Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019India Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019सौरभ कालिया:आज भी घर पर वर्दी,पर्स- पहले महीने की सैलरी रखी है, वीरता की कहानी?

सौरभ कालिया:आज भी घर पर वर्दी,पर्स- पहले महीने की सैलरी रखी है, वीरता की कहानी?

Republic Day 2023: सौरभ के परिवार ने उनकी हर याद को सहेज कर रखा है और घर पर सौरभ के नाम का मेमोरियल बनाया है.

क्विंट हिंदी
भारत
Updated:
<div class="paragraphs"><p>सौरभ कालिया के बलिदान से कारगिल युद्ध की शुरुआती इबारत लिखी गई थी</p></div>
i

सौरभ कालिया के बलिदान से कारगिल युद्ध की शुरुआती इबारत लिखी गई थी

null

advertisement

आज देश 74वां गणतंत्र दिवस मना रहा है. कर्तव्य पथ पर परेड और झाकियों का कार्यक्रम होगा. इस दिन वीर जवानों की कहानियां और उनके अदम्य साहस की गाथाएं सुनाई और बताई जाती हैं. देश के लिए शहीद होने वाले जवानों में एक नाम सौरभ कालिया का भी है. आज उनकी शहादत के बारे में बताते हैं.

तारीख 26 जुलाई, 1999... वो दिन जब हिन्दुस्तान ने पाकिस्तान को कारगिल युद्ध में करारी शिकस्त दी थी. इस जंग में कैप्टन सौरभ कालिया ने अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन अफसोस की इस जीत का जश्न देखने के लिए सौरभ कालिया इस दुनिया में नहीं थे.

कैप्टन सौरभ कालिया

सौरभ कालिया के बलिदान से कारगिल युद्ध की शुरुआती इबारत लिखी गई थी और जीत भी उनकी शहादत के साथ तय हुई थी. लेकिन ये शहादत इतनी आसान नहीं थी. मौत से पहले सौरभ को कई तरह की यातनाएं सहनी पड़ी थी. पाकिस्तानियों ने सौरभ के साथ अमानवीयता की तमाम हदें पार कर डाली थीं. नाखुन तक नोंच दिए थे और फिर गोली मार दी थी.

जब घर पहुंचा पार्थिव शरीर

शहादत के बाद 9 जून, 1999 को सौरभ कालिया का पार्थिव शरीर उनके पालमपुर स्थित घर पहुंचा था. उन्हें आखिरी बार देखने के लिए मानों पूरा प्रदेश ही जुट गया था. लेकिन जब सौरभ को उनके माता-पिता ने देखा तो पहचान नहीं पाए थे. सौरभ कालिया के पिता एन के कालिया बताते हैं कि दुश्मन ने बेटे के साथ दरिंदगी की सारी हदें पार कर डाली थी. सौरभ की आंखें तक निकाल ली गई थीं. नाखुन नोच दिए थे, चेहरे और शरीर पर इतने घाव थे की पहचानना मुश्किल हो गया था.

सौरभ कालिया अपने भाई वैभव के साथ

सौरभ कालिया 22 साल की उम्र में हुए थे शहीद

29 जून, 1976 को डॉ. एनके कालिया के घर जन्में सौरभ कालिया जब शहीद हुए थे तो वे महज 22 साल के थे. दिसंबर 1998 में IMA से ट्रेनिंग पास करने के बाद फरवरी 1999 में सौरभ की पहली पोस्टिंग कारगिल में 4 जाट रेजीमेंट में हुई थी और जब मौत की खबर आई तब उन्हें सेना ज्वाइन किए हुए चार महीने भी नहीं हुए थे.

सौरभ कालिया का पर्स

दरअसल, इस जंग की शुरूआत 3 मई, 1999 से हो गई थी. जब ताशी नामग्याल नाम के एक चरवाहे ने कारगिल की चोटियों पर हथियारों से लैस कुछ पाकिस्तानियों को देखा. ताशी ने इसकी जानकारी भारतीय सेना को थी. जानकारी के बाद अधिकारियों के आदेश पर कैंप्टन सौरभ कालिया 14 मई को अपने पांच जवान साथियों के साथ पेट्रोलिंग पर निकले. इसी दौरान उन्होंने हथियारबंद पाकिस्तानी सैनिकों को देखा.

सौरभ कालिया की मां

सौरभ कालिया के पिता एनके कालिया बताते हैं कि सौरभ कालिया और उनकी टीम पेट्रोलिंग पर थी लिहाजा उनके पास ज्यादा हथियार नहीं थे और दुश्मन पूरी तैयारी के साथ आया था. दुश्मन ने सौरभ और उनके साथियों को घेर लिया. दोनों तरफ से बराबर मुकाबला हुआ लेकिन गोलियां खत्म होने के बाद पाकिस्तानियों ने कैप्टन सौरभ और उनके साथियों को बंदी बना लिया.

इस दौरान दुश्मन ने उन्होंने कई तरह की यातनाएं दी, करीब 22 दिन तक तड़पाया. उनके शरीर को गर्म सरिए और सिगरेट से दागा गया, आंखें फोड़ दी गईं और निजी अंग काट दिए. पाकिस्तान ने शहीदों के शव 23 दिन बाद 7 जून, 1999 को भारत को सौंपे थे.

9 जून को जब कैप्टन कालिया तिरंगे में लिपटे घर पहुंचे तो हालत देखकर परिवार सहम गया. उन्हें तो पहचानना भी मुश्किल हो रहा था.

हमने तो भैया को वर्दी में भी नहीं देखा था- वैभव

सौरभ कालिया के छोटे भाई वैभव कालिया हैं जो अभी पालमपुर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. वैभव बताते हैं कि, शहादत के वक्त उनकी ज्वाइनिंग को मुश्किल से चार महीने हुए थे और हमने तो उन्हें वर्दी में भी नहीं देखा था.

फोन की सुविधा नहीं थी, ऐसे में चिट्ठियों से ही हाल-चाल होता था और इसमें भी महीनों लग जाते थे. भैया पाकिस्तानियों के कब्जे में हैं उन्हें तो इस बात का पता भी नहीं था. उन्हें ये जानकारी एक अखबार से लगी थी और फिर फौज से आगे की जानकारी लेते रहे.
वैभव, सौरभ कालिया के छोटे भाई

वैभव कालिया बताते हैं कि, जब उनके बड़े भाई सौरभ कालिया का पार्थिव देह घर पहुंचा तो फौज के नियमों के अनुसार उन्हें अपने भाई की बॉडी की पहचान के लिए बुलाया. उन्होंने बताया कि उनके भाई की बॉडी इतनी छिन्न-भिन्न की गई थी कि वह देखकर सिहर उठे. लिहाजा इसके बाद उन्होंने फौजी अधिकारियों से यह आग्रह किया कि, इसे उनके माता-पिता को ना दिखाया जाए क्योंकि शायद वो इस तरह बेटे का पार्थिव देह देखकर सह नहीं पाएंगे.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

वो बचपन से ही सेना में जाना चाहते थे- सौरभ के पिता

सौरभ कालिया के पिता एनके कालिया ने बताया कि सौरभ बचपन से ही सेना में जाना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने 12वीं के बाद AFMC की परीक्षा भी थी. लेकिन पास ना हुए तो ग्रेजुएशन किया.

फिर CDS की परीक्षा देकर आर्मी में सिलेक्ट हुए. जिससे हम सब खुश थे. बेटे की कमी तो है लेकिन गर्व भी है.
एनके कालिया, सौरभ कालिया के पिता

पिता सौरभ कालिया के पिता एनके कालिया बतातें हैं कि सिलेक्शन के बाद उनके डॉक्यूमेंट की वजह से ज्वाइन करने में दो या तीन महीने की देरी हुई थी. सौरभ के पास अगले बैच में जाने का मौका था लेकिन उन्होंने उसी बैच में जाने का फैसला किया. ट्रेनिंग के इस गैप को पूरा करने के लिए सौरभ ने दिन रात मेहनत की और दिसंबर 1998 में IMA से पासआउट हुए. लेकिन अगर सौरभ अगले बैच में चले जाते तो शायद आज और ही बात होती.

सौरभ के नाम का मैमोरियल.

(फोटोः क्विंट हिंदी)

सौरभ का परिवार आज भी उन्हें अपने आस-पास महसूस करता है. सौरभ के पिता ने उनकी हर याद को सहेज कर रखा है और घर पर सौरभ के नाम का मेमोरियल बनाया है. जिसमें उनका वर्दी से लेकर पर्स और पहले महीने की सैलरी तक शामिल हैं.

शहीद सौरभ के नाम पर बना है वन विहार

सौरभ का परिवार पालमपुर में रहता है, लेकिन सौरभ का जन्म पंजाब के अमृतसर में हुआ था. लिहाजा सौरभ के नाम से आज पालमपुर पहचाना जाता है. उनकी शहादत को नमन न केवल पालमपुर या हिमाचल बल्कि पूरा राष्ट्र करता है. कैप्टन सौरभ कालिया वन विहार नाम से पर्यटन स्थल बना है. जहां देश विदेश के पर्यटक पहुंचते हैं और इस वीर को नमन करते हैं.

सौरभ कालिया की तरह ही दूसरे हीरो थे कैप्टन विक्रम बत्रा

पालमपुर के ही रहने वाले कैप्टन विक्रम बत्रा शेर सा हौंसला रखते थे लिहाजा उनके साथी उन्हें शेरशाह कहते थे. विक्रम बत्रा पर हाल ही शेरशाह के नाम से फिल्म भी आ चुकी है. शेरशाह और उनकी टुकड़ी को सेना ने पहले जून 1999 को कारगिल युद्ध में भेजा गया. हम्प और रॉकी जगहों को जीतने के बाद विक्रम बत्रा को कैप्टन की उपाधी से नवाजा गया था.

परमवीर चक्र लेते विक्रम बन्ना के पिता.

(फोटोः क्विंट हिंदी)

इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग की सबसे महत्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने की जिम्मेदीरी कैप्टन विक्रम बतरा को सौंपी गई थी. दुर्गम क्षेत्र होने के बाद भी शेरशाह के फौलादी हौंसलों ने साथियों की मदद से 20 जून, 1999 की सुबह 3 बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया था.

इसके बाद बत्रा का टारगेट था प्वाइंट 4875... 4 जुलाई, 1999 की शाम 6 बजे प्वाइंट 4875 पर मौजूद दुश्मन पर हमला करना शुरू किया. रात भर गोली बारी होती रही. बत्रा की टीम ने प्वाइंट 4875 पर मौजूद दुश्मनों के बंकरों को तबाह किया.

इस दौरान बत्रा के दो साथी घायल हो गए थे. जिन्हें बचाने के लिए बत्रा कवर करने लगे इसी बीच एक पाकिस्तानी स्नाइपर ने उनके सीने में गोली मार दी. लेकिन बत्रा ने घायल होकर उस दुश्मन को भी मार गिराया. बत्रा के सम्मान में प्वाइंट 4875 का नाम बत्रा टॉप रखा गया है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 26 Jan 2023,07:20 AM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT