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एक हालिया खबर के मुताबिक, सेना के जवानों को अपने जूते खुद खरीदने पर मजबूर किया गया, क्योंकि उन्हें दिए जाने वाले जूते खराब किस्म के थे.
यह बात तो सभी जानते हैं कि उनकी राइफलें आउटडेटेड हैं और उन्हें बदलने के टेंडर कई बार खारिज किए जा चुके हैं. उनके पास 10 से 12 दिन से ज्यादा लड़ने के लिए गोला-बारूद भी नहीं है. (कारगिल की लड़ाई 50 दिन तक चली थी.)
उनके पास रात में देख सकने वाले उपकरण और बुलेट प्रूफ जैकेट्स भी जरूरत से कम हैं. जब वे लड़ाई वाले इलाकों और पहाड़ों से नीचे ‘शांत’ स्टेशनों पर आते हैं, तो उन्हें सिर्फ 10 महीने से लेकर साल भर तक के लिए फेमिली क्वार्टर मिल पाता है, वह भी अगर उनकी किस्मत अच्छी रही तो.
इन सबसे आगे जाकर सातवें पे कमीशन ने उनकी स्थिति को और खराब करते हुए उन्हें ये सोचने को मजबूर कर दिया है कि आखिर देश को फर्क क्यों नहीं पड़ता?
पूर्व थल सेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह के तत्कालीन प्रधानमंत्री के लिखे गए पत्र और कैग की 2012 और 2015 की रिपोर्ट से सुरक्षा के लिए जरूरी मुस्तैदी की खतरनाक स्थिति का पता चलता है.
सुरक्षा क्षेत्र के लिए होने वाली सरकारी खरीद के तंत्र को ‘खोखला’ बताते हुए जनरल वीके सिंह ने प्रधानमंत्री को पत्र में लिखा, “सेना के मुख्य लड़ाकू बलों - यांत्रिक बल (मैकेनाइज्ड फोर्स), तोपखाना (आर्टिलरी), वायुरक्षा (एयर डिफेंस), पैदल सेना (इन्फेंट्री), विशेष बल (स्पेशल फोर्जेज) और इंजीनियर व सिग्नल्स, सभी की स्थिति वाकई डराने वाली है.”
सीओएएस की पिछली रिपोर्ट के मुताबिक, सेना के पूरे टैंक दस्ते के पास दुश्मन के टैंको को हराने के लिए जरूरी गोला-बारूद बेहद कम हैं. हवा में सुरक्षा करने वाले 97 फीसदी उपकरण बेकार हो चुके हैं और हवा में होने वाले हमलों से रक्षा करने में असमर्थ हैं.
हथियारों और रात में लड़ने के लिए जरूरी उपकरणों के अभाव में पैदल सेना लड़ाई के लिए तैयार नहीं है. विशेष बलों के पास भी जरूरी हथियारों की बेहद कमी है. यही हाल क्रिटिकल सर्विलांस का भी है.
कड़वा सच
जहां राजनेताओं और सेना के शीर्ष नेतृत्व पर भी सुरक्षा की इस स्थिति की जिम्मेदारी आती है, वहीं सबसे ज्यादा दोष अलग-अलग मंत्रालयों में बैठे नौकरशाहों का है.
रक्षा मंत्रालय, वित्त मंत्रालय, सुरक्षा उत्पादन विभाग, ऑर्डनेंस फैक्ट्रीज बोर्ड में बैठे नौकरशाह और डीआरडीओ के वरिष्ठ वैज्ञानिक इस स्थिति के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं, जो सैनिकों की कार्बाइन, राइफल और मशीनगन जैसी सामन्य आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर पाए हैं. डिफेंस पीएसयू के चेयरपरसन और ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों को भी एक बार अपने गिरेबान में झांककर देखना चाहिए.
इन अधिकारियों ने अगर कुछ बड़ा किया है, तो वह है जरूरी फाइलों को गुम कर देने की कला में महारत हासिल करना. एक बार फाइल गायब हुई, तो कम से कम उनके कार्यकाल में तो वापस आने से रही.
अगर सेना का आधुनिकीकरण नहीं किया जा रहा है और सुरक्षा सुधारों को समय रहते लागू नहीं किया जा रहा है, तो फिर इसके लिए सुरक्षा सचिव को ही जिम्मेदार ठहराना चाहिए. अगर सुरक्षा बजट को पूरा खर्च नहीं किया जा रहा है, तो गलती वित्तीय सलाहकार, सुरक्षा सेवा की है.
अगर जरूरत के मुताबिक सुरक्षा उत्पादन नहीं हो रहा है, तो सुरक्षा उत्पादन विभाग और ऑर्डनेंस फैक्ट्रीज बोर्ड के अध्यक्ष जिम्मेदार हैं. दुर्भाग्य से हमारे देश में अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जो खराब प्रदर्शन करने वाले नौकरशाहों की जिम्मेदारी तय कर सके. इस स्थिति में अधिक से अधिक उनका ट्रांसफर ही किया जा सकता है और यह कोई बड़ी सजा नहीं है.
पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने अपने कार्यकाल में कुछ नौकरशाहों को सियाचिन ग्लेशियर के दौरे पर भेजा था, ताकि वे दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र में आने वाली परेशानियों को समझ सकें. इस तरह के दौरे हर साल होने चाहिए.
असल में नौकरशाहों को ‘राष्ट्र सेवा’ की अवधारणा से अवगत कराया जाना जरूरी है. भविष्य में आईएफएस, आईएएस, आईपीएस व इस तरह की अन्य सेवाओं की भर्तियां सेना के माध्यम से होनी चाहिए.
पांच साल तक सेना में काम करने के बाद ही यूपीएससी का एग्जाम देने का मौका मिलना चाहिए. यह नौकरशाही और सेना, दोनों के लिए एक अच्छी स्थिति होगी. इससे एक तो नौकरशाहों को सुरक्षा से जुड़े मुद्दों की जानकारी होगी और दूसरे सेना के अधिकारियों के मित्र ब्यूरोक्रेसी में होंगे.
इस वक्त हमें सुरक्षा से जुड़े निर्णयों को बेहतर बनाने, सुरक्षा मुस्तौदी को मजबूत करने, सिविल-डिफेंस डिवाइड को कम करने और सैनिकों के मनोबल को बढ़ाने की दिशा में काफी काम करने की जरूरत है.
इस दिशा में पहला कदम होगा व्यवस्था की खामियों को स्वीकार करना, क्योंकि परेशानी को मानने के बाद ही उसे दूर किया जा सकता है. गड़बड़ियों की जांच करने और कमियों को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री को एक ‘राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग’ का गठन करना चाहिए और उसकी अध्यक्षता किसी पूर्व सेनाध्यक्ष को मिलनी चाहिए, न कि किसी पूर्व नौकरशाह को.
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