापस लाने की कोशिश करते रहे हैं.

लेकिन 2 साल यूपी सरकार के राहत शिविरों में काटने के बाद ज्यादातर मुस्लिम परिवार ‘अपनों के बीच’ (मुस्लिम बहुल कस्बों) कैराना, कांधला, बुढ़ाना, गढ़ी दौलत और लोनी में जा बसे हैं. रोजगार के लिए वो औद्योगिक रूप से ज्यादा सक्षम हरियाणा के सोनीपत, करनाल और पानीपत की ओर देखने लगे हैं. और रोजगार के लिए वो अब पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहते.

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Published: 02 Sep 2016,03:20 PM IST

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