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34 साल बाद देश की शिक्षा नीति में बड़े बदलाव किए गए हैं. नई शिक्षा नीति को कैबिनेट ने मंजूरी भी दे दी है. स्कूली शिक्षा को मातृभाषा और प्रादेशिक भाषाओं में कराने और उच्च शिक्षा को व्यवाहारिक बनाने की कोशिश की गई है. नई शिक्षा नीति से उम्मीद की जा सकती है कि इसके जरिए हमारे एजुकेशन सेक्टर में जो कमियां हैं उन्हें घटाया या पूरी तरह खत्म किया जा सकता है.
जब तक स्कूली शिक्षा को नहीं सुधारेंगे तब तक उच्च शिक्षा ठीक नहीं हो सकती है. क्योंकि स्कूल की शिक्षा ही वो नींव है, जिसपर उच्च शिक्षा की इमारत खड़ी होती है. मौजूदा शिक्षा पद्धति की एक बड़ी खामी है रट्टा विद्या. मतलब किताब में जो लिखा है उसे रट लीजिए और परीक्षा में जाकर लिख दीजिए. आपने क्या समझा, क्या सीखा उससे मतलब नहीं, बस याद करके लिख दीजिए. नई शिक्षा नीति में इसे खत्म करने की बात की गई है.
नई शिक्षा नीति में बच्चों में जिज्ञासा पैदा करने पर जोर है. उसे सबकुछ पढ़ाने के बजाय जिंदगी भर सीखने के लिए तैयार करने पर जोर है. ये एकदम सही बात है क्योंकि शिक्षा कभी समाप्त नहीं होती. सीखने की प्रक्रिया पूरी जिंदगी चलती रहती है. तो अगर किसी में सीखने की इच्छा जगा दी गई तो फिर बाकी का सफर वो खुद तय कर लेगा.
अलग-अलग स्ट्रीम में बंटे हमारे एजुकेशन सिस्टम को खत्म करने की बात भी बड़ा बदलाव है. किताबी ज्ञान के अलावा दूसरी चीजों पर फोकस से फायदा होगा.
आज हम राफेल जैसा फाइटर जेट फ्रांस से खरीदने को मजबूर हैं. इसकी वजह क्या है? वजह ये है कि हमने अपनी व्यवहारिक शिक्षा पर जोर नहीं दिया. पिछले 60-70 साल में हमने इतने संस्थान बनाए, इतनी यूनिवर्सिटीज बनाईं, लेकिन आविष्कार के मामले में पीछे हैं. इसकी वजह यही है कि प्रैक्टिकल ज्ञान पर जोर नहीं है. अब उम्मीद कर सकते हैं कि ये बदलेगा.
क्या सिर्फ गणित या साइंस की पढ़ाई ही शिक्षा है. कोई अच्छा क्रिकेट खेलता है तो क्या उसे शिक्षित नहीं कहेंगे? क्या हम सचिन तेंदुलकर को शिक्षित नहीं कहेंगे? वो समझदार हैं, गुणवान हैं, कामयाब हैं. अब खेलों और एक्सट्रा करिकुलर एक्टविटिज को भी शिक्षा दायरे में लाने की बात है.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में हर साल 30% बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं. किसी की आर्थिक समस्या होती है तो कोई अपनी किसी दूसरी घरेलू समस्या के कारण पढ़ाई छोड़ता है. अगर कोई दो साल के बाद पढ़ाई छोड़ता है तो उसे कुछ हासिल नहीं होता. डीयू में हमने इसका उपाय निकाला था.
उच्च शिक्षा में सिर्फ नौकरी के लिए नहीं उद्योग के लिए भी विद्यार्थियों को तैयार करने की बात है. इससे स्टार्टअप की नई ऊर्जा मिलेगी. तो नई शिक्षा नीति आज हमारे देश और समाज की जरूरत और चुनौतियों का सामना करने वाली है.
उच्च शिक्षा की एक बड़ी कमी थी ढेर सारी संस्थाओं के हाथ में नियंत्रण. इस नियंत्रण के कारण विश्वविद्यालयों को आजादी नहीं मिल पाती थी. UGC के नियम, AICTE के निर्देश, तालमेल बिठाते-बिठाते शिक्षण संस्थान परेशान हो जाते थे. लेकिन अब एक संस्थान के हाथ में संचालन आने से सुविधा होगी और विश्वविद्यालय क्रिएटिव हो पाएंगे, प्रयोग कर पाएंगे. अलग -अलग बोर्ड के बच्चों को दाखिले में दिक्कत होती थी. कॉलेजों को कटऑफ निकालने में दिक्कत होती थी. अब कॉमन एंट्रेंस से ये दिक्कतें खत्म होंगी.
तमाम सुधारों का स्वागत है लेकिन सलाह ये है कि इन्हें लागू करने के लिए अच्छी सोच वाले और रचनात्मक लोगों को लाया जाए. अगर ये नहीं हुआ तो फायदा नहीं होगा.
(जैसा कि प्रोफेसर दिनेश सिंह ने क्विंट हिंदी के संतोष कुमार को बताया)
प्रोफेसर दिनेश सिंह देश के जाने माने शिक्षाविद हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के वीसी रह चुके हैं और फिलहाल केआर मंगलम विश्वविद्यालय के चांसलर हैं. पिछले 20 साल से ह्यूस्टन विश्वविद्यालय में गणित विभाग में एडजंक्ट प्रोफेसर हैं. उनसे आप यहां संपर्क कर सकते हैं-reachingdinesh@gmail.com
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