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अपने आखिरी शब्दों में भी वेमुला खुद को विज्ञान से दूर न कर सका. वह जातीय भेदभाव की लड़ाई को छात्र राजनीति की मदद से जरूर लड़ रहा था, पर साफ दिखता है कि इसके पीछे उसकी असली ताकत विज्ञान के लिए उसका प्यार ही था.
पर वेमुला और उसी की तरह खत्म हो जाने वाले विद्यार्थियों की जान भी विज्ञान के लिए उनके प्यार ने ही ले ली.
एक्टिविस्ट्स का कहना है कि देशभर के साइंस डिपार्टमेंट में बड़े पदों पर ऊंची जाति के ही प्रोफेसर मौजूद हैं, इसके चलते दलित विद्यार्थियों को भयानक भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में ही फिजिक्स में पीएचडी कर रहे सेंथिल कुमार ने 24 फरवरी 2008 को अपने हॉस्टल के कमरे में आत्महत्या कर ली थी. शुरुआत में विश्वविद्यालय के अधिकारियों का कहना था कि छात्र की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई थी, पर जब पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में पता चला कि उसने जहर खाया था, तब मामला सुर्खियों में आ गया था.
वहां राजनीतिक आक्रोश दिखा था. प्रोफेसर विनोद पवाराला की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी भी बना दी गई थी.
जातिगत भेदभाव की ‘परंपरा’
पवाराला की जांच से चौंका देने वाली बातें सामने आईं. विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ साइंस में जातिगत भेदभाव एक परंपरा बना हुआ था. सेंथिल के बैच में उसे मिलाकर चार छात्रों को सुपरवाइजर ही नहीं दिए गए थे. ये चारों लोग रिजर्व कैटेगिरी से थे.
बिना किसी गाइडेंस के अच्छा परफॉर्म करने की कोशिश में सेंथिल अपने कोर्स में फेल हो गया, जिससे उसे स्कॉलरशिप मिलना बंद हो गई. तमिलनाडु के सूअर पालने वाले एक गरीब परिवार के सेंथिल ने दबाव में आकर आत्महत्या कर ली. सुपरवाइजर से वंचित दो अन्य छात्रों ने कोर्स छोड़ दिया.
पवाराला की रिपोर्ट में यह भी बताया गया था, “व्यवस्थागत परेशानियों का शिकार होने वाले छात्र अधिकतर एससी/एसटी वर्ग के ही थे.” साथ ही बताया गया,
“कमेटी जितने भी एससी/एसटी वर्ग के फिजिक्स छात्रों से मिल सकी, सभी का यही मानना था कि स्कूल उनके हितों के खिलाफ काम कर रहा है.”
छात्रों का कहना था कि यह भेदभाव इरादतन किया जाता था.
ईपीडब्लू के लिए लिखते हुए सेंथिल कुमार सोलिडेरिटी कमेटी ने सेंथिल की मौत के लिए जो कारण दिए उनमें से एक था, “विज्ञान के लिए प्रेम.”
वर्ष 2008 में द हिंदू से बात करते हुए सेंथिल के हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के दोस्त थेन्नारुसु ने भी कहा कि साइंस की ब्रांचों में भेदभाव बहुत ज्यादा था और दलित छात्रों को पक्षपात व पूर्वाग्रह झेलने ही पड़ते थे.
सुपरवाइजर मिलना बेहद मुश्किल होता था. कोई भी दलित छात्रों को अपने वार्ड के तौर पर नहीं लेना चाहता था, उसने बताया था.
सेंथिल और रोहित ही नहीं, साइंस के नाम पर कुर्बान हुए रजनी आनंद और अजय श्री चंद्रा की कहानियां भी आप यहां देख सकते हैं.
सेंथिल की मौत के बाद विश्वविद्यालय ने दलित छात्रों के लिए नियम बदल दिए थे. कोर्सवर्क में फेल होने के बाद भी उनकी स्कॉलरशिप जारी रखने का नियम बना दिया गया था. पर भेदभाव उसके बाद भी जारी रहा.
शिक्षा के क्षेत्र में प्राइवेट प्लेयर्स के आ जाने की वजह से इंजीनियरिंग और ह्यूमनिटीज में दलित छात्रों और प्रॉफेसरों की संख्या बढ़ी है, पर शिक्षाविदों का मानना है कि प्योर साइंस में उनके लिए दरवाजे अब भी बंद हैं.
एम्स के एक छात्र की आत्महत्या पर कैरवैन की रिपोर्ट आप यहां पढ़ सकते हैं.
2008 में सेंथिल की मौत के बाद कई छात्र इस बारे में जांच कराने के लिए तमिलनाडु की दलित पार्टी वीसीके के नेता डी रविकुमार के पास गए थे. उन्हीं की कोशिशों के चलते सेंथिल की मौत की जांच के लिए कमेटी बन सकी थी.
हैदराबाद की EFLU यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पार्थसारथी मुथुक्करप्पन का कहना है कि कई दलित छात्रों को भारतीय विश्वविद्यालय से निकाल दिए जाने के बाद भी उन्होंने विदेशी विश्वविद्यालयों में अच्छा प्रदर्शन किया है.
इस समस्या का क्या हल हो सकता है? रविकुमार कहते हैं, “मैं आरक्षण का नाम नहीं लूूंगा,” वे कहते हैं कि आरक्षण दलितों के लिए जरूरी है, पर उससे भी जरूरी है हमारे शिक्षकों को भेदभाव के खिलाफ प्रशिक्षण देना, नहीं तो समस्या जस की तस बनी रहेगी.
(लेखक रामनाथन एस न्यूज मिनट्स से जुड़े हुए हैं.)
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