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संडे व्यू: कर्ज के लिए चीन पर दोष क्यों? श्रीलंका-भारत में एक जैसा बहुसंख्यकवाद

आज पढ़ें टीएन नाइनन, रामचंद्र गुहा, अशोक कुमार, सचिन चतुर्वेदी, सुरेश मेनन जैसी नामचीन हस्तियों के विचारों का सार.

क्विंट हिंदी
भारत
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संडे व्यू में पढ़ें आर्टिकल्स

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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श्रीलंका-पाक ऋणजाल में फंसने के लिए खुद जिम्मेदार

बिजनेस स्डैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि पाकिस्तान और श्रीलंका ने चीन के वित्त पोषण वाली भारी भरकम बुनियादी परिजोयनाओं के लिए ऋण समझौते किए. अब दोनों देश आर्थिक संकट में फंस चुके हैं. इसका कारण यह है कि द्विपक्षीय सहायता के लिए दिए जाने वाले ऋण पर लगने वाले ब्याज की तुलना में चीन तीन गुणा ज्यादा ब्याज लेता है. चीन अब म्यांमार में भी आर्थिक गतिविधियां बढ़ा रहा है. मालदीव में भी उसने पूंजी लगा रखी है. दरअसल, कर्ज के जाल वाली कूटनीति के कारण चीन से ऋण लेने वाले देश फंसते दिख रहे हैं, लेकिन इसके लिए सिर्फ चीन को दोष क्यों देना? ऋण लेने वाले देशों ने दीर्घकालिक नीति क्यों नहीं बनायी और क्यों वे ऋणजाल में फंसते चले गये?

नाइनन लिखते हैं कि कोविड की महामारी और यूक्रेन युद्ध के कारण श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे देश मुश्किल में फंस गये. पाकिस्तान में अर्थव्यवस्था का कुप्रबंधन जगजाहिर है. 30 साल में उसने आईएमएफ से 13 बार ऋण लिए लेकिन हर बार वह ऋण की शर्तों को पूरा करने में नाकाम रहा. आईएमएफ से मिला ताजा 6 अरब डॉलर का ऋण भी स्थगित है.

श्रीलंका में राजपक्षे परिवार ने रातों रात रासायनिक उर्वरकों पर प्रतिबंध लगा दिया और जैविक खेती को अपनाना शुरू कर दिया. बाद में यह बात समझ में आयी कि ऐसे उत्पादों को खरीदने वाला वर्ग धनाढ्य होता है. अब स्थिति यह है कि भारत और बांग्लादेश से अनाज श्रीलंका भेजे जा रहे हैं. टीएन नाइनन लिखते हैं कि चीन चतुर साहूकार की तरह सामने खड़ा है. ऋण लेने वाले देशों की कमजोर राजनीतिक और आर्थिक कुप्रबंधन का उसने फायदा उठाया है. इसके बावजूद यह पाकिस्तान और श्रीलंका की मूर्खता है कि उसने चीन से अदूरदर्शी तरीके से ऋण लिए.

बहुसंख्यकवाद की सनक

रामचंद्र गुहा ने द टेलीग्रा में 80 के दशक में श्रीलंका की राजनीतिक स्थिति की तुलना आज के भारत से की है. मानवविज्ञानी एसजे ताम्बियाह के उस विचार की याद दिलायी है कि श्रीलंका में सिंहली “बहुसंख्यक होकर अल्पसंख्यक वाले कॉम्पलेक्स में जीते रहे हैं.” सिंहली आबादी का 70 फीसदी हैं और बौद्ध हैं. उन्हें अल्पसंख्यक तमिलों से खौफ हुआ करता था. उन्हें अंग्रेजों का चाटुकार और भारत से मदद लेने वाला करार दिया गया. कहा यह भी गया कि अगर तमिलों को नहीं रोका गया तो वे सिंहली पर हावी हो जाएंगे.

रामचंद्र गुहा को श्रीलंका में 80 के दशक की राजनीतिक स्थिति की याद इसलिए आयी क्योंकि उन्होंने पेजावर मठ के स्वामी का संबोधन सुना. उडुप्पी हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनता दिख रहा है. हिजाब प्रकरण के बाद कई मुस्लिम लडकियों ने पढ़ाई छोड़ दी है. मठ के आसपास मुस्लिम कारोबारियों पर प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं. स्वामीजी का कहना है कि अतीत में हिंदुओं ने भी बहुत कुछ झेला है. मुगलों और टीपू सुल्तान के जमाने में क्या हुआ इसके लिए आज के मुसलमानों को दोषी महसूस कराया जा रहा है.

आज भी श्रीलंका में तमिलों के मुकाबले सिंहलियों की जो स्थिति है उसकी तुलना में हिंदुओं की स्थिति बेहतर है. भारत में मुसलमानों पर हिंदुत्व के आक्रमण की दो स्पष्ट वजह हैं. एक है राजनीति जो हिंदुओं को वोट बैंक की तरह तैयार कर रही है. ज्यादातर निर्वाचन क्षेत्रों में 80 फीसदी हिंदू आबादी है और अगर इसका 60 फीसदी भी हासिल कर लिया जाए तो चुनावी जीत सुनिश्चित हो जाती है. दूसरा पहलू है कि सैद्धांतिक आधार पर यह विश्वास दिलाया जाए कि केवल हिंदी ही सही, प्रामाणिक, भरोसेमंद नागरिक हैं और मुसलमान अविश्वसनीय. यह वीडी सावरकर के उस सिद्धांत के अनुरूप है जिसमें उन्होंने पुण्यभूमि और पित्रभूमि कहकर भारत से बाहर पैदा हुए धर्म के लोगों की निष्ठा पर सवाल उठाए थे.

चेन्नई-कोलंबो कॉरिडोर के मायने

करगिल योद्धा वीर सेवा मेडल प्राप्त मेजर जनरल अशोक कुमार ने हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा है कि श्रीलंका संकट के लिए वर्तमान सरकार को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, लेकिन वास्तव में महिंद्रा राजपक्षे नेतृत्व के साथ-सात पूर्ववर्ती नेतृत्व भी इसके लिए जिम्मेदार है. इन सरकारों ने लगातार गलत नीतियों का अनुसरण किया. पड़ोसी सबसे पहले की नीति का पालन करते हुए भारत ने श्रीलंका को तुरंत मदद भेजी और इसकी सर्वत्र सराहना हुई. वहीं, चीन ने जरूरत के मौके पर श्रीलंका को 2.6 अरब डॉलर का ऋण देने से मना कर दिया. इस पृष्ठभूमि में चेन्नई-कोलंबो कॉरिडोर दोनों देशों की जनता के बीच सीधा संबंध बनाने के नजरिए से बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है.

अशोक कुमार लिखते हैं कि बीता तीन दशक लिट्टे, मछुआरे और तमिल राजनीति के केंद्र में रहे हैं. इसी का फायदा चीन ने उठाया है. उसने हैमन्टोटा बंदरगाह को 99 साल के लिए हासिल किया और श्रीलंका को भारत से दूर बनाए रखने में भूमिका निभाई. श्रीलंका सरकार, लिट्टे और बाद में भारतीय शांति सेना के बीच समझौते के टूटने के भयावह नतीजे आए. 1165 भारतीय सैनिकों ने भी जानें गंवाईं. राजीव गांधी की हत्या के बाद श्रीलंका में 13वां संविधान संशोधन हुआ जिसमें तमिल आबादी को ताकतवर बनाया जाना था. इस पर अब तक अमल नहीं हुआ है.

सिंहली-तमिल आबादी के बीच दूरी बढ़ती चली गयी है. चेन्नई-कोलंबो कॉरिडोर न सिर्फ वर्तमान में दोनों देशों को जोड़ता है बल्कि यह आगे के संबंधों की गतिशीलता को भी तय करता है. दोनों देशों के लोग अपने-अपने देश से खरीदे गये टिकट पर यात्रा कर सकेंगे. यूरोपीय यूनियन की तर्ज पर दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के बीच एक यूनियन बनाने का समय आ गया है जिसके केंद्र में भारत हो.

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बिम्सटेक देशों को जोड़ती है विरासत में मिली संस्कृति

सचिन चतुर्वेदी ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि बिम्सटेक यानी बे ऑफ बेंगाल इनीशिएटिव फॉर मल्टी सेक्टरल टेक्निकल एंड इकॉनोमिक को-ऑपरेशन ने अपनी 25वीं स्थापना दिवस पर कई नयी पहलों की घोषणा की है. कोलंबो में बीते हफ्ते संपन्न पांचवें शिखर सम्मेलन में सदस्य देशों के बीच संपर्क, सुरक्षा और क्षेत्र में समृद्धि की बाबत सहमति हुई. समूह के एजेंडे को आगे बढ़ाने, सदस्य देशों में सहयोग बढ़ाने और निरंतरता के साथ व्यवस्थि योजना पर चलने का संकल्प लिया गया. 1997 में बिम्सटेक बना लेकिन चार्टर अब जाकर अंतिम रूप ले सका है. 20 पेज के इस दस्तावेज में बिम्सेटक का मकसद, सिद्धांत और संगठन की वैधानिकता को स्वरूप दिया गया. नये सदस्यों को शामिल करने के नियम भी बनाए गये हैं.

सचिन चतुर्वेदी लिखते हैं कि बिम्सेटक मास्टर प्लान का महत्वपूर्ण पहलू है ट्रांसपोर्ट कनेक्टिविटी. पूरे क्षेत्र में सदस्य देश बाधा रहित तरीके से एक-दूसरे से जुड़े रहें, इसकी रूपरेखा बनायी गयी है. प्रस्ताव है कि भारत, म्यांमार और थाइलैंड के बीच ट्राइ लेटरल हाईवे प्रोजेक्ट को लाओस और कंबोडिया तक विस्तार किया जाएगा.

बांग्लादेश, भूटान और नेपाल भी इस प्रोजेक्ट में दिलचस्पी दिखा रहा है. ज्ञान के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने को लेकर अपराध के क्षेत्र में कानूनी सहायता और दूसरे क्षेत्रों में भी एमओयू तैयार की गयी है. काठमांडु में हुए चौथे बिम्सटेक शिखर सम्मेलन में सामूहिक सचिवालय बनाया जाना तय हुआ था. कोविड की महामारी ने चुनौतियां बढ़ाई हैं, लेकिन इसने सहयोग की जरूरत भी बढ़ा दी है. आर्थिक संबंधों के अलावा बंगाल की खाड़ी के देशों के बीच साझा संस्कृति और सभ्यता की भी विरासत है जो एक-दूसरे से इन देशों को जोड़ती है. नालंदा यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों की भूमिका इस मकसद के लिए बढ़ जाती है.

बदल रहा है टी-20 का मिजाज

सुरेश मेनन ने द हिंदू में लिखा है कि जब बीस ओवरों वाली क्रिकेट शुरू हुई तो उसका स्वभाव वनडे क्रिकेट से अलग हिट करना और आनंद उठाना था. शुरू के वर्षों में सभी टीमों की रणनीति यही हुआ करती थी. सभी खिलाड़ी और कोच इकट्ठे होकर इसी बारे में रणनीति बनाया करते थे. लेकिन, जल्द ही आऊट होने का एक क्रम विकसित हो गया. विकेट बचाते हुए एलबीडल्यू आऊट होने के बजाए बाउंड्री पर कैच होने का सम्मान बढ़ा. फिर वक्त आया जब हर बॉल पर रन लेने, तीन रन लेने की कोशिश का दौर आया और विकेट बचाकर रखने की प्रवृत्ति टीमों का स्वाभाव बन गयी. मगर, टी-20 को अब भी अपने स्वभाव के अनुरूप अपना सलीका तय करना बाकी था.

सुरेश मेनन लिखते हैं टी-20 में गेंदबाजों ने भी अपनी रणनीति में लगातार बदलाव किए. बल्लेबाजों के लाभ वाली स्थिति को वे न्यूट्रलाइज कर रहे थे. यॉर्कर, स्लओर बॉल, गेंदों में तरह-तरह की विविधता सामने आयीं जो पहले नहीं दिखा करती थी.

जल्द ही टीम ने समझ लिया कि 6 गेंदों पर 20 रन अधिक महत्वपूर्ण है न कि 60 गेंद पर 70 रन. इसी तरह 20 ओवर में 150 रन ऑलआउट बेहतर स्कोर है न कि बिना विकेट खोए 120 रन. इस साल पंजाब किंग्स ने इस प्रयोग को अपनाया है. पंजाब किंग्स ने विकेट पर जाते ही हमला करने की रणनीति अपनायी है. विकेट गरने की कोई चिंता नहीं. 12 गेंदों पर एक विकेट गिरने के औसत के बावजूद कोई टीम पूरे 20 ओवर का खेल खेल सकती है. पंजाब किंग्स ने टी-20 मैच की रंगत बदल दी है. लड़ते हुए हारते देखना भी रोमांच दे रहा है.

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