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7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन (Mandal Comission) की सिफारिशें लागू की गईं, ओबीसी (OBC) को आरक्षण मिला. तब से अब तक सीधे तौर पर कोई पार्टी आरक्षण को हाथ लगाने से कतराती है लेकिन क्या चोर दरवाजे से आरक्षण को खत्म किया जा रहा है?
गत 20 जुलाई को संसद में प्रधानमंत्री से पूछे गए एक सवाल के जवाब में उनके मातहत राज्यमंत्री ने केन्द्रीय सरकार के केवल 10 मंत्रालयों/विभागों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों हेतु आरक्षित पदों में 1 जनवरी 2021 को बैकलॉग पदों की संख्या, भरे गए पदों की संख्या और उन पदों की संख्या बताई जो 1 जनवरी 2021 तक भरे नहीं गए थे.
सवाल के जवाब में दी गई जानकारी के अनुसार देश के केवल 10 मंत्रालयों/विभागों में 1 जनवरी 2021 को आरक्षित वर्गों के कुल रिक्त पदों की संख्या 85,777, जिनमें से 31,082 अनुसूचित जातियों, 23,680 अनुसूचित जनजातियों और 31,015 पद अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित थे.
सरकार के तमाम दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़े वर्गों के हितैषी होने के दावों के बीच सरकारी प्रयासों का अंदाज़ा केवल इसी बात से लगाया जा सकता है कि केन्द्रीय सरकार के इन 10 मंत्रालय/विभाग कुल 85,777 रिक्त आरक्षित पदों में से 62% यानी 53293 आरक्षित पद भर नहीं पाये. मंत्रालय और विभागवार रिक्त आरक्षित पदों की संख्या, भरे गए पदों की संख्या और रिक्त रह गए पदों की संख्या और उनका प्रतिशत तालिका – 1 में दिया गया है.
मसला केवल उपरोक्त चिन्हित केन्द्रीय सरकार के 10 मंत्रालयों और विभागों तक सीमित नहीं है. नेशनल कॉनफेडरेशन ऑफ दलित एण्ड आदिवासी ऑर्गनाइजेशन्स (नैकडोर) के अनुसार, (जो कार्मिक, और प्रशिक्षण विभाग की सालाना रिपोर्ट के आधार पर आरक्षित वर्गों के आरक्षण संबंधी आंकड़ें एकत्रित करता है) वर्ष 2014-15 में केन्द्रीय सरकार के तमाम मंत्रालयों और विभागों में विभिन्न पदों पर कुल 29,52,080 व्यक्ति कार्यरत थे.
सात साल बाद वर्ष 2020-21 में केन्द्रीय सरकार के तमाम मंत्रालयों और विभागों में विभिन्न पदों पर कार्यरत व्यक्तियों कि संख्या 10,14,984 घट कर केवल 19,37,096 रह गई. इन सात सालों में केन्द्रीय सरकार में कार्यरत आरक्षित वर्गों (सफाई कर्मचारियों को 100% आरक्षित वर्ग के कर्मचारी मानते हुए) के कुल कर्मचारियों की संख्या जो 2014-15 में 13,88,292 थी, वर्ष 2020-21 मे घट कर 9,21,395 रह गई. इस दौरान सफाई कर्मियों के संख्या में भारी कमी आई.
2014-15 में जिन सफाई कर्मियों की संख्या केन्द्रीय सरकार मे 1,17,681 थी, वर्ष 2020-21 में उनकी संख्या केवल 40803 रह गई. वर्ष 2014-15 से लेकर 2020-21 तक के सात वर्षों में कर्मियों की संख्या में 76,878 या 65.33% की कमी आई. तालिका – 2 केन्द्रीय सरकार की सेवाओं में वर्ष 2014-15 से वर्ष 2020-21 तक विभिन्न सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व दर्शाती है.
सबसे प्रमुख तरीका, जो सभी राज्य सरकारों ने अपनाया है वह है सेवा-निवृति से खाली हुए पदों को शुरू मे खाली छोड़ देना और फिर कुछ समय बाद उन पदों को समाप्त कर देना.
यद्यपि, सेवानिवृति के बाद खाली रह गए या खत्म कर दिये गए पदों के राज्य सरकारों के आंकड़ें जनता के लिए उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन इन पदों की संख्या केन्द्रीय सरकार में खाली पड़े पदों से कई गुना अधिक हो सकती है.
राज्य सरकारों ने अपने कर्मचारियों की संख्या कम करने के लिए और भी कई तरीके निकाले हैं, इनमें से एक तरीका हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव का वह पत्र है जिसमें उन्होंने 50 साल की उम्र से अधिक के ऐसे कर्मचारियों/अधिकारियों को चिन्हित करने की बात की है, जिनका काम संतोषजनक नहीं है. एक ऐसी नौकरशाही, जिसमें गैर-आरक्षित सवर्ण समुदायों का बहुमत हो, उसमें संतोषजनक काम न करने वाले लोगों के चिन्हिकरण में कौन लोग चिन्हित किए जाएंगे, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है.
इसके अलावा केंद्र और राज्य सरकारों के वित्तीय कुप्रबंधन के चलते सरकार कर्मचारियों की जरूरत और इसके बारे में पूरी जानकारी होने के बावजूद नए पदों का सृजन और नई भर्तियां करने से बच रहीं हैं. कर्मचारियों की कमी को दूर करने के लिए केंद्र और राज्य दोनों आउट-सोर्सिंग से बड़े पैमाने पर न्यूनतम मजदूरी पर अस्थाई कर्मचारियों की भर्ती कर रही हैं.
स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, बैंक, सरकारी विभाग सभी के सभी अस्थाई कर्मचारियों से गुजारा कर रहे हैं. यह बात याद रखने की है कि सरकार की ठेकेदारी या आउट-सोर्सिंग नीति में आरक्षित वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं है.
यह बात सर्व-विदित है कि हमारे देश में निजी क्षेत्र में किसी तरह के आरक्षण का प्रावधान नहीं है. यूपीए सरकार के दौर में जब सरकार सार्वजनिक उपक्रमों का, जहां आरक्षण की सुव्यवस्थित प्रणाली थी, निजीकरण करते समय आरक्षण की व्यवस्था को जारी रखने पर ज़ोर देती थी.
लेकिन हाल ही के वर्षों में जब सरकार तमाम तरह के सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण कर रही है, उनमें आरक्षित वर्गों के हितों को सुरक्षित रखने की व्यवस्था या उसपर कोई चर्चा नहीं हो रही है.
इस तरह न केवल सरकारी क्षेत्र में आरक्षित वर्गों के कर्मचारियों की संख्या में भारी गिरावट हो रही है, अपितु बढ़ते निजीकरण से भी आरक्षित वर्गों की नौकरियों में कमी हो रही है. आउट-सोर्सिंग भी आरक्षित वर्गों कि नौकरियों को कम कर रहा है, जिसका सीधा प्रभाव आरक्षित वर्गों के रोजगार, नीति-निर्धारण और देश के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक प्रबंधन में उनकी हिस्सेदारी बुरी तरह प्रभावित हुई है. सरकार को आरक्षित वर्गों के लिए नौकरियां, और गैर-सरकारी क्षेत्र में आरक्षण की नीति को लाने पर गंभीरता से सोचना चाहिए. अन्यथा खत्म होती सरकारी नौकरियों मे आरक्षण कहां बचेगा?
ये बात सच है कि सिर्फ आरक्षित वर्गों की सरकारी नौकरियां ही कम नहीं हो रही है. ओवरऑल सरकारी नौकरियां घट रही हैं, लेकिन यहां समझने वाली बात ये है कि समाज के वंचित, कमजोर वर्गों के लिए बिना सरकारी समर्थन/आरक्षण के नौकरी पानी ज्यादा कठिन है. अगर ये आरक्षण न हो तो आज भी धनाढ्य सर्वण वर्ग और कुछ मामलों में दलित धनाढ्य भी दलित को अपने प्रतिष्ठानों में नौकरी देने को तैयार नहीं होते.
(लेखक नेशनल कोन्फ़ेडेरेशन ऑफ दलित एंड आदिवासी ओर्गानाईजेशन्स (नैकडोर) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
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