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एक अरब से ज्यादा की आबादी पर भारत में एक लाख से भी कम शोध छात्र हैं. ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्टार्ट अप इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ जैसे सपने देखने वाले देश में शोध छात्रों के ये आंकड़े जहां पहले ही बहुत कम हैं, वहां हमारा तंत्र छात्रों के लिए रिसर्च को और भी मुश्किल बनाता जा रहा है.
पिछले साल नॉन नेट फेलोशिप यानी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) द्वारा आयोजित नेशनल इलिजिबिलिटी टेस्ट को पास किए बिना शोध करने वाले छात्रों को मिलने वाली फेलोशिप को बंद करने की कोशिश की गई थी, जिसका छात्रों ने भारी विरोध किया.
अब मौलाना आजाद नेशनल फेलोशिप (MANF) को बिना किसी कारण रोककर अल्पसंख्यक शोध छात्रों को हतोत्साहित करने का एक और प्रयास किया गया है.
सच्चर कमेटी की सिफारिशों के बाद MANF फेलोशिप की शुरुआत 2009 में की गई थी. शुरुआती सालों में फेलोशिप मिलने में कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन छात्रों के मुताबिक 2014 में केंद्र में सरकार बदलने के बाद फेलोशिप मिलने में दिक्कतें आने लगीं.
अबू ने जो कुछ कहा, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का साल 2015-16 का बजट आउटकम भी वही कहता है. साल 2014-15 में न सिर्फ इस फेलोशिप के लिए दिया गया फंड 90 करोड़ से घटाकर 60 करोड़ कर दिया गया, बल्कि इस साल फेलोशिप के नाम पर कुल 0.09 करोड़ रुपए ही खर्च किए गए.
अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला ने पिछले साल 17 अगस्त को ट्वीट कर छात्रों से कहा कि वे उनकी समस्याएं दूर करने की कोशिश कर रही हैं और वे कुछ देर धैर्य रखें. इसका अर्थ है कि आज से सात महीने पहले अगस्त में उन्हें छात्रों की समस्या के बारे में पता था.
लेकिन वे समस्या दूर नहीं कर सकीं. 12 मार्च 2016 को ट्वीट की एक सीरीज में अल्पसंख्यक मंत्रालय को अल्पसंख्यकों के शिक्षा द्वारा सशक्तिकरण के लिए केंद्र से मिले बड़े फंड के कसीदे पढ़ते हुए एक बार फिर इस फलोशिप का जिक्र किया, लेकिन यहां समस्या के बारे में कोई बात नहीं की गई.
MANF पाने वाले छात्र पिछले काफी समय से MoMa, UGC और अन्य संबंधित अधिकारियों के अपनी समस्या के बारे में लिखते रहे हैं. कुछ समय पहले यह मुद्दा राज्य सभा में भी उठाया गया. लेकिन वहां भी बात सिर्फ सवाल जवाब तक उलझी रही.
इसके अलावा छात्रों ने मीडिया से भी इस मुद्दे को सामने लाने की भी गुजारिश की, लेकिन वहां भी कोई नतीजा नहीं निकला
सवाल यह है कि अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री बता रही हैं कि उनके मंत्रालय के पास अल्पसंख्यकों के शैक्षिक सशक्तिकरण के लिए बहुत पैसा है. अगर ऐसा है, तो फिर वो पैसा शोध छात्रों तक क्यों नहीं पहुंच रहा?
फेलोशिप के लिए संघर्ष करने रहे हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोध छात्र अबू सालेह को फोन पर अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री ने बताया कि कुछ तकनीकी दिक्कतों की वजह से पैसा बैंक से छात्रों के खाते में नहीं जा पा रहा है. वाकई? केंद्र में सरकार बदलने पर ऐसा क्या हो गया कि बैंक को पैसा ट्रांसफर करने में तकनीकी दिक्कतें आने लगीं?
एक तरफ तो सरकार अल्पसंख्यकों के शैक्षिक उत्थान की बातें कर रही है, मेक इन इंडिया और स्टार्टअप इंडिया जैसे सपने दिखा रही है, दूसरी तरफ छात्रों को मिलने वाले मामूली भत्ते पर डाका डाला जा रहा है.
ऐसे में माननीय प्रधानमंत्री जी, आप ही बताएं कि क्या हम विदेशों से उधार मांगी टेक्नेलॉजी और रिसर्च से ही ‘मेक इन इंडिया’ और ‘स्टार्टअप इंडिया’ के सपने पूरा करेंगे या फिर अपने देश में ऐसी स्थितियां तैयार करेंगे कि हमारी शिक्षा व्यवस्था क्लर्कों से आगे बढ़कर देश को कुछ नया सोच सकने वाले युवा दे सके?
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