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पी चिदम्बरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 1968 में जो हाल फ्रांस या अमेरिका का था, वह आज भारत का हो गया है. राजनीतिक गतिविधियों से निराश छात्रों के हाथों में ‘मुद्दे’ चले गये थे. दक्षिण वियतनाम में ‘लोकतंत्र को बचाने’ के नाम पर अमेरिका युद्ध लड़ रहा था. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह प्रवृत्ति बढ़ी थी और कई देश तथाकथित तौर पर लोकतांत्रिक और साम्यवादी थे.
चिदम्बरम लिखते हैं कि चर्चिल ने इस विभाजक रेखा को ‘आयरन कर्टन’ करार दिया था. जब वियतनाम युद्ध लम्बा खिंचने लगा तो स्वेच्छा से सेना में सेवा देने आए नौजवानों के सामने अमेरिकी सरकारों के झूठ का पर्दफाश होने लगा. समर्थन संदेह में, संदेह अविश्वास में और अविश्वास विरोध में बदलता चला गया. आखिरकार अमेरिका को युद्ध से भागना पड़ा. भारत में भी संदिग्ध लोगों की कुलपति के तौर पर नियुक्ति, अक्खड़ राज्यपालों की बेवजह दखल, शिक्षकों की दोषपूर्ण नियुक्तियां, छात्र संघों की गतिविधियों पर तरह-तरह के प्रतिबंध, फीस बढ़ोतरी जैसे मुद्दों से परिसरों में छात्र गुस्से में हैं. जेएनयू में विश्वविद्यालय प्रशासन खुलकर एबीवीपी का समर्थन कर रहा है.
देश भर में सरकार का व्यवहार दमनकारी हो गया है. आर्थिक विकास के दावे खोखले साबित हो रहे हैं. रोजगार को लेकर आक्रोश बढ़ रहा है. मगर, विरोध को बर्दाश्त नहीं किया जा रहा है. जहां संविधान सभा में कानून बनने से पहले लम्बी बहस हुई थी, वहीं आज संसद में जोर-जबरदस्ती बहुत कम समय में बिल पारित करा लिए जा रहे हैं. नागरिकता संशोधन कानून इसका उदाहरण है. लोग सड़क पर हैं. मगर, सरकार कह रही है कि वह एक इंच भी पीछे नहीं हटेगी.
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि ठिठुरती औरतों को राष्ट्रगीत गाते हुए अपनी देशभक्ति सिद्ध करनी पड़ रही है. सरकार और प्रदर्शनकारियों के बीच राष्ट्रीयता को लेकर जबरदस्त जोर आजमाइश हो रही है. एक तरफ नागरिकता कानून को लेकर मोदी के सिपाही खुद को असली राष्ट्रवादी साबित कर रहे हैं तो दूसरी तरफ वे विरोधियों को ‘देश के गद्दार’ बता रहे हैं. वहीं, प्रदर्शनकारी तिरंगा उठाकर और संविधान अपने हाथ में रखकर खुद को राष्ट्रवादी साबित करने में लगे हैं.
तवलीन सिंह लिखती है कि प्रदर्शनकारी ज्यादातर मुसलमान हैं क्योंकि सरकार ने मजहब को नागरिकता से जोड़ने वाला नागरिकता कानून पास किया है. लेखिका इसकी वजह बीजेपी नेताओं के उन दावों को भी बताती है जिनमें वे कहते रहे हैं कि मुसलमान देशभक्त नहीं हो सकते. ‘रामजादे हरामजादे’ नारे की भी वह इस संदर्भ में याद दिलाती हैं.
खुद प्रधानमंत्री अपने विरोधियों को पाकिस्तान का समर्थक बता चुके हैं. सोशल मीडिया पर मोदी के समर्थक विरोधियों को जेहादी बता रहे हैं. वह लिखती हैं कि माहौल अचानक नहीं बदला है. वह यूपी का उदाहरण रखती हैं जहां प्रदर्शन के दौरान सबसे ज्यादा लोग मारे गये हैं. बगैर अदालती सुनवाई के अब आम लोगों को ही साबित करना होगा कि उन्होंने कोई हिंसा नहीं की. जेएनयू में दीपिका पादुकोण के जाने के बाद केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी तक ने उन्हें टुकड़े-टुकड़े गैंग का समर्थक करार दिया.
बरखा दत्त ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि छात्रों के विरोध प्रदर्शन को लेकर चाहे आप पक्ष में हों या विपक्ष में लेकिन इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि दीपिका पादुकोण ने असाधारण साहस दिखाया है. जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में घायल आइशी घोष से मिलना और उन्हें समर्थन देना साधारण बात नहीं है. वह लिखती हैं कि जो लोग कह रहे हैं कि छपाक के प्रमोशन के लिए ऐसा किया गया, उन्हें पता नहीं है कि फिल्म से जुड़े लोग प्रमोशन को लेकर किस तरह से सोचते हैं.
लेखिका ने कुछ दिनों पहले जयपुर में फिल्म की डायरेक्टर मेघना गुलजार और दीपिका पादुकोण से मुलाकात के हवाले से लिखती हैं कि उनमें एनआरसी जैसे विवादों को समझने की ललक दिखी. उसी दौरान दीपिका ने उन्हें बताया था कि कलाकार सॉफ्ट टारगेट होते हैं. फिल्म उद्योग के जिम्मेदार लोग अक्सर जिम्मेदारी से बच निकलते हैं.
बरखा लिखती हैं कि जेएनयू जाने से एक कलाकार के तौर पर दीपिका को खतरे अधिक हैं. उन्हें सरकारी काम मिलने बंद हो सकते हैं. उनकी फिल्म बायकाट की जा सकती हैं और आगे भी उन्हें बहुत कुछ नुकसान उठाना पड़ सकता है. दीपिका के साहस को बताते हुए बरखा लिखती हैं कि ‘छपाक’ में काम करने को लेकर भी फिल्म इंडस्ट्री के वरिष्ठ लोगों ने उन्हें रोका था कि बदसूरत दिखकर वह अपनी छवि को नुकसान पहुंचा रही हैं. मगर, दीपिका ने चुनौती को स्वीकार किया. लेखिका लिखती हैं कि जिस मुद्दे पर शाहरुख खान, आमिर खान जैसे कलाकार चुप रहे उस मुद्दे पर सामने आकर दीपिका ने साहस दिखाया है.
एस ए अय्यर टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने नियमित कॉलम स्वामीनॉमिक्स में स्वच्छ बजट की वकालत करते हैं जिसमें राजकोषीय धोखाधड़ी न हो. दिलचस्प तरीके से वे दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला का उदाहरण देते हैं जिन्होंने सत्ता में आने के बाद गोरों के प्रति कोई नफरत नहीं दिखलायी. एक आयोग बनाया. जिसने गलती मान ली, उन्हें माफी दी. बिल्कुल नये सिरे से स्लेट पर लिखना शुरू किया. वे लिखते हैं कि भारत का बजट तैयार करते समय भी इसी नजरिए की जरूरत है. वे सत्य, क्षमा और सुलह का तरीका सुझाते हैं.
अय्यर लिखते हैं कि राजकोषीय घाटे को 3 प्रतिशत तक सीमित रखने के लिए सरकार दो तरह की धोखाधड़ी करती हैं. वह अपने बकाए का भुगतान नहीं करती है और उसे अगले साल के लिए हस्तांतरित होने देती है. एनटीपीसी और कोल इंडिया से अगले साल का मालभाड़ा जब अग्रिम के तौर पर ले लिया जाता है ताकि 2018-19 का घाटा कम हो सके, तो यह बात और भी खतरनाक हो जाती है. वे लिखते हैं कि बजट से बाहर निकलकर उधार लेने की प्रवृत्ति दूसरी बड़ी धोखाधड़ी है. 2017-18 में राजस्व घाटा जीडीपी का 3.46 प्रतिशत था लेकिन सीएजी ने पाया था कि बजट से इतर उधार 2 प्रतिशत ज्यादा था और इस तरह वास्तविक घाटा 5.5 प्रतिशत था. ऐसा गड़बड़झाला राज्य सरकारें भी करती हैं.
केंद्र और राज्य के इन गडबड़झालों को जोड़कर देखें तो पब्लिक सेक्टर बॉरोइंग रिक्वायरमेंट (पीएसआरबी) कम से कम 9 प्रतिशत आंका गया है. इसके मुकाबले देश में बचत 7 फीसदी ही है. उधार और बचत में यह फर्क चिंताजनक है.
स्वपन दास गुप्ता ने टाइम्स ऑफ इंडिया में छात्रों को प्रदर्शन से मोहब्बत के खतरों से आगाह किया है. वे लिखते हैं कि अखबार, वेबसाइट और न्यूज चैनलों को खंगालने पर रोमांच भी होता है, नफरत भी. यह हमें अतीत में ले जाता है. हर पीढ़ी में बदलाव की ललक होती है, मगर सीखना भी अतीत से ही होता है. वे लिखते हैं कि नागरिकता को पहचानने की कोशिश में एक बार फिर जेएनयू, जाधवपुर और एएमयू ने हिंसक प्रदर्शनों से अपने लगाव को दोहराया है. मगर, आश्चर्य तब हुआ जब सेंट स्टीफेंस कॉलेज के छात्रों को भी संविधान की प्रस्तावना पढ़ने के लिए कक्षा का बहिष्कार करते हुए देखा. लेखक को 1975 की याद ताजा हो आयी जब वे भी इसी कॉलेज में जय प्रकाश नारायण को चंदा जुटाकर देने वाले छात्रों में शामिल थे.
लेखक याद दिलाते हैं कि तब भी कई छात्रों ने पढ़ाई छोड़ दी, कईयों ने भूमिगत लड़ाई लड़ते हुए अपने सत्र का नुकसान किया तो कई सरकारी दमन का शिकार होकर अपना करियर बर्बाद कर बैठे. लेखक लिखते हैं कि तब भी आंदोलन की प्रेरणा लेनिन का साम्यवाद, वियतनाम युद्ध, चीन जैसे देशों से आयी थी और आज भी अमेरिका और इंग्लैंड से छात्र प्रेरित हो रहे हैं. आज के नव वामपंथी मोदी को फासिस्ट बता रहे हैं. वे लिखते हैं कि इस लड़ाई में हीरो बनने की अच्छा भी दिखती है. लेखक ने लेनिन के ही शब्दों में ऐसे लोगों को ‘यूजफुल इडियट’ बताया है.
न्यू इंडियन एक्सप्रेस में रवि शंकर लिखते हैं कि धर्म और विचारधारा के आधार पर समाज और देश में टकराव सामने आते रहे हैं. हर बार हिंसा के बाद ही मसले हल हुए हैं. इतिहास में दर्ज है कि शासकों के हाथों अनगिनत यहूदी मारे गये, हिन्दुओँ का नरसंहार हुआ. विरोधी विचारों के करोड़ों लोगों को शासकीय दमन का शिकार होना पड़ा है. शक्तिशाली कम्युनिज्म का रूस में अंत हुआ तो फासीवाद का इटली, फ्रांस और स्पेन में. वहीं मार्टिन लूथर किंग, राजाराम मोहन राय, पेरियार, नारायण गुरु के सुधारों ने समाज को बदलने का काम किया. लेखक का मानना है कि लोकतंत्र की कीमत नौजवानों को ही चुकानी पड़ती है.
जेएनयू में खूनी हमला, दिल्ली पुलिस की जांच और हिंसा को लेकर अब तक जो बातें सामनी आयी हैं उसका संदेश यही है कि अगर आप असंतोष दिखाते हैं तो आपको भीड़ का या फिर सत्ता का गुस्सा झेलना पड़ेगा. मगर, मूल बात ये है कि कितने छात्रों, टीचरों, कलाकारों को जेल भेजा जा सकता है? नौजवान बनाम सरकार की स्थिति है. न तो नरेंद्र मोदी और न ही अमित शाह अनिर्णयकारी हैं. कश्मीर, तीन तलाक, प्रवासी भारतीय हर मामले में फैसले हुए हैं. वे बात नहीं करते, कार्रवाई करते हैं. मोदी आज नेता से ज्यादा आंदोलन हैं. मगर, यह भी साफ है कि सीएए विरोधी आंदोलन बहुत आगे जा चुका है. जब प्रदर्शन आंदोलन बन जाता है तो नदी का पानी भी जरूर बदलता है.
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