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नोटबंदी: कालाधन तो पानी में नहीं बहा, पर किसानों के अरमान बह गए

नोटबंदी के फैसले के एक हफ्ते के भीतर फसलों की कीमत में 15 फीसदी की गिरावट देखने को मिली थी

अभय कुमार सिंह
भारत
Published:
खेत में खड़ा किसान (प्रतीकात्मक तस्वीर: iStock Images)
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खेत में खड़ा किसान (प्रतीकात्मक तस्वीर: iStock Images)
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नोटबंदी के फैसले के नफे-नुकसान पर बहस एक साल बाद भी जारी है. दो तस्वीरें पेश की जा रही हैं, पहली, जिसमें कालेधन पर चोट लगी है, फर्जी नोटों पर लगाम कसी गई है. दूसरी तस्वीर है- फैसले के बाद लोगों की दिक्कतों की. किसानों की बदहाली की.

नोटबंदी के दौरान कैश की दिक्कत से देश के कोने-कोने से किसानों की बदहाली सामने आई थी. कहीं किसान अपनी फसल को ट्रैक्टर से कुचलते दिखें तो कहीं बीच सड़क सब्जियों का अंबार फैला दिखा. अब एक स्टडी सामने आई है जो नोटबंदी का किसानों और फसलों पर पड़े असर को बताती है.

इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (IGIDR) की रिपोर्ट के मुताबिक, नोटबंदी के फैसले के एक हफ्ते के भीतर फसलों की कीमत में 15 फीसदी की गिरावट देखने को मिली थी. फैसले के 90 दिनों यानी 3 महीने बाद भी ये गिरावट 7 फीसदी तक बनी रही.

(इंफोग्राफिक्स:  द क्विंट\तरुण अग्रवाल)

क्या नोटबंदी के ‘पीड़ित’ बन गए किसान

8 नवंबर 2016 को लिए गए नोटबंदी के फैसले के बाद अर्थव्यवस्था, कालेधन और फर्जी नोटों पर कई तरह के कयास लगाए गए. कहा गया कि कालाधन रखने वाले अपने पैसों को नदियों में बहा देंगे, जला देंगे या दफन कर देंगे. अंदाजा लगाया जा रहा था कि भारी पैमाने पर बैन किए गए 500 और हजार के नोट बैंकों तक नहीं पहुंचेगे और सरकारी खजाने को फायदा पहुंचेगा.

(इंफोग्राफिक्स:  द क्विंट\तरुण अग्रवाल)

हाल ये है कि 30 अगस्त को आरबीआई ने सालाना रिपोर्ट जारी की. इसमें बताया गया है कि 15.28 लाख करोड़ के पुराने नोट नोटबंदी के दौरान 11 नवंबर से 30 दिसंबर के बीच बैंकों में जमा कराए गए. नोटबंदी से 15.45 लाख करोड़ की करेंसी वापस ली गई थी और ये उसका 99 फीसदी था. मतलब 99 फीसदी नोट वापस आ चुके हैं.

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फसलों की कीमतों को भारी नुकसान

वहीं इस दौरान जो कैश की कमी के कारण लोगों को दिक्कतें हुईं उसका कोई मुआवजा, कोई भी सरकार नहीं दे सकती.

IGIDR की रिपोर्ट कहती है कि एग्रीकल्चरल सेक्टर में 7 फीसदी की गिरावट मायने रखती है. वो भी ऐसे समय जब अच्छे मॉनसून के कारण किसान अपनी फसलों को लेकर खुश थे. उन्हें भरोसा था कि इस बार तो खूब कमाई होगी.

2016 में मॉनसून काफी अच्छा रहा

मॉनसून अच्छा रहा, 2014 और 2015 में सूखे के बाद साल 2016 में किसानों को फायदा देखने को मिला था. बार-बार सूखे के कारण 2014-15 में देश की कृषि विकास दर 0.2% और 2015-16 में 1.2% रही, लेकिन 2016-17 में इस दर में 4.1% की वृद्धि हुई.

फसलें भी खूब हुईं लेकिन नकदी की कमी के कारण बाजार में आने के बाद उनकी कीमतें कम हो गईं. इस फैसले के एक हफ्ते के भीतर टमाटर की कीमतों में 47 फीसदी वहीं नींबू की कीमतों में 46 फीसदी की गिरावट देखने को मिली थी. नतीजा ये था कि न तो किसान इन फसलों को खेत में रखकर सड़ा सकते थे और अगर बेचे तो इनकी सही कीमत नहीं मिल रही थी.

(इंफोग्राफिक्स:  द क्विंट\तरुण अग्रवाल)

सिर्फ ऐसी ही सब्जियां नहीं सोयाबिन जैसे खाद्य पदार्थ जिन्हें लंबे समय तक रखा जा सकता था उनकी कीमतों में गिरावट देखने को मिला.

नतीजा जरा इन तस्वीरों में तो देखिए:

ये छत्तीसगढ़ का 26 दिसंबर 2016 का वीडियो है, यहां किसान टमाटरों के दाम गिरने से इतने परेशान हैं कि उन्होंने करीब 70 ट्रक टमाटर सड़क पर उड़ेल दिए. हालात इतने खराब हो गए थे कि टमाटर का भाव 1 रुपये प्रति किलो हो गया था. ये तो सिर्फ एक उदाहरण है. देशभर से फसलों की कीमत में गिरावट देखने को मिली.

नोटबंदी के 50 दिन बाद भी सहकारी बैंकों और किसानों के हाल का जायजा क्विंट ने लिया था. देखिए ये वीडियो:

इंडिया स्पेंड की एक जनवरी, 2017 में छपी एक रिपोर्ट में कर्नाटक के किसान सुनील का दर्द छपा था. जरा गौर कीजिए

सुनील कहते हैं कि 2016 से आय में 110 फीसदी की गिरावट उस समय आई है, जब इस साल मौसम बढ़िया था और फसल भी. लेकिन यह नोटबंदी अपने साथ बुरा समय लेकर आ गया. सुनील आगे कहते हैं,

इस साल टमाटर के एक भरे टोकरे की कीमत 30 से 50 रुपए के बीच की है. इस मौसम (दिसंबर-जनवरी) में कभी एक भरा टोकरा 700 रुपए का बेचा जाता था. मेरे पास परिवहन पर खर्च करने और इसे बाजार तक लाने या कीमत बढ़ने तक का इंतजार करने का कोई कारण नहीं है. इसलिए नुकसान थोड़ा कम करने के लिए मैंने नवंबर के अंत में टमाटर के पौधे उखाड़ लिए.

ऐसे में एक तस्वीर तो साफ है

नोटबंदी के 3 महीने की (IGIDR) की रिपोर्ट एक तस्वीर तो साफ कर रही है. नोटबंदी से भले ही नोटों से भरे गठ्ठर आपको कूड़ेदान में न मिले हो, जलते हुए 500 और 1000 के नोट आपने नहीं देखे हों, लेकिन एक चीज जरूर महसूस किया होगा कि जो किसान टीवी, न्यूज वेबसाइट और आपके सामने आकर अपना दर्द बता रहे थे वो सच था.

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