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राजस्थान में जब सियासी संग्राम छिड़ा तो आमने-सामने थे अशोक गहलोत और सचिन पायलट. तब हर तरह नेरेटिव यही था कि कांग्रेस का एक महत्वाकांक्षी नेता बागी हो गया है. मेनस्ट्रीम मीडिया ने फतवा सुना दिया था कि पायलट के कांग्रेस से उड़ान भरते ही गहलोत की सरकार रनवे से फिसल जाएगी. लेकिन आज की तस्वीर देखिए. पायलट नेपत्थ में, मैदान में बीजेपी के सामने डटे गहलोत. राजस्थान में जो हो रहा है वो क्यों हो रहा है, इसका नेरेटिव बदल चुका है. और ऐसा करके गहलोत ने बहुत कुछ हासिल किया है.
जब गहलोत राजस्थान से कह रहे थे कि इसे मध्य प्रदेश न समझिएगा तो शायद दिल्ली के बहुत से सियासी पंडित उनकी बात की गहराई नहीं समझ पाए थे. चैनलों की असंख्य खिड़कियों से आने वाला कोरस, इस बात का सबूत है. लेकिन गहलोत ने वादे के मुताबिक अपने तरकश से हर तरह के तीर निकाले. सामने वाला एक सांस लेता, तो गहलोत दो तीर चलाते.
गहलोत विधायकों की खरीद फरोख्त का ऑडियो टेप लीक कराए. दुनिया के सामने बहुमत साबित करने के लिए विधायकों की परेड कराई. पायलट को डिस्क्रेडिट करने के लिए उन्हें नकारा, निकम्मा, नौसिखिया, बीजेपी की कठपुतली जैसे नाम दिए. स्पीकर ने बागियों को नोटिस दिया. वो हाईकोर्ट गए तो स्पीकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. वहां से राहत न मिली तो राज्यपाल के यहां पहुंच गए. राज्यपाल ने सत्र बुलाने से इंकार किया तो पांच घंटे विधायकों के साथ राजभवन पर ही धरने पर बैठ गए. धमकी तक दे डाली कि कल को अगर पूरे प्रदेश की जनता राजभवन का घेराव कर ले तो हमें न कहिएगा. राज्यपाल फिर भी न माने तो दूसरा दांव खेला कि बहुमत परीक्षण न सही, कोरोना के लिए सत्र बुला लीजिए. फिर भी न माने तो अपनी पार्टी से 'स्पीक अप फॉर डिमाक्रसी' का वर्चुअल कैंपेन चलवाया. देश भर के राजभवनों पर कांग्रेसियों के प्रदर्शन का बड़ा प्लान बनवाया. राज्यपाल से डीजीपी और मुख्य सचिव से बात की तो कहा कि ठीक है राजस्थान में राजभवन का घेरा नहीं होगा. राज्यपाल कही सुप्रीम कोर्ट में मामला है, ये न कह दें इसलिए स्पीकर ने वहां से याचिका वापस ले ली.
ये सही है कि राज्यपाल ने 21 दिन के अग्रिम नोटिस की जो शर्त रखी है, उससे गहलोत के विरोधियों को 'ताकत' जुटाने का वक्त मिल गया है लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि गहलोत एक कदम आगे ही बढ़े हैं, पीछे नहीं हटे. और अगर बगावत के इतने दिन बाद भी बहुमत साबित करने के लिए आतुर हैं, तो संकेत साफ है कि वो 15 दिन तक अपने खेमे को बांध कर रख पाएं हैं. कोई ताज्जुब नहीं कि वो अगले 21 दिन बाद भी अपने विधायकों को एकजुट रख लें.
अभी तक जो हुआ है वो अंजाम नहीं राह है. अब ये देखिए कि कैसे गहलोत पहला अध्याय जीत चुके हैं. उन्होंने अपनी लड़ाई को लोकतंत्र बनाम बीजेपी की लड़ाई के तौर पर स्थापित कर दिया है. चर्चा ये बना दी है कि राज्यपाल बीजेपी सरकार की शह पर काम कर रहे हैं. अदालतों में स्पीकर के फैसले से पहले जिरह हो रही है, जो कानूनन गलत है. जो बीजेपी कह रही थी कि वो तो इस झगड़े में पार्टी ही नहीं है, उसके केंद्रीय मंत्री के खिलाफ FIR दर्ज हो चुकी है. जब पायलट खेमे की तरफ से मुकुल रोहतगी और हरिश साल्वे कोर्ट पहुंचे तो पिक्चर साफ हो गई.
अब तक पायलट के साथ क्या हुआ है ये भी समझ लीजिए. जो पायलट कह रहे थे कि उनके साथ नाइंसाफी हुई है, जैसे ही वो बीजेपी खेमे में खड़े दिखाई दिए, उनकी स्थिति 'विक्टिम' की नहीं रह गई. डिप्टी सीएम की कुर्सी गई, प्रदेश अध्यक्ष पद गया. और अब भी गारंटी नहीं है कि 'उनकी' सरकार बनेगी. बीजेपी सचिन को ही पायलट बनाएगी, इसकी भी गारंटी नहीं. दूसरी तरफ जब NSUI के सदस्य बागियों के घर-घर जाकर गांधीगिरी कर रहे थे, फूल दे रहे थे, तो संदेश यही जा रहा था - गेट वेल सून.
गहलोत के जुझारूपन ने कांग्रेस से वो करवाया जो अर्से बाद देखने को मिला है. हेडक्वॉर्टर से लेकर जिला स्तर तक कांग्रेस के नेता 'स्पीक अप फॉर डिमॉक्रसी' पर बोले. इतना बोले कि ये हैशटैग ट्विटर पर टॉप ट्रेडिंग बन गया. फिर अगले दिन राजभवनों पर प्रदर्शन का भी प्लान बना. कांग्रेस में संगठन के लेवल पर ये स्फूर्ति और संयोजन बहुत दिन बाद दिखा.
तो मैदान में अब तक डटे रहकर, दुश्मन को सामने लाकर, पार्टी को जगाकर गहलोत ने इतना तो बता ही दिया है कि 'रण' का फन उन्हें आता है, और खूब आता है. आगे-आगे देखिए क्या होता है.
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