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रैलियों, जनसभाओं से ज्यादा बड़ा राजनीतिक युद्ध का मैदान है ट्विटर. खासतौर पर 2014 के लोकसभा चुनाव ने राजनेताओं के प्रचार का तरीका भी बदल दिया और ये बदलाव इतना तेज और नाटकीय था कि वोटरों और नेताओं के बीच सीधे संवाद और संपर्क का नया तरीका बन गया.
अब तो रैलियां, जनसभाओं जैसे परंपरागत तरीके पीछे रह गए हैं और इसके मुकाबले राजनेताओं के पास अपने वोटर्स खास तौर पर युवाओं से जुड़ने रेडीमेड विकल्प है सोशल मीडिया. ये तरीका इतना असरदार है कि इसके लिए नेता वक्त देने और पैसा दोनों खर्च करने में संकोच नहीं कर रहे हैं.
पीएम नरेंद्र मोदी की पार्टी बीजेपी की जीत में तो सोशल मीडिया (ट्विटर, फेसबुक) और व्हाट्स एप जैसे प्लेटफॉर्म का बड़ा योगदान माना भी जाता है. इसकी सबसे बड़ी खूबी यही है कि पार्टियां सीधे वोटर से जुड़ने में कामयाब हो जाती हैं.
दोनों नेताओं के ट्विटर हैंडल में हुए सक्रियता के हिसाब एनालिटिक्स के जरिए इस बात का अंदाज लगाया जा सकता है कि इन दोनों नेताओं के ट्वीट से किस तरह के लोग जुड़ रहे हैं. इस रिसर्च के जरिए समझा जा सकता है कि लोगों का रुझान किस तरफ है. लेकिन लोकप्रियता और संपर्क का असली पैमाना सिर्फ एनालिसिस ही नहीं है. इसके लिए ये भी जानना जरूरी होगा कि जमीनी स्तर पर लोग क्या सोचते हैं?
इस तरह के आंकड़ों की रिसर्च में भी कुछ कमियां हो सकती हैं.पर मोटे तौर पर एक ट्रेंड तो नजर आता ही है.
ट्वीट के इस एनालिसिस में ईस्टर, रिपब्लिक डे, दिवाली जैसे त्योहारों के शुभकामना संदेश से लेकर अवॉर्ड जीतने वालों को बधाई संदेश और निधन पर शोक संदेश वाले ट्वीट भी शामिल हैं. इसके अलावा इसमें कम्प्यूटर वाले बॉट फॉलोअर्स या फर्जी प्रोफाइल वाले फॉलोअर जैसी मुश्किलें भी शामिल हैं जिन्हें वास्तविक फॉलोअर्स से अलग करना असंभव है.
इन सब बातों के अलावा इसमें कोई संदेह नहीं कि ट्विटर से मोदी और राहुल दोनों के युवा समर्थकों और लोकप्रियता के बारे में ठीक-ठाक अनुमान तो लगाया ही जा सकता है.
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