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नताशा नरवाल: बिन ट्रायल ‘सजा’ और पिता की मौत पर शर्तों वाली जमानत

नताशा नरवाल के खिलाफ यूएपीए लगाकर उसे ‘व्यवस्था की दुश्मन’और ‘लोगों की दुश्मन’ के तौर पर पेश किया गया है.

करन त्रिपाठी
भारत
Updated:
नताशा नरवाल: बिन ट्रायल ‘सजा’ और पिता की मौत पर शर्तों वाली जमानत
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नताशा नरवाल: बिन ट्रायल ‘सजा’ और पिता की मौत पर शर्तों वाली जमानत
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‘मैं उम्मीद करता हूं कि इस दुनिया से जाने से पहले मैं उसे देख पाऊं.आखिर, मैं बूढ़ा हो रहा हूं.’ महावीर नरवाल ने अक्टूबर 2020 में एक पत्रकार से बात करते हुए यह कहा था. वह अपनी बेटी से मिलने के लिए ललक रहे थे. दूसरे इंटरव्यू में उन्होंने जेल में बंद अपनी बेटी से कहा था कि वह अन्याय के खिलाफ लड़ती रहे. ‘जेल में होना, कोई डरने वाली बात नहीं.’ उन्होंने कहा था.

9 मई, 2021 को कोविड-19 से महावीर नरवाल की मृत्यु हो गई. पर उनकी आखिरी इच्छा पूरी नहीं हुई- कि उनकी बेटी उनके पास हो. नताशा की जमानत रुकी रही. उनकी मौत के बाद नताशा को तीन हफ्ते की अंतरिम जमानत मिली है

विरोध जताने पर जेल

नताशा पिछले एक साल से तिहाड़ की महिला जेल में बंद है. उस पर कठोर एंटी टेरर कानून- गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम कानून (यूएपीए) के तहत चार्ज लगाए गए हैं. आरोप है कि उसने फरवरी 2020 में दिल्ली के उत्तर पूर्वी जिले में सांप्रदायिक दंगे भड़काए थे.

स्टेट के पास उसके खिलाफ सिर्फ एक सबूत है कि उसने ‘भड़काऊ भाषण’ देकर, लोगों को हथियार उठाने को कहा था. इस एक सबूत के आधार पर उस पर कई मामले बनाए गए हैं. हालांकि उसे एक मामले में जमानत दी गई है (एफआईआर संख्या 50), दूसरे मामले में उसकी रिहाई को नामंजूर किया गया है (एफआईआर संख्या 59), इसके बावजूद कि उसके खिलाफ वही एक सबूत है. रिहाई से इनकार करने की अकेली वजह है- यूएपीए.

एफआईआर संख्या 50 में नताशा को जमानत देते हुए कड़कड़डूमा जिला अदालत के जज ने कहा था कि वह किसी तरह का खतरा पैदा नहीं करती. न ही इस बात की आशंका है कि वह सबूतों के साथ छेड़छाड़ करेगी. क्योंकि उसके मामले में या तो पुलिस वाले गवाह हैं या गवाहों को सुरक्षा मिली हुई है.

इसके बाद अदालत ने यह भी कहा कि नताशा के खिलाफ प्रॉसीक्यूशन ने जो मामला बनाया है, वह कमजोर है. यानी उसके खिलाफ मिले सबूतों में दम नहीं है.

... प्रॉसीक्यूशन ने जो वीडियो दिखाया है, उसमें नरवाल ‘गैरकानूनी सभा’ में हिस्सा लेती तो दिखाई देती हैं, लेकिन इसमें ऐसा कुछ नहीं है जिससे यह पता चले कि वह हिंसा में शामिल थीं, या उसे भड़का रही थीं.
एडिशनल सेशंस जज अमिताभ रावत

जब विजुअल सबूत हिंसा भड़काने के आरोपों का समर्थन नहीं करते, तो यूएपीए के तहत मामला बनता ही कैसे है?

नताशा के खिलाफ यूएपीए लगाना, दरअसल उसे ‘अदराइज़’ करने की कोशिश है. ऐसे दिखाने की कोशिश है कि वह न सिर्फ ‘स्टेट की दुश्मन’ है, बल्कि ‘लोगों की दुश्मन भी है’. इस नेरेटिव में स्टेट अपनी तरफ से की गई हिंसा को जायज ठहरा रहा है और नताशा के साथ होने वाले बुरे सलूक को भी. यूएपीए के सख्त प्रावधान यह सुनिश्चित करते हैं कि कानून के जरिए विरोधियों को सजा दी जाती रहे, और उनके मानवाधिकारों के हनन पर कोई सवाल खड़े न हों. उनकी तरफ किसी का ध्यान ही न जाए.

यूएपीए- अपराध साबित किए बिना सजा देने का लाइसेंस

भारत का एंटी टेरर कानून गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून, जिसे मौजूदा सरकार ने संशोधित किया है, विरोधियों को दबाने का मुख्य हथियार बन गया है.

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने संसद में जो आंकड़े रखे हैं, उसके हिसाब से 2016-19 के दौरान यूएपीए के तहत दायर केवल 2.2 प्रतिशत मामलों में ही दोष सिद्ध हुआ है. लेकिन 2014 से इस कानून के तहत गिरफ्तारियां काफी बढ़ी हैं.

यूएपीए का सबसे जटिल और खतरनाक प्रावधान सेक्शन 43-डी (5) है. इसके तहत अगर अदालत यह मानती है कि पुलिस मैटीरियल को देखते हुए आरोप प्रथम दृष्टया सही लगते हैं तो वह आरोपी को जमानत देने से इनकार कर सकती है.

सेक्शन 43-डी (5) न सिर्फ जांच के शुरुआती चरण में ‘प्रथम दृष्टया सच’ का आकलन करने का ऊंचा मानदंड तय करता है, बल्कि अदालत के फैसला लेने के अधिकार को भी सीमित करता है.अदालत पुलिस के सबूतों के आधार पर ही फैसला लेती है. इससे पुलिस को निरंकुश शक्तियां मिलती हैं. वह अदालत के सामने सिर्फ वही सबूत रखती है जो उसके नेरेटिव का समर्थन करते हैं. इसका यह मतलब है कि किसी दूसरे नेरेटिव की तरफ इशारा करने वाले सबूत, जोकि आरोपी का पक्ष लेते हों, अदालत के सामने पेश ही नहीं होते.

इस तरह ‘प्रथम दृष्टया सच’ तक पहुंचने की प्रक्रिया, जमानत की सुनवाई के दौरान आरोपी के खिलाफ जाती है.

दिल्ली की सिविल राइट्स एक्टिविस्ट अनुष्का सिंह का मानना है कि यूएपीए ने न सिर्फ संगठनों के मूलभूत अधिकारों को क्रिमिनलाइज किया है, बल्कि उसने राजनैतिक विरोध और अपराध के बीच का फर्क मिटा दिया है. उसने विरोध करने वाले स्वरों और विरोध जताने, दोनों को अपराध बना दिया है.
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अनुष्का कहती हैं कि यूएपीए ने ‘राजनैतिक विच हंट की संस्कृति को जन्म दिया है’. राज्य और सत्तारूढ़ वर्ग की वैधता पर सवाल खड़े करने वाले चुनींदा संगठनों पर निशाना साधा जा रहा है, उन्हें गैरकानूनी ठहराया जा रहा है.

नताशा नरवाल उन विरोधियों में से एक है जिन्हें कानून के जरिए ‘गैरकानूनी’ बताया गया है. एक ऐसे कानून के जरिए जोकि किसी को भी बिना मुकदमा चलाए लंबे समय तक कैद में रखने को वैध बनाता है. वह भी राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर, जिसका आधार संदेह पैदा करता है और अपनी सुविधा से गढ़ा गया है.

नताशा सुधारवादी है, आतंकवादी नहीं

जेलों की संरचना दर्द पैदा करने वाली और डर- नाउम्मीदी से भरी होती है. लेकिन नताशा एक सुधारवादी है. वह लगातार दूसरी महिला कैदियों से बातचीत करती रहती है. जेल में उनकी तकलीफों को समझने के अलावा यह भी समझने की कोशिश कर रही है कि कैसे जेलें महिला अपराधियों को सुधारने की बजाय उन्हें सजा देती हैं.

नताशा नरवाल और उनके साथ सह आरोपी देवांगना कलिता कैदी महिलाओं के बच्चों को पढ़ा रही हैं. उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की है जिसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि किस तरह महामारी ने महिला कैदियों की तकलीफों को बढ़ाया है. साथ ही जेलों में कई सुधार करने की मांग भी की है.

उनकी कोशिशों के चलते दिल्ली हाई कोर्ट ने तिहाड़ जेल संख्या 6 में कैदी महिलाओं की मदद करने वाले कई निर्देश जारी किए हैं. अदालत ने जेल प्रशासन को निर्देश दिए हैं कि क्वारंटाइन में रहने वाली कैदियों को टेली-कॉलिंग की सुविधा दी जाए. कैदियों को वैक्सीन लगाने की नीति बनाई जाए, ई-मुलाकातों को चालू किया जाए और कंप्यूटर रूम में लीगल सहायता और फंक्शनल कंप्यूटर और इंटरनेट का आश्वासन दिया जाए.

भले स्टेट नताशा को सजा देता रहे. विरोध जताने के उसके अधिकार का दमन करता रहे, लेकिन जेल में रहकर भी वह मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ रही है. जेलों में सुधार लाने की कोशिश कर रही है. फिर भी, स्टेट उसे ‘मुकदमे का इंतजार करने वाली एक आतंकवादी’ के तौर पर पेश कर रहा है.

नताशा की पृष्ठभूमि, उसका व्यवहार और उसके विचारों को देखते हुए, उसे कैद में रखना ही उसे सजा देने जैसा है. अपराध साबित हुए बिना उसे सजा दी जा रही है. यह आपराधिक न्याय के हर सिद्धांत की गरिमा के विरुद्ध है.

यूएपीए जैसे क्रूर कानून और चुप रहने वाली न्याय व्यवस्था ने यह सुनिश्चित किया है कि नताशा ‘मुकदमे का इंतजार करने वाली आतंकवादी’ बनी रहे. यह जताया जा रहा है कि उसे ‘रिहा करना खतरे से खाली नहीं’, और वह ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है’. इसके बावजूद कि कानून के तहत अपराधी साबित होने तक वह बेगुनाह है.यह कानून से इतर चरित्र हनन है, कानूनी प्रक्रिया का गला घोंटना है, काउंटर नेरेटिव्स को चुप कराना है और न्याय तक पहुंचने का रास्ता रोकना है. इन्हीं के जरिए उसे सजा दी जा रही है.

तकलीफ पर भी अंकुश लगाने की कोशिश

नताशा ने मांग की लेकिन उसे उसके बीमार पिता के साथ समय बिताने के लिए रिहा नहीं किया गया. कई साल पहले उसकी मां की मृत्यु हो गई थी. पिता की मौत के बाद 10 मई को दिल्ली हाई कोर्ट ने उसे पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए अंतरिम जमानत दी है.

स्टेट ने नताशा को अपने पिता से मिलने की ‘इजाजत’ तो दी है लेकिन पिता उसे घर पर हंसते चेहरे के साथ नहीं मिलेंगे. वह उसे शमशान घाट में मिलेंगे, जहां उनका मृत शरीर सिर से पैर तक ‘लीक प्रूफ प्लास्टिक बैग’ में बंद है.

नताश को कैद में रखना ही नहीं, उसे अंतरिम जमानत पर रिहा करना भी शासन व्यवस्था की असंवेदनशीलता की परतें खोलता है. उससे कहा गया है कि वह दो पुलिस स्टेशनों में अपने फोन नंबर दे, कोविड प्रोटोकॉल का सख्ती से पालन करे, 50,000 रुपए का पर्सनल बॉन्ड जमा करे और सबसे तकलीफदेह यह है कि अपने मामले पर ‘रेडियो साइलेंस’ बनाए रखे.

केंद्र सरकार ने इस समय नताशा की अंतरिम जमानत का विरोध तो नहीं किया लेकिन अदालत से कहा कि वह नरवाल को निर्देश दे कि दिल्ली दंगों या अपने मामले पर वह कोई ‘ट्वीट न करे’, और न ही ‘सोशल मीडिया पर कुछ पोस्ट करे.’

इस दुखद त्रासदी में भी शासन व्यवस्था नताशा की तकलीफ पर अंकुश लगाना चाहती है. कुछ वक्त की आजादी में भी मानो नियंत्रण के धागे अपने हाथ में रखने की कोशिश की जा रही है. लगातार यह जताया जा रहा है कि नताशा ऐसी अपराधी है जो राज्य की दया पर रिहा की गई है. लेकिन दरअसल वह एक बेटी, एक बहन, एक औरत है जोकि इस देश की दमनकारी न्याय प्रणाली का शिकार हुई है.

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Published: 11 May 2021,07:49 PM IST

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