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दोहा में भारतीय राजदूत दीपक मित्तल और तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के प्रमुख, शेर मोहम्मद अब्बास के मुलाकात के बाद विपक्षी दलों ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया है. विपक्ष का आरोप है कि भारत सरकार ने अब तक तालिबान को लेकर अपना रुख साफ नहीं किया है और तालिबान को अफगानिस्तान (Afghanistan) का वास्तविक प्रतिनिधि मानने या न मानने को लेकर असमंजस में दिख रही है.
अफगानिस्तान की तात्कालिक स्थिति बताते हुए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने 29 जुलाई को राज्यसभा को कहा था कि,
लेकिन तालिबान और अफगानिस्तान पर भारत सरकार के रुख को लेकर लगातार सवाल उठते आए हैं. भारत के नेतृत्व वाले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने अफगानिस्तान में आतंकवाद से जुड़े बयान में से तालिबान का नाम हटाकर उसको क्षेत्र के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार करने का पहला संकेत दिया, वहीं दोहा में तालिबान के शीर्ष नेता शेर मोहम्मद अब्बास स्टेनकजई से मुलाकात भी कर ली.
भारतीय राजदूत दीपक मित्तल और दोहा में तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के प्रमुख,शेर मोहम्मद अब्बास के मुलाकात के अगले ही दिन जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सरकार से पूछा कि "अगर वो एक आतंकवादी समूह हैं तो आप उनसे बात क्यों कर रहे हैं?
एक न्यूज चैनल से बात करते हुए उमर अब्दुल्ला ने कहा,
शिवसेना नेत्री प्रियंका चतुर्वेदी ने भी केंद्र की बीजेपी सरकार को आड़े हाथों लेते हुए ट्वीट किया कि, “क्रोनोलॉजी समझिये. पीएम मोदी ने अफगानिस्तान पर पुतिन से बात की, UNSC अध्यक्ष के रूप में भारत ने अफगानिस्तान में आतंकी गतिविधियों पर बयान से तालिबान के संदर्भ को हटा दिया, कतर में भारतीय राजदूत तालिबान नेता से मिले, जाहिर तौर पर भारतीयों के लिए सुरक्षित मार्ग के बारे में बात करने के लिए... ठीक है फिर”
AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी ओवैसी ने 1 अगस्त को सवाल लिया कि 'क्या वे उन सभी तालिबानी नेताओं की सूची रद्द करने जा रहे हैं जिन्हें आंतकवाद की श्रेणी में रखा गया है क्योंकि भारत प्रतिबंध समिति का अध्यक्ष है. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो क्या मोदी सरकार तालिबान को UAPA की आतंकी लिस्ट के तहत लाएगी?'
भारत के लिए तालिबान मुद्दे पर उसकी अनिश्चितता परेशानी का कारण बन सकती है. एक तरफ तालिबान को जहां चीन-रूस-पाकिस्तान के त्रिकोण में चौथा प्लेयर माना जा रहा है , वहीं इससे भारत को अपने सीमावर्ती सुरक्षा का भी खतरा है.
अल-कायदा ने 31 अगस्त को तालिबान को अफगानिस्तान में जीत के लिए बधाई संदेश में "इस्लाम के दुश्मनों के चंगुल से" कश्मीर और अन्य तथाकथित इस्लामी भूमि को "आजाद" करने का आह्वान किया.
भारत तालिबान के अतीत को देखते हुए उसके आश्वासन पर कितना भरोसा कर सकता है. अमेरिका और पश्चिमी शक्तियों की अनुपस्थिति में अफगानिस्तान भारत विरोधी गतिविधियों का गढ़ नहीं बनेगा, इसको क्या सिर्फ आश्वासन पर सुनिश्चित किया जा सकता है? खासकर जब यह रिपोर्ट आ रही हो कि मसूद अजहर के नेतृत्व वाले जैश-ए-मोहम्मद ने हाल ही में कश्मीर को लेकर तालिबान से मुलाकात की है.
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