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9 गोलियां झेलीं, पद्मश्री मिला तो आंसू नहीं रोक पाए ये खिलाड़ी

साल 1982 में पेटकर के अर्जुन पुरस्कार के दावे को सरकार ने नकार दिया था.

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मौत के मुंह से निकलकर पैरालम्पिक स्वर्ण जीतने वाले मुरलीकांत पेटकर 
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मौत के मुंह से निकलकर पैरालम्पिक स्वर्ण जीतने वाले मुरलीकांत पेटकर 
(फोटो: ट्विटर)

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राष्ट्रपति भवन के दरबार हॉल में आयोजित समारोह में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से पद्मश्री पुरस्कार लेने पहुंचे स्वर्ण पदक विजेता पैरालम्पिक तैराक मुरलीकांत राजाराम पेटकर के जेहन में दबीं पुरानी यादें फिर से ताजा हो गईं. भारतीय सेना के सेवानिवृत्त 71 वर्षीय सूबेदार मुरलीकांत ने खुद को उन यादों से बाहर निकालते हुए राष्ट्रपति से पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त किया. बैसाखी के सहारे वह तनकर खड़े तो हुए लेकिन भारतीय सशस्त्र बलों के सुप्रीम कमांडर (राष्ट्रपति) को चाहकर भी सलामी नहीं ठोक सके. राजधानी दिल्ली में राष्ट्रपति भवन में 21 मार्च, 2018 को आयोजित समारोह में मुरलीकांत पेटकर का मुस्कराता चेहरा उस दर्द को बयां नहीं कर रहा था, जो उन्हें सरकार द्वारा अर्जुन पुरस्कार नहीं देने से हुआ था.

साल 1982 में नहीं मिल सका था अर्जुन पुरस्कार

साल 1982 में पेटकर के अर्जुन पुरस्कार के दावे को सरकार ने नकार दिया था. भारत के इस जांबाज सिपाही ने 1972 में जर्मनी में आयोजित पैरालम्पिक खेलों में देश के लिए पहला सोना जीता था. उन्होंने तैराकी में यह कारनामा कर दिखाया था. मुरलीकांत पेटकर ने इन खेलों में पुरुषों की 50 मीटर फ्रीस्टाइल तैराकी स्पर्धा में स्वर्ण पदक अपने नाम किया था. इसके पहले, उन्होंने 1970 में स्कॉटलैंड में आयोजित तीसरे राष्ट्रमंडल पारापलेजिक खेलों में भी इसी स्पर्धा का स्वर्ण अपने नाम किया था. केवल यहीं नहीं, भारत के एथलीट ने केवल एक ही खेल में ही नहीं, बल्कि दूसरे खेलों में भी देश को गौरवान्वित किया था. उन्होंने भाला फेंक स्पर्धा में रजत और गोला फेंक स्पर्धा में कांस्य पदक जीता.

राष्ट्रपति से पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त करने के बाद मुरलीकांत पेटकर ने कहा, मैं इन सब बातों को कहीं पीछे छोड़ आया हूं. मैं खुश हूं कि सरकार ने आखिरकार मेरी उपलब्धियों को पहचाना. मुझे बुरा लगा था, जब सरकार ने मेरे विकलांग होने के कारण मुझे अर्जुन पुरस्कार देने से मना कर दिया था.
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मैंने अपने सारे पदक छिपा दिया था

(फोटो: ट्विटर)

मुरलीकांत पेटकर ने कहा, इस बात से निराश होकर अपने सभी प्रमाणपत्रों और पदकों को कहीं छुपा कर रख दिया था, ताकि उन पर मेरी नजर न पड़े. मैंने कसम खा ली थी कि मैं कभी किसी पुरस्कार के लिए सिफारिश नहीं करूंगा. फिर, इस साल फिर 25 जनवरी को मुझे सरकार से फोन आया और मुझे बताया गया कि मैं पद्मश्री के लिए चुना गया हूं. मुरलीकांत पेटकर की कहानी केवल एक बेहतरीन एथलीट की नहीं है, बल्कि सेना के एक ऐसे जाबांज जवान की है, जो देश की रक्षा करने के लिए मौत के मुंह तक पहुंच गए थे.

जांबाज जवान रहे हैं पेटकर

मुरलीकांत पेटकर को वो तारीख याद नहीं, लेकिन वह 1965 के सितम्बर महीने का समय था, जब पाकिस्तान के साथ लड़ाई हुई थी. पेटकर अपनी टुकड़ी के साथ शाम चार बजे सियालकोट सेक्टर में थे, जब पाकिस्तानी सेना ने उनके ठिकाने पर हमला किया था. उन्हें नौ गोलियां लगी थी और एक गोली उनकी रीढ़ की हड्डी पर लगी थी, जिसके कारण उन्होंने दो साल बिस्तर पर लेटे हुए गुजारे. कुछ समय के लिए वह अपनी याद्दाश्त भी भूल गए थे. अपने उन दिनों के बारे में मुरलीकांत पेटकर ने कहा, मुझे याद है कि हम दिन का भोजन करने के बाद आराम कर रहे थे, जब अचानक हवलदार मेजर चिल्लाते हुए आए. हम में से कुछ सोए हुए थे. हमें लगा कि वह हमें चाय के लिए बुला रहे हैं. इसी गलतफहमी के कारण कुछ जवान ऐसे ही शिविर से बाहर चले गए और मारे गए.

इसी हमले में घायल मुरलीकांत पेटकर को जब होश आया, तो उन्हें अपने कमर से नीचे का हिस्सा महसूस नहीं हुआ. एक सामान्य इंसान को इस सदमे से बाहर आने में कई वर्षो का समय लग जाता है, लेकिन पेटकर जैसे जाबांज ने चार साल बाद ही पैरालम्पिक खेलों में स्वर्ण पदक हासिल करने वाले पहले भारतीय एथलीट का गौरव हासिल किया.

साल 1965 में हो गए थे रिटायर्ड

साल 1965 में रक्षा पदक हासिल करने वाले पेटकर को 1969 में सेना से सेवानिवृत्त कर दिया गया. उन्होंने 1967 में महाराष्ट्र स्टेट एथलेटिक चैम्पियनशिप में हिस्सा लिया था और गोला फेंक, भाला फेंक, चक्का फेंक, टेबल टेनिस स्पर्धा में राज्य स्तर के चैम्पियन बन गए. साल 1970 की शुरुआत में टाटा कंपनी ने लड़ाई में घायल सैनिकों की मदद के लिए हाथ बढ़ाया, लेकिन पेटकर ने इस दान को लेने से मना कर दिया और काम की मांग की. पेटकर ने कहा, वे इस बात से खुश थे और मुझे पुणे में टेल्को में काम मिल गया.

मैंने वहां 30 साल तक काम किया. महाराष्ट्र के सांगली जिले में एक नवम्बर, 1947 को जन्मे पेटकर बचपन से ही खेलों में सक्रिय रहे हैं. 1965 में लड़ाई में घायल होने से पहले तक वह खेलों में हिस्सा लेते रहते थे. उन्हें 1964 में टोक्यो में आयोजित हुए अंतर्राष्ट्रीय सर्विसेस स्पोर्ट्स मीट में भारत की ओर से मुक्केबाजी स्पर्धा के लिए चुना गया था.

पेटकर को 1975 में राज्य सरकार द्वारा महाराष्ट्र के सबसे सर्वोच्च खेल पुरस्कार छत्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया़. इतनी उपलब्धियों के बाद भी वह रुके नहीं और अपने पिछले रिकॉर्डो को बेहतर करना जारी रखा. उन्होंने कहा, मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे पद्मश्री मिलेगा. मुझे नहीं पता कि इस पुरस्कार के लिए मेरा नाम किसने दिया, लेकिन मैं इस बात पर भरोसा करता हूं कि यह पुरस्कार अन्य पैरा-एथलीटों को प्रेरित करेगा.

(इनपुट: IANS)

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