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पश्चिम बंगाल की ममता सरकार ने बंगाल में बीजेपी के रथ के पहिए जाम कर रखे हैं. बंगाल में अपनी राजनैतिक जमीन की खोज में बीजेपी ने रथ यात्रा का सहारा लेने की सोची, लेकिन हर बार यह मिठाई उनके मुंह तक आते-आते रह जाती है. फिर भी कोशिश जारी है. बीजेपी और रथ यात्रा का एक दूसरे से काफी पुराना नाता है. अगर ये कहें कि रथ यात्राओं ने बीजेपी को लोगों तक पहुंचाने का काम किया तो गलत नहीं होगा.
आज बीजेपी के किसी गिने-चुने कार्यक्रमों में मंच के किसी हिस्से पर शांत बैठने वाले आडवाणी का नाम उन नेताओं में शामिल है, जिन्हें बीजेपी की रीढ़ कहा जाता है. भले ही आज बीजेपी औपचारिकता के तौर पर आडवाणी को बुलावा भेजती हो, लेकिन उन्होंने पार्टी की जड़ों में पानी डालकर उन्हें दूर-दूर तक फैलाने का काम किया. 1990 में उनकी रथ यात्रा को आज भी लोग याद करते हैं.
राम मंदिर का मुद्दा बीजेपी के लिए आज भी ठीक वैसा ही जैसा 1990 में हुआ करता था. क्योंकि यही मुद्दा था जिसने एकछत्र राज कर रही कांग्रेस के सामने बीजेपी को उठाकर खड़ा कर दिया. तभी से इसे राजनीति के एक ऐसे टॉनिक के तौर पर देखा जाता है, जो हमेशा असरदार होती है. आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर से अयोध्या तक रथ यात्रा की घोषणा कर दी. जिसके बाद पूरे उत्तर प्रदेश और देश में राम नाम की गूंज उठने लगी.
इस रथ यात्रा के सूत्रधार भी लालकृष्ण आडवाणी ही थे. आजादी के 50 साल पूरे होने पर 1997 में आडवाणी ने एक बार फिर देशभक्त नेता की इमेज बनाते हुए पार्टी को नई ताकत दी. उनके साथ लाखों लोगों ने आजादी का यह जश्न मनाया. उनकी इस रथ यात्रा के ठीक बाद कई पार्टियों ने साथ मिलकर कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंका था.
बीजेपी को वैसे तो अभी तक रथ यात्राओं से फायदा ही फायदा हुआ था, लेकिन 2004 में आडवाणी की रथयात्रा नाकाम साबित हुई. यह बीजेपी के लिए एक फ्लॉप शो था. इसके बाद एनडीए गठबंधन वाली सरकार को हार का सामना करना पड़ा. वहीं 2006 में भारत सुरक्षा यात्रा के भी कुछ ऐसे ही नतीजे रहे. आतंकवाद के मुद्दे पर सरकार को घेरने की यह कोशिश भी नाकाम रही.
नरेंद्र मोदी ने पीएम की कुर्सी पर बैठने से ठीक पहले गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी के परंपरागत तरीके को ही अपनाया. उन्होंने रथ यात्रा निकालने का फैसला लिया. इस रथ यात्रा को उनके दिल्ली कूच से लेकर भी देखा गया था. केंद्र में अपनी पैठ बनाने के लिए मोदी ने विशाल रथ यात्रा निकाली. यह रथ यात्रा उनके लिए पीएम की कुर्सी तर पहुंचने की एक अंतिम सीढ़ी बनी. यहां उन्होंने कांग्रेस मुक्त गुजरात का नारा भी दिया था. इसके बाद यूपी फतेह के लिए पीएम बन चुके मोदी ने वाराणसी में किसानों के लिए एक रथ यात्रा निकाली थी. जो बीजेपी के लिए एक बार फिर सफल यात्रा रही.
समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर अखिलेश यादव ने सीएम की कुर्सी तक का सफर रथ यात्रा पर बैठकर ही किया. उन्होंने समाजवादी क्रांति रथ यात्रा निकालकर पूरे उत्तर प्रदेश तक अपनी बात पहुंचाई. जिसके बाद साल 2012 में उन्हें उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की सत्ता का स्वाद चखने को मिला और सीएम की कुर्सी भी. हालांकि 2016 में निकाली गई उनकी दूसरी समाजवादी विकास रथ यात्रा कामयाब नहीं रही.
मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह की जन आशीर्वाद यात्रा भी काफी चर्चा में रही थी. 15 साल तक सत्ता में रहने के बाद शिवराज ने 51 दिनों की यह रथ यात्रा निकाली थी. बीजेपी ने इसे बड़ी रथ यात्रा के तौर पर पेश किया. अमित शाह ने इसे विजय यात्रा तक कहा था. लेकिन इस बार यह रथ यात्रा बीजेपी को सत्ता तक नहीं पहुंचा पाई. 2018 के अंत में हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी को हार झेलनी पड़ी.
बीजेपी ने रथ यात्राओं का दौर तब से देखा है, जब पार्टी खुद के लिए जमीन तलाश रही थी. इसमें दोराया नहीं है कि रथ यात्राओं ने पार्टी और उसकी विचारधारा को लोगों के बीच पहुंचाया. इसके बाद से ही रथ यात्रा को चुनाव का एक अहम हिस्सा मान लिया गया. इसके बाद बीजेपी सहित अन्य पार्टियों ने भी बड़े मुद्दे को लेकर रथ यात्राएं करनी शुरू कर दीं. हालांकि हर बार ये रथ यात्रा हिट नहीं रहीं, फिर भी ज्यादातर मामलों में पार्टियों को फायदा ही मिला. इसीलिए इतिहास को देखते हुए आज भी रथ यात्राएं निकाली जाती हैं. इन रथ यात्राओं का राजनैतिक दलों को कोई फायदा न भी मिले, फिर भी पार्टी को कोई नुकसान नहीं होता.
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